मेम्बर बने :-

Wednesday, April 15, 2015

घायल मन



घायल मन


जख्म छुपा कर रखना अपने सीने में,
जख्म कुरेदने वाले हजारों है इस जमाने में.

बेवजह कोई किसी से बात नहीं करता यहाँ,
बहुत तकलीफ़ होती है जुबाँ बंद रखने में.

इस अजनबी शहर में, रोने को कंधा नहीं मिलता,
ग़मों का पहाड़ टूटा है मगर आँसू नहीं है आँखों में.

यह शाश्वत सत्य है कि पैसों से खुशियाँ नहीं मिलती,
फिर क्यूँ लोग उम्र खपाते है पैसा कमाने में.

झूठी शान-शौकत में लोग कुछ ऐसे अकड़े हैं,
बहुत मशक्कत करनी पड़ती है मुस्कुराने में.

कोई रिश्ता नहीं बचा जो स्वार्थी न हो,
ठगा हुआ महसूस करता हूँ रिश्ता निभाने में.

इस शहर में भीड़ बहुत है फिर भी तन्हा हूँ,
सच कहता हूँ “राही” अब मजा नहीं है जीने में.

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"