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Thursday, December 15, 2016

भ्रष्टाचार

  

 



     

          भ्रष्टाचार

दूसरों के गिरेबान में झाँकते हो,
दूसरों का ज़मीर नापते हो,
दूसरों को भ्रष्ट कहने से पहले 
क्या अपनी औकात जानते हो। 

भ्रष्टाचार से परेशान हैं सब,
इसको तुमने छोड़ा था कब,
भ्रष्टाचार की घनी छाँव में 
तुम भी तो पलते थे तब। 

इसके चलते तुमने इंसानियत को छोड़ दिया ,
चंद सिक्कों के ख़ातिर ज़मीर अपना बेच दिया ,
कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहां दिखाई ना दे तेरा असर 
माँ भारती के आँचल को तुने तार-तार ही कर दिया।  

जब चला भ्रष्टाचार पर ख़ंजर,
बदल सा गया यहाँ का मंजर,
लोग तो परेशां है, फिर भी खुश हैं 
कि उखड़ ही जाएगी भ्रष्टाचार की जड़। 

आओ ! हम ये सौगंध उठायें,
ले-देकर अब काम ना चलायें,
असमानता का हो खात्मा
हम सब भारतीय एक हो जायें। 

गिरेबान में झाँकना - दोषों को देखना

चित्र http://www.palpalindia.com/ से साभार 

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, December 8, 2016

चार पहर की ज़िन्दगी







चार पहर की ज़िन्दगी 

अलस भोर में बचपन बिता,
नहीं थी किसी तरह की चिंता,
अपने सुंदर नटखट स्वभाव से,
सभी का दिल था मैंने जीता। 

समय बिता छल-कपट अपनाया,
माँ-बाप ने मुझे बहुत समझाया,
कच्ची धुप सी थी मेरी तरुणाई
था किशोर कुछ समझ ना पाया। 

लालच-लोभ के साथ आई जवानी,
मैंने किसी से कभी हार ना मानी,
खड़ी धुप में मैंने पसीना बहाया 
लक्ष्य पाने में करता था मनमानी। 

काम-क्रोध का ऐसा चस्का जागा,
धन-दौलत के पीछे-पीछे मैं भागा,
जीवन का पल हो शाम सुहानी तो 
प्रौढ़ उम्र में ईमान को भी त्यागा। 

नौ-रस के चासनी में ऐसा डुबा,
पांच-ज्ञानेन्द्रियाँ थी मेरी महबूबा,
गोधुली सी थी नशा जीवन का 
फिर भी शांति का नहीं मिला तजुर्बा। 

आँख नाक-कान अब काम नहीं करता,
मन तो काम-जिह्वा में फंसा ही रहता,
अमावस्या रात सी है बुढापे की ज़िन्दगी 
भोग-विलास से फिर भी जी नहीं भरता। 


इच्छा है अब मैं प्रभु शरण में जाऊं,
भजन-कीर्तन अब कर नहीं पाऊं,
समय रहते कुछ समझ ना पाया 
अंत समय है मैं बहुत पछताऊं।

पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अब कमजोर हुई है,
एक-एक करके सब साथ छोड़ गई है,
जान गया इस रात की अब सुबह नहीं
अब क्या होगा अब उम्र निकल गई है।  

अलस- अकर्मण्य, सुस्त

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, December 1, 2016

वाक्यांश- बख्शीश

वाक्यांश- बख्शीश

रामाकांत दसवीं पास कर सेठ हजारीलाल के यहाँ घर के छोटे-मोटे काम पर लग गया। जब वह 18 साल का हुआ तो सेठ जी ने उसको कार चलाने का लाइसेंस दिलाकर अपना कार चलाने का कार्य उसे दे दिया और उसकी तनख्वाह दो हज़ार से बढ़ा कर पांच हज़ार कर दिया। रामाकांत को एडवांस में पांच हज़ार की तनख्वाह प्रत्येक महीने मिल जाते थे। रामाकांत की ज़िन्दगी लगभग चार साल तो बड़े मज़े में चली, परन्तु उसकी शादी होने के बाद पांच हज़ार की रक़म कम पड़ने लगी। उसने सेठ जी से अपनी तनख्वाह बढ़ाने की बात की तो सेठ ने खुश होकर उसकी तनख्वाह छः हज़ार कर दी। रामाकांत ने कुछ कहना चाहा तो सेठ ने हँसते हुए रामाकांत को लालच ना करने की नसीहत दे डाली। एक दिन रामाकांत की नज़र अखबार की एक विज्ञापन पर पड़ी। जिसमें किसी कारखाने में दसवीं पास कार चालक की आवश्यकता और वेतन दस हज़ार का जिक्र था। रामाकांत के दसवीं पास का सर्टिफिकेट एवं कार चलाने की कौशल को देख कर कारखाने के मैनेजर ने उसे नौकरी दे दी और अगले महीने की पहली तारीख़ से काम पर आने को कहा। रामाकांत ने एडवांस में एक महीने की वेतन के लिए मैनेजर से बात की तो उसने नए कर्मचारी को एडवांस देने से स्पष्ट मना कर दिया। रामाकांत ने सोचा कि अगर मैंने यहाँ नौकरी की तो अगले महीने का खर्च कैसे चलेगा? क्योंकि सेठ जी के दिए हुए रूपए से तो एक महीना खर्च नहीं चलता उसपर दुकानदारों की उधारी पहले से ही सर पर है। रात भर इसी चिंता में रामाकांत ने करवट बदलते हुए बिता दी। 

