विरासत
गिर गई हैं चंद दीवारें, और घिस गई मेरी ईटें सभी,झड़ गई प्लस्तर की परतें, और उग आए यहाँ पेड़ भी।
खंडहर हूँ पर खड़ा हूँ, मिटा नहीं मेरा अस्तित्व है,
वीरान स्थल में पड़ा हूँ, कोई कहता मुझे अवशेष भी।
अपने अंदर समेटा हूँ, न जाने कितनी ही कहाँनियाँ ,
दर्द मेरी बयाँ करेंगी, मेरी टूटी हुई दरों-दीवार भी।
मैं तो कुछ न कह पाउँगा, यादें हो गई मेरी धुंधली ,
पर तुम्हें बेचैन करेगी, मेरी उपस्थिति यूँ ही कभी-कभी।
गर तुम करोगे मेरी सेवा, मुझको शायद महसूस न हो,
खुद को पाओ इस मोड़ पर, बेचैन होगा कोई और भी।
दिख रही है कुछ कंगूरे, ये कभी मेरे ताज थे,
टूट गई है कुछ कंगूरे, जैसे मेरी जिंदगी बरबाद है अभी।
तुम कभी नज़रें न चुराना, किसी खंडहर को देख कर ,
क्योंकि इसी के दम पर है, शेष ज़िन्दगी तुम्हारी अभी।
विरासत में जो तुम को मिला, उसको रखना सहेज कर,
आने वाली नस्लें कर सकेंगी, तेरे होने की पहेचान भी।
तेरी-मेरी पहचान की गवाह है, जब तक खड़े हैं ये खंडहर,
ये सिलसिला जब तक चलेगा,तब तक चलेगी कायनात भी।
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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