                         सुबह सेठ जी ने उसे बुला कर कहा- रामाकांत, मेरे ख़ास मेहमान इंजीनियर साहब को शादी में जाना है। मेरी कार को बढ़िया ढंग से साफ़ कर के उनके पास जाओ और हाँ देखो ! उनको किसी भी प्रकार की तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। 

इंजीनियर साहब को अपने पत्नी के साथ शहर से दूर अपने रिश्तेदार की शादी में जाना था। रामाकांत ने इंजीनियर दम्पति को शादी के समारोह स्थल पर पहुंचा दिया। रामाकांत के व्यवहार से इंजीनियर दम्पति खुश थे। 

वे बोले- रामाकांत, हमलोग शादी उपरांत यहाँ से चलेगे, तब तक तुम भी यहाँ इंजॉय करो। 

शादी के कार्यक्रम समाप्त होने पर इंजीनियर दम्पति वापस अपने घर चलने के लिए कार में बैठ गए।

इंजीनियर साहब की पत्नी ने इंजीनियर साहब से कहा - सुनते हो जी ! मैं अपने डायमंड के झुमके को बदल कर हलके टॉप्स पहन लेती हूँ, फिर चलते है। 

इंजीनियर साहब की पत्नी ने अपने पर्स से सोने का टॉप्स निकाल कर पहन लिया और डायमंड के झुमके को पर्स में रखने के लिए उठाया तो वह फिसल कर नीचे गिर गया। इंजीनियर साहब की पत्नी ने डायमंड के झुमके को उठाने के लिए नीचे झुकी तो उनको एक ही कान का दिखा। 

दूसरा नहीं मिलने पर वो परेशान हो कर अपने पति से कहा - जरा देखिए ना , एक कान का नहीं मिल रहा है। 

इंजीनियर साहब ने झुंझला कर ढूंढते हुए कहा - तुम कोई काम ढंग से नहीं कर सकती।  

इंजीनियर साहब को भी जब झुमका नहीं मिला तो दोनों दम्पति कार से उतर कर ढूंढने लगे। डायमंड का झुमका बड़ा और कीमती था। रामाकांत ने भी बहुत कोशिश कि परंतु झुमका नहीं मिला। हैरान परेशान इंजीनियर दम्पति वापस घर चलने को तैयार हुए परंतु  इंजीनियर साहब की पत्नी पुरे रास्ते झुक-झुक कर झुमके को ढूंढ़ती रहीं। 

घर पहुँचने पर इंजीनियर साहब ने रामाकांत से कहा - देखो रामाकांत !अभी तो रात हो गई है और झुमका तो इसी कार में गिरा है। अभी तुम घर जाओ और आराम से कल झुमका ढूंढ़ कर लाना। मैं तुम्हें दस हज़ार रुपये बख्शीश में दूँगा। 

यह सुनकर रामाकांत का चेहरा ख़ुशी से चमक उठा। जरूर साहब! मैं सुबह ही झुमका लेकर आपके पास आता हूँ। यह कहकर, वह चल दिया और सेठ हज़ारीलाल के गैराज में कार खड़ी कर सोने के लिए अपने खोली पहुँचा। घर पहुंचते ही पत्नी को सारी बात बता कर सोने लगा परंतु नींद तो कोसों दूर थी। वह सोचने लगा की कल बख्शीश का दस हज़ार मिल जाए तो सेठ की गुलामी छोड़ कर कारखाने की नौकरी करूँगा। सुबह उठ कर वह कार की तलाशी लेने लगा। लेकिन झुमका मिलने का कोई आस नज़र  नहीं आ रहा था।  अब वह मायूस होने लगा था और साथ में डर, कि कहीं झुमके के चक्कर में सेठ की भी नौकरी न चली जाए। अब उसने औज़ार लेकर कार की सभी सीटों को निकालने का फैसला लिया। सभी सीटों को निकाल कर अभी कार में झुमका ढूंढ़ने के लिए झुका ही था कि सेठ की गरजती हुई आवाज़ उसके कानों में पड़ी। अबे साले ! मेरी नई कार का सत्यानाश करने पर क्यों तुला है। 

रामाकांत ने हकलाते हुए बोला - सेठ जी! मैं तो इंजीनियर साहब की पत्नी का गुम हुआ झुमका ढूंढ़ रहा था।

सेठ ने कहा - चल अब सीटों को अपने जगह पर लगा दो। इंजीनियर साहब का फोन आया था कि झुमका उनके पत्नी के पर्स में ही था। 

यह सुनते ही रामाकांत का चेहरा निस्तेज हो गया। उसके नियति में सेठ के यहाँ शायद बंधुआ मजदूर बन कर ही जीना लिखा था।

चित्र http://naidunia.jagran.com/ से साभार।  

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, November 24, 2016

मुक़द्दर का सिकंदर

       






         मुक़द्दर का सिकंदर 


पक्के  इरादे के साथ, जिसका हौसला बुलंद हो,
मंजिल उसे सदैव मिले,ऐसा भला क्यों ना हो।

जोश और जुनूँ बन कर लहू, नस-नस में दौड़े,
दुश्वार कार्य फिर भला, आसान क्यों  ना हो। 

धारा के विपरीत, जो बाजुओं से पतवार चलाए ,
मुश्किल भरी डगर भी, फिर सुगम क्यों  ना हो।

परिस्थितियों से करे सामना, संघर्ष ही कर्म हो,
कितना भी बड़ा हो सपना, साकार क्यों  ना हो। 

तक़दीर को जो ना माने, तदबीर पर ही जिए,
काँटों भरे रास्ते, फिर फूल भरे क्यों  ना हो।

मुसीबतों में धैर्य ना खोकर, जो लक्ष्य की ओर बढ़े,
सफलता उसकी कदमों को चूमें,ऐसा क्यों  ना हो। 

ख़ुदा और ख़ुद पर जो करके भरोसा, मंजिल को पा जाए,
दुनियाँ की नज़रों में वो, मुक़द्दर का सिकंदर क्यों  ना हो। 

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, November 10, 2016

विरासत

        

       





         विरासत 

गिर गई हैं चंद दीवारें, और घिस गई मेरी ईटें  सभी,
झड़ गई प्लस्तर की परतें, और उग आए यहाँ पेड़ भी।

खंडहर हूँ पर खड़ा हूँ, मिटा नहीं मेरा अस्तित्व है,
वीरान स्थल में पड़ा हूँ, कोई कहता मुझे अवशेष भी।

अपने अंदर समेटा हूँ, न जाने कितनी ही कहाँनियाँ ,
दर्द मेरी बयाँ करेंगी, मेरी टूटी हुई दरों-दीवार भी।

मैं तो कुछ न कह पाउँगा, यादें हो गई मेरी धुंधली ,
पर तुम्हें बेचैन करेगी, मेरी उपस्थिति यूँ ही कभी-कभी।

गर तुम करोगे मेरी सेवा, मुझको शायद महसूस न हो,
खुद को पाओ इस मोड़ पर, बेचैन होगा कोई और भी।

दिख रही है कुछ कंगूरे, ये कभी मेरे ताज थे,
टूट गई है कुछ कंगूरे, जैसे मेरी जिंदगी बरबाद है अभी।

तुम कभी नज़रें न चुराना, किसी खंडहर को देख कर ,
क्योंकि इसी के दम पर है, शेष ज़िन्दगी तुम्हारी अभी।

विरासत में जो तुम को मिला, उसको रखना सहेज कर,
आने वाली नस्लें कर सकेंगी, तेरे होने की पहेचान भी।

तेरी-मेरी पहचान की गवाह है, जब तक खड़े  हैं ये खंडहर,
ये सिलसिला जब तक चलेगा,तब तक चलेगी कायनात भी।


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"




  

Wednesday, September 28, 2016

युवा

चित्र jagranjunction.com से साभार 

            









    

                युवा 


हम तितली हैं, अमृत-रस को ढूंढ ही लेंगे,
फूलों का साथ है तो, खुशियाँ ढूंढ़ ही लेंगे।

हैं मानव हम, हार नहीं कभी मानने वाले,
कैसी भी हो समस्या, समाधान ढूंढ ही लेंगे।

माना की अपनी मंजिल से हम भटक गए थे,
आँख खुली है अब तो रास्ता ढूंढ ही लेंगे।

नई चुनौतियों से हम कहाँ है डरने वाले,
युवा है यह देश, हल तो कोई ढूंढ ही लेंगे।

सुनी सुनाई बातों में नहीं हम आने वाले,
जाँच-परख कर अपना फैसला ढूंढ ही लेंगे। 

नई  ऊँचाइयों पर हम परचम लहराने वाले,
तिरंगा ऊचां रहे वो चोटी हम ढूंढ ही लेंगे।

माना ये शुरूआती दौर है कहीं हार हुई है,
हार से सीख हम जीत का मंत्र ढूंढ ही लेंगे।

आँख खुलना - मुहावरा अर्थ · जागना; वास्तविकता से अवगत होना; भ्रम दूर होना।
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"



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Wednesday, September 21, 2016

वाक्यांश- पेशा



वाक्यांश- पेशा     

अपने पिता जी  के दिवंगत होने के बाद दीनानाथ जी ने सेवानिवृति उपरांत अपने पैतृक गाँव में बसने का निर्णय लिया। खेत-खलिहानों से प्यार उनके रग-रग में बसा था।  जब कभी उनको नौकरी से छुट्टी मिलती वे गाँव चले जाते। खेती-बाड़ी में खुलकर तन-मन-धन से अपने पिता जी को सहयोग करते। उनके पिता जी दूरदर्शी थे इस लिए उन्होंने जीते जी जमीन-जायदाद का रजिस्टर्ड  बटवारा तीनो बेटों  के नाम कर दिया।  यह बात उनके मरणोपरांत ही उनके तीनों बेटों को पता चली । तब दीनानाथ जी के सेवानिवृति में अभी दो वर्ष शेष थे। दीनानाथ जी के दोनों भाई ज्यादा पढ़ नहीं पाये इसलिए वे खेती-बाड़ी पर ही आश्रित थे। दोनों भाई सपरिवार खेती-बाड़ी के कार्य में जुटे थे और मज़े में अपना जीवोकोपार्जन कर रहे थे । दोनों भाइयों के घर में  ट्रैक्टर, गाय-भैंस, एल ई डी टीवी, फ्रिज़ आदि सभी प्रकार के सुख सुविधायें उपलब्ध थी। शहर के विस्तार होने कारण दीनानाथ जी का गाँव अब शहर के सरहद में आ गया था। मल्टीनेशनल कम्पनियाँ के नए-नए प्रोजेक्ट गाँव के आस-पास लगाने से बिजली, पानी और सडकों की उत्तम व्यवस्था हो गई थी। खैर ! दीनानाथ जी ने दो साल में एक सुंदर मकान बनवाया चूँकि पुश्तैनी मकान में उनके दोनों भाइयों ने कब्ज़ा जमा लिया था और वे सेवानिवृति उपरांत अपनी पत्नी एवं एक मात्र लडके के साथ गाँव में आकर बस गए। उनका लड़का ग्रेजुएशन करके बेरोजगार था और उसकी सरकारी नौकरी के आवेदन करने की उम्र पात्रता भी ख़त्म हो गई थी। दीनानाथ जी ने सोचा चलो ईश्वर कृपा से इतनी उपजाऊ जमीन है।  बेटा मेहनत करेगा तो उसकी शादी कर देंगे और उसकी ज़िन्दगी खुशहाल हो जाएगी। इसी सोच के साथ वह सुबह उठे। सुबह बाप-बेटे ने नास्ता किया उसी दौरान दीनानाथ जी ने बेटे से कहा कि आज तुम्हें मेरे साथ खेत पर चलना है। बाप-बेटे दोनों तैयार होकर ट्रैक्टर से खेत की तरफ निकल पड़े। 

खेत के विशाल भू-खंड को देख कर सीना चौड़ा कर के दीनानाथ जी ने अपने बेटे से कहा -" देखो ये हमारी विरासत है और इसको आगे चल कर तुम्हे संभालना है इसलिए इसमें तुम रूचि लेना शुरू करो।"

 बेटे ने भी ख़ुशी-ख़ुशी हाँ में हाँ मिलाई। उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई, चंद टुकड़े खेत को छोड़ कर सभी तरफ उसे फैक्ट्री, मॉल और नई -नई कॉलोनी के प्लॉट दिखाई दे रहे थे।

दीनानाथ जी ने बेटे  से कहा - "खेतों में मैंने धान के बीज डाल दिए थे।  कल धान के पौधों को पुरे खेत में लगाना है इसलिए मजदूरों की जरुरत होगी।  चलो ! उनकी बस्ती चलते है।"

इतना सुनते ही उनका बेटा ट्रैक्टर से कूद पड़ा और जोर से बोला - "अच्छा पिता जी! आप चाहते हैं कि मैं खेती करूँ परंतु मैं आपको साफ़-साफ़ बता देना चाहता  हूँ कि मैं इस खेत की प्लॉटिंग तो  कर सकता हूँ परंतु खेती नहीं।"

इतना सुनते ही दीनानाथ जी को लगा जैसे बेटा कह रहा हो कि मैं आपकी सेवा तो नहीं कर सकता अपितु अंतिम संस्कार अवश्य कर सकता हूँ। दीनानाथ जी यह बात सहन नहीं कर पाए और हृदयाघात के कारण वहीं  ट्रैक्टर से गिर पड़े।

आज वहाँ पैराडाइज हाऊसिंग सोसाइटी का बोर्ड लगा है और उनका बेटा बिचौलियों के जाल में फंस कर नशे का आदि हो गया। सब कुछ बिक जाने के बाद आज दीनानाथ जी का बेटा पैराडाइज हाऊसिंग सोसाइटी के कांट्रेक्टर के अधीन काम कर रहा है।

वाक्यांश - "शब्द–समूह के लिए एक शब्द"


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Wednesday, September 14, 2016

वाक्यांश- खुशहाली

चित्र http://www.hotelsinmahabaleshwar.net.in/ से साभार 

वाक्यांश- खुशहाली 

मेरे मित्र श्यामचरण जी  ने आधी से अधिक उम्र किराये के एक ही मकान में गुजार दी। दो कमरों के उस मकान में अपने बच्चों के साथ उनके यहाँ आने वाले मेहमानों के लिए भी जगह मिल जाती थी। आर्थिक परेशानियों के बावजूद उनके मकान में आने वाले मेहमानों का स्वागत स्वादिष्ट व्यंजनों से होता, यही कारण था कि मेहमान भी स्वाद लोलुपता को त्याग नहीं कर पाते और यात्रा कहीं का भी हो बीच में विश्राम स्थल श्यामचरण जी के घर के लिए बना ही लेते थे।  हँसी-ठहाको से उनका मकान सदा गुंजायमान रहता था। अपनी पत्नी की ज़िद के कारण सेवानिवृति उपरांत मिले पैसों से एक मकान बनाकर रहने लगे। अपनी इकलौती बेटी की शादी वे पहले ही कर चुके थे और नौकरी लगते ही बेटों की भी शादी कर दिए और जल्द ही उनके दोनों बेटे अपनी पत्नीयों को ले कर अपने-अपने शहर चले गए। श्यामचरण जी का मकान शहर से दूर होने के कारण मेहमानों का आना-जाना बंद हो गया और बच्चों के नहीं रहने के कारण पाँच कमरों का मकान में सन्नाटा पसरा रहता। इस नई कॉलोनी में बुजुर्गों की संख्या ना  के बराबर थी और नई पीढ़ी को बुजुर्गों से बात करने के लिए ना समय था ना ही जरुरत। एक दिन मैं श्यामचरण जी से मिलने उनके घर चला गया तो उनकी पत्नी ने कहा- "श्रीवास्तव भाई साहब क्या बताऊँ यहाँ किसी से बात न करने के कारण मुँह दुखने लगता है जबड़ों में जकड़न सी आ गई है।"


 इस वाक़िया के बीते अभी दो महीने भी नहीं हुए थे कि पता चला श्यामचरण जी की पत्नी परलोक सिधार गई। श्यामचरण जी अपने बड़े बेटे के पास गुडगौंव चले गए और यहाँ खाली पड़े मकान में दरारें पड़ने लगी थी। 

किसी कार्यवश मुझे गुडगौंव जाने का मौका मिला तो शाम के वक्त उनके बेटे के घर पहुँचा।  घर क्या था महल था, दरवाजे पर दरबान को मैंने अपना परिचय दिया तो उसने इण्टरकॉम से बात कर मुझे अंदर जाने दिया। लॉन पार करते ही बरामदे में दिवाकर खड़ा मिला।  उसने नमस्ते चाचा जी कह कर गर्म जोशी से स्वागत किया। हमलोग गेस्ट रूम में बैठ कर एक दूसरे का हालचाल पूछ रहे थे तभी मैंने श्यामचरण से मिलने की इच्छा जताई।  उसने कहा कि मैं पता करता हूँ। 

मैंने पूछा - पता करता हूँ  का क्या मतलब है दिवाकर!

दिवाकर ने कहा - "ऐसा है चाचा जी मैं नीचे ऑफिस में काम करता हूँ और मोनिका क्लब गई हुई है और बच्चे स्कूल से सीधा ट्यूशन चले जाते है और वे रात को घर पहुँचते हैं। ऐसे में पिता जी घर में है या लॉन के किसी पेड़ के नीचे बैठे है पता करके बताता हूँ।"

उसने घंटी बजाई और वहाँ एक सुंदर स्त्री उपस्थित हुई। उसने रौबदार आवाज़ में आदेश दिया- "देखो  ! पिता जी कहाँ हैं पता करो और उनसे कहो की उनसे कोई मिलने आया है।"

 वो चली गई।  मैं स्तब्ध था और उस सुंदर स्त्री को जाते देख मैं उलझन में था तभी दिवाकर ने कहा - "ये मेरी परिचारिका है।" 

थोड़ी देर में परिचारिका हांफती हुई उपस्थित हुई और बोली पापा जी बंगले के पीछे पेड़ के नीचे बैठे है और कह रहें है कि जिसे भी मिलना हो वो यहाँ पर आये। दिवाकर का चेहरा थोड़ा उतर सा गया और झेपते हुए बोला चाचा जी मैं जाकर बुलाता हूँ। 

मैंने कहा - "रहने दो मैं श्याम से वहीं मिल लेता हूँ।"

 उसने परिचारिका को इशारे में मुझे श्यामचरण के पास ले जाने को कह कर सामने ऑफिस रूम में चला गया। मैं भी परिचारिका के पीछे-पीछे चल पड़ा। पहले स्टडी रूम, डाइनिंग रूम, किचेन रूम, स्विमिंग पूल और बिलियर्ड रूम के बाद लॉन दिखा। कुछ कदम चलने पर एक पेड़ के नीचे कुर्सी पर श्याम चुपचाप प्रकृति को निहार रहा था। मैंने जैसे ही आवाज दी वह पलट कर देखा और खिल पड़ा। लगभग दौड़ता हुआ आ कर गले लगा और रोते हुए बोला - "श्रीवास्तव! मुद्दतों बाद किसी ने मुझे प्यार से पुकारा है और मुझे किसी की प्राइवेसी में दखल देने की इज़ाज़त नहीं है, इस लिए मैं अक्सर यहीं बैठ जाता हूँ इन बेजुबां पेड़-पौधों और चिड़ियों से बात करने।"

 मेरी आँखें भर आई और मैं खो गया उन ठहाकों भरी महफ़िल के शोर में जो अकसर श्याम के घर की खिड़की से सुनाई देती थी जब भी मैं गुजरता था उसके घर के गली से।


वाक्यांश - "शब्द–समूह के लिए एक शब्द"


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Wednesday, August 10, 2016

वाक्यांश - बिरादरी


वाक्यांश  -  बिरादरी 

चित्र https://musicatmonkton.com से साभार

गाँव के सरहद पर बसे प्रवासी मज़दूरों की बस्ती में सुबह-सुबह सरपंच का बड़ा बेटा किरपाल सिंह अपने पिता और गाँव वालों के साथ आ धमका और गालियाँ देते हुए सभी प्रवासी मजदूर को अपने-अपने झुग्गी से बाहर आने के लिए कहा। उसकी आवाज़ सुनकर सभी प्रवासी मजदूर सिर झुकाए किरपाल सिंह के सामने खड़े हो गए। 
सबसे पीछे खड़ा बुढ्ढा मंगलू बुदबुदाने लगा- हे भगवान ! न जाने आज कौन सा नया बखेड़ा ले कर आ गया और न जाने किस पर आज गाज गिरेगी।  
आए दिन किरपाल सिंह कोई न कोई इल्जाम इन प्रवासी मज़दूरों पर लगा कर उनका शोषण करता था परंतु आज प्रवासी मज़दूरों में से चौबीस वर्षीय नौजवान मजदूर हरिया भी किरपाल सिंह से दो-दो हाथ करने को तैयार था। उसने किरपाल सिंह के सामने आकर बड़े रौबीले आवाज़ में पूछा - क्या हुआ किरपाल सिंह जी ? आज कौन सा नया बखेड़ा लेकर हमलोगों को परेशान करने आए हो ? 
किरपाल सिंह को हरिया की बात तीर की तरह दिल पे लगी।  उसने आव देखा न ताव, हरिया की तरफ झपटते हुए बोला - स्साले! तुझे बोलने की तो तमीज है नहीं और तेरी औकात क्या है जो इन सब का चौधरी बनने चला है। मेरी मोटर साईकल चोरी हो गई है और मुझे पक्का पता है कि तुम लोगों के अलावा यह काम कोई और नहीं कर सकता। 
हरिया ने गुस्से में आकर बोला - ओये चुप कर किरपाल सिंह, नशे ने तेरी बुद्धि भ्रष्ठ  कर दी है। नशे की खातिर तूने शहर के ठेकेदार जगतार सिंह को अपनी मोटर साईकल बेच कर इल्जाम हम लोगों पर लगाता है। तुझे शर्म नहीं आती, हमलोगों पर इल्जाम लगाते हुए।  
इतना सुनते ही किरपाल सिंह अपने कमर से किरपान निकाल कर हरिया को मारने को बढ़ा। हरिया भी चीते जैसी फुर्ती दिखाते हुए एक कदम पीछे हो कर किरपाल सिंह के हाथ पर झपट्टा  मारा और किरपान अपने हाथ में लेकर किरपाल सिंह को ललकारने लगा। उसकी तनी हुई भवें और फड़कते हुए बाजुओं को देख गाँव वाले सकते में आ गए।  
उसके तेवर को देखते हुए एक बुजुर्ग ने सरपंच के कान में फुसफुसाया - "दिलदार सिंह ! मुझे साफ़ दिख यह है कि हरिया प्रवासी मज़दूर नहीं है। हरिया अपने ही बिरादरी का है और इससे किसी और तरीके से  निपटेंगे। "
दिलदार सिंह ने धीमे से हाँ बोला और किरपाल को गालियाँ देता हुआ सभी को गाँव की तरफ चलने को कहा और सभी सिर झुकाए गाँव की तरफ चल दिए।   

वाक्यांश - "शब्द–समूह के लिए एक शब्द"

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

    

Thursday, July 28, 2016

वाक्यांश - परिस्थिति


वाक्यांश  -  परिस्थिति 

https://freewill.gr से साभार 

ऑफिस से घर आते-जाते सड़क के किनारे झुग्गी-झोपड़ी की बस्ती से गुजरते हुए जब मेरी नज़र मासूम, लाचार, बेबस, गरीब और संघर्षरत मजबूर बच्चों एवं औरतों पर पड़ती है तो मेरे अंदर अक्सर उनके प्रति संवेदनाएं जगती है। 

            एक शाम जब मैं ऑफिस से घर आया तो देखा कि  मेरी पत्नी पुराने कपड़ों के बदले प्लास्टिक का टब किसी फेरीवाले से ले रहीं है। मैंने चुप-चाप घर के अंदर प्रवेश किया। कुछ ही देर में मेरी पत्नी विजयी भाव लिए मेरे सम्मुख खड़ी हो गई और कहने लगी देखो मैंने पुराने कपड़ों के बदले कितना सुंदर और टिकाऊ टब ख़रीदा है।  मैंने भी मुस्कुराते हुए उनकी हाँ में हाँ मिलाई। जब वह चाय-बिस्किट के साथ पुनः उपस्थित हुई तो 
मैंने कहा - "बच्चों के पुराने कपड़े तो तुमने संभाल कर रखें हैं न।" 
श्रीमती जी ने कहा - "हाँ ! रखें तो हैं। क्यों ? । 
मैंने कहा - "तो क्यों न उन कपड़ों को झुग्गी वाले बस्ती के बच्चों में वितरित कर दें।" 
श्रीमती जी ने कहा - "विचार तो अच्छा है परन्तु  क्या वे इन पुराने कपड़े को स्वीकार करेंगे।"
मैंने कहा - " जो तुमने पुराने कपड़ों के बदले वस्तु खरीदी है, उन पुराने कपड़ों को कोई न कोई गरीब आदमी ही खरीदता है। "
श्रीमती जी ने कहा - " आप सही कह रहें हैं।" 
चाय पीने के बाद हम दोनों ने मिलकर धुले और इस्त्री किए हुए कपड़ों को साइज के हिसाब से पैंट-शर्ट का सेट तैयार कर एक बड़े झोले में लेकर स्कूटर से बस्ती में पहुँचे। छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे और एक गर्भवती महिला पानी की केनी लेकर अपने झुग्गी के तरफ जा रही थी।  मैंने उस महिला को आवाज दी और वह हमदोनों के पास आकर बोली - " क्या बात है साब।"
मेरी पत्नी ने उससे पूछा - " तुम्हें कुछ छोटे साइज के पुराने कपड़े चाहिए। "
"क्यों नहीं मेमसाब, दे दो। " उसने जवाब दिया। 

श्रीमती जी सबसे छोटे कपड़े उसे देने लगी। उस महिला ने झोले में झाँका और कुछ और कपड़े ले लूँ कह कर दो जोड़े कपड़े उठा कर हॅसते हुए श्रीमती का चेहरा देखने लगी। कपड़ो का झोला और उस महिला द्वारा जमा किए गए कपड़ों को देख कर बच्चे समझ गए की हमलोग कपड़ा बाँटने आए हैं। इतना समझते ही वहाँ खेल रहे सभी बच्चे हमलोगों की तरफ लपके और बिना पूछे ही झोले पर हमला बोल दिया। किसी के हाथ में पैंट किसी के हाथ में शर्ट लगा। मेरी पत्नी चिल्लाते रह गई "रुको सब को साइज के हिसाब से कपड़े देती हूँ परन्तु बच्चे तो कपड़ों को हवा में लहराते हुए वहाँ से ऐसे गायब हुए मानो यहाँ बच्चे रहते ही नहीं हैं। गर्भवती महिला भी बिना कुछ कहे वहाँ से मुस्कुराती हुई चली गई।  मेरी पत्नी स्तब्ध थी। हम लोग वहाँ से लौट कर घर आ गए।

वाक्यांश - "शब्द–समूह के लिए एक शब्द"

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"



Thursday, July 21, 2016

छतबीर चिड़ियाघर की सैर

छतबीर चिड़ियाघर की सैर 


गर्मियों की छुट्टी हो और अपने छोटे बच्चों के साथ घर आए मेहमान के छोटे बच्चे हो तो आप  समझ सकते है की मेजबान की क्या हालत होगी?  ऐसे में बच्चों की पसंद की जगह घुमाने से बेहतर और कोई विकल्प मेरे पास नहीं था।  तो ऐसे में मेरे एक सहकर्मी ने छतबीर चिड़ियाघर की सैर का सुझाव दिया और मैंने भी झट-पट अपने एक दिन की अवकाश अर्थात 6 जुलाई 2016 को सभी बच्चों के साथ निजी वाहन से  छतबीर चिड़ियाघर के लिए निकल पड़े । छतबीर चिड़ियाघर जीरकपुर, पंजाब में स्थित है और कपूरथला से इसकी दूरी लगभग 200 कि.मी. है। पिछली रात बारिश होने से सुबह का मौसम सुहाना हो गया था और हमारी यात्रा प्रातः 7 बजे नास्ते के उपरांत शुरू हो गई। बारिश होने के कारण प्रकृति का  नज़ारा बहुत सुंदर लग रहा था। पेड़ों के पत्ते धुल कर गहरे हरे रंग में चमक रहे थे और सड़के भी धुल कर काली चमचमाती नज़र आ रही थी। एफ. एम. रेडिओ पर बज रहे गानों पर बच्चे अपनी आवाज़ को मिलाकर और वातावरण को और मधुर बना रहे थे। मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था कि नए गानों को मैं समझ नहीं पा रहा था परन्तु बच्चे नए-पुराने सभी गानों  को समान रूप से आनंद ले रहे थे और बीच-बीच में नमकीन, आम का जूस, चिप्स आदि का दौर चल रहा था।
जब मेरी गाड़ी NH-7 से उतर कर छत गांव की तरफ थोड़ी ही दूर चली तो प्रकृति के बदले स्वरूप को देख सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि छतबीर चिड़ियाघर का प्रवेश द्वार आ गया। हमलोग करीब सुबह 11 बजे वहां पहुंच गए थे।  पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर के चारों तरफ निगाह दौड़ाई तो आस-पास एक आइसक्रीम का स्टॉल,एक स्नैक्स का स्टॉल, ऑटो रिक्शा स्टैंड और सुलभ शौचालय जो की बहुत साफ-सुथरा था, दिखा। जंगलों के रास्ते करीब 250 मीटर पैदल चलने पर छतबीर चिड़ियाघर का प्रवेश द्वार दिखा।

प्रवेश टिकट ले कर अभी हमलोग द्वार के अंदर ही आए थे की एक और टिकट काउंटर दिखा वह बैटरी से चलने वाली गाड़ी  के लिए था, जिसका किराया बच्चों के लिए 25 रु. और बड़ो के लिए 50 रु. था।  यह गाड़ी, चिड़ियाघर के सभी 18 स्थलों को दर्शन करा कर मुख्य द्वार तक सैर कराती है।  यह शेर सफारी और हिरण सफारी नहीं कराती है।  इन दोनों के लिए अलग से 50-50  रु. के टिकट प्रति सवारी लेनी पड़ती है।

 खैर! हमलोगों ने सोचा प्राकृतिक आनंद लेते हुए चिड़ियाघर की सैर करेंगे और शेर सफारी अवश्य करेंगे। अतः हमलोग पैदल ही चल पड़े।


हमलोगों की पहली मुलाकात सफेद रंग के बाघ से हुई वह बड़े आराम से बैठा हुआ था, असल में यह भारत का गौरव रॉयल बंगाल टाइगर था। इसके बाद दरियाई घोड़े से मुलाकात हुई। दरियाई घोड़े भाई साहब ने बड़ी मुश्किल से अपना सिर थोड़ी देर के लिए पानी से बाहर निकाला और फिर पानी के अंदर तैरने लगे ।  मेरी बिटिया नाराज हो गई कि मैंने दरियाई घोड़े का फोटो लेने में देर कर दी।  बिना फोटो लिए बेटी हिलने का नाम नहीं ले रही थी और दरियाई घोड़े साहब थे कि अपना सिर बाहर निकालने को तैयार नहीं थे। बेटी को किसी तरह समझाया की लौट कर फिर यहाँ पर आएंगे। आगे चलने पर एमु, हाथी और फिर शेर सफारी का टिकट घर

दिखाई दिया। सभी जंगल के राजा शेर से मुलाकात करने को आतुर थे। टिकट लेकर खिड़कियों पर लोहे की जाली से सजी बस में बैठ गए। बस में ही स्नैक्स और कोल्ड ड्रिंक्स का मजा लिया। बच्चे बहुत उत्साहित थे की खुले जंगल में शेर के दर्शन करेंगे।  बस खुली और एक मिनट के अंदर कुछ दूरी पर एक शेर का दर्शन हुआ उसके बाद पिंजरे में शेर को देख निराशा हुई। हाँ ! खुले में मोर देख कर बच्चों ने खूब तालियां बजाई। कुल मिलाकर 50 रु. में शेर सफारी करके बच्चे ठगा सा महसूस कर रहे थे। उसके बाद चीता, लकड़बघ्घा , जंगली बिल्ली, ज़ेबरा और तरह-तरह के हिरण को देखते हुए हमलोग "रात का घर" (नॉक्टर्नल हाउस) देखने पहुंचे।  इस  घर में प्रवेश करते ही रात का एहसास होता है जिससे रात में गतिविधि करने वाले जीवों जैसे उल्लू, चमगादड़, साही. कस्तूरी बिल्व और सियार का क्रिया-कलाप का आनंद हमलोगों ने लिया।
रेप्टाइल हाउस में प्रवेश करते ही अजगर, कोबरा ,गिरगिट, छिपकली,साँप आदि को देख बच्चे सहमे हुए से थे। इस चिड़ियाघर को एक पिकनिक स्पॉट की तरह विकसित किया गया है।  थोड़ी थोड़ी दूर पर झूले, बैठने के लिए छतदार शेड, पीने योग्य ठंडा जल, रेस्टोरेंट, झील, तालाब और हरे-भरे लॉन इस चिड़ियाघर को और आकर्षक बनाते है।  चिड़ियाघर की सैर के बाद सभी थक गए थे और भूख भी लग रही थी अंत में बंदर महाराज के दर्शन उपरांत हमलोग गेट के बाहर आये। दिन के 1 :30  बजे हमलोगों ने आइसक्रीम स्टॉल के पास खाने के साथ-साथ आइसक्रीम का भी आनंद लिया और रॉक गार्डन, चंडीगढ़ की सैर के लिए निकल पड़े। 

छतबीर चिड़ियाघर का संक्षिप्त परिचय :

छतबीर किसी समय पटियाला के महाराजा का शिकारगाह हुआ करता था और आज यह एक वन्यजीवों के लिए स्वर्ग है। छतबीर चिड़ियाघर 13 अप्रैल , 1977 को  पंजाब के तत्कालीन माननीय राज्यपाल श्री महेन्द्र मोहन चौधरी के द्वारा उदघाटन  किया गया और उन्हीं के नाम पर इसका नामकरण महेंद्र चौधरी प्राणी उद्यान रखा गया। यह चिड़ियाघर 202 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इस चिड़ियाघर को  शुरू करने के लिए जानवरों की छोटी संख्या को  गुवाहाटी चिड़ियाघर, असम से लाया गया था जो अब फल-फूल कर उत्तरी भारत का सबसे बड़ा चिड़ियाघर बन गया है। शेर सफारी , हिरण सफारी, छिछला  झील, प्राकृतिक दृश्यों से हरे भरे लॉन और प्राकृतिक वन पर्यावरण इस चिड़ियाघर की पहचान हैं। यह चिड़ियाघर सरीसृप / पशु / पक्षियों के दुर्लभ और लुप्तप्राय हो चुके  82 प्रजातियों का  आरामदायक बसेरा है। इस चिड़ियाघर में कुल पशुधन की आबादी 850 है। राजपुरा,पंजाब से छतबीर चिड़ियाघर की दूरी 25 कि. मी. और चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन से 17.5 कि. मी. है।

"यदि आप वन्यजीवों की रक्षा करना चाहते है तो पंजाब राज्य के सभी चिड़ियाघर से किसी भी वन्यप्राणी को मासिक/वार्षिक पोषण खर्चे पर गोद ले सकते है। गोद लेने वाले के नाम का तख्ती चिड़ियाघर में लगाया जाता है एवं अन्य सुविधा चिड़ियाघर की तरफ से दी जाती है।"


चिड़ियाघर सप्ताह में छह दिन, सुबह 9.00 AM से शाम 5.00 PM तक  खुला रहता है। यह प्रत्येक सोमवार तथा 15 अगस्त, 2 अक्टूबर और 26 जनवरी  को बंद रहता है ।

सलाह:-  बैटरी से चलने वाली गाड़ी प्रवेश द्वार पर लेना एवं लायन सफारी न करना समझदारी होगी।

चलते-चलते कुछ मनमोहक तस्वीरें :-








 - © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"