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Thursday, November 24, 2016

मुक़द्दर का सिकंदर

       






         मुक़द्दर का सिकंदर 


पक्के  इरादे के साथ, जिसका हौसला बुलंद हो,
मंजिल उसे सदैव मिले,ऐसा भला क्यों ना हो।

जोश और जुनूँ बन कर लहू, नस-नस में दौड़े,
दुश्वार कार्य फिर भला, आसान क्यों  ना हो। 

धारा के विपरीत, जो बाजुओं से पतवार चलाए ,
मुश्किल भरी डगर भी, फिर सुगम क्यों  ना हो।

परिस्थितियों से करे सामना, संघर्ष ही कर्म हो,
कितना भी बड़ा हो सपना, साकार क्यों  ना हो। 

तक़दीर को जो ना माने, तदबीर पर ही जिए,
काँटों भरे रास्ते, फिर फूल भरे क्यों  ना हो।

मुसीबतों में धैर्य ना खोकर, जो लक्ष्य की ओर बढ़े,
सफलता उसकी कदमों को चूमें,ऐसा क्यों  ना हो। 

ख़ुदा और ख़ुद पर जो करके भरोसा, मंजिल को पा जाए,
दुनियाँ की नज़रों में वो, मुक़द्दर का सिकंदर क्यों  ना हो। 

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, November 10, 2016

विरासत

        

       





         विरासत 

गिर गई हैं चंद दीवारें, और घिस गई मेरी ईटें  सभी,
झड़ गई प्लस्तर की परतें, और उग आए यहाँ पेड़ भी।

खंडहर हूँ पर खड़ा हूँ, मिटा नहीं मेरा अस्तित्व है,
वीरान स्थल में पड़ा हूँ, कोई कहता मुझे अवशेष भी।

अपने अंदर समेटा हूँ, न जाने कितनी ही कहाँनियाँ ,
दर्द मेरी बयाँ करेंगी, मेरी टूटी हुई दरों-दीवार भी।

मैं तो कुछ न कह पाउँगा, यादें हो गई मेरी धुंधली ,
पर तुम्हें बेचैन करेगी, मेरी उपस्थिति यूँ ही कभी-कभी।

गर तुम करोगे मेरी सेवा, मुझको शायद महसूस न हो,
खुद को पाओ इस मोड़ पर, बेचैन होगा कोई और भी।

दिख रही है कुछ कंगूरे, ये कभी मेरे ताज थे,
टूट गई है कुछ कंगूरे, जैसे मेरी जिंदगी बरबाद है अभी।

तुम कभी नज़रें न चुराना, किसी खंडहर को देख कर ,
क्योंकि इसी के दम पर है, शेष ज़िन्दगी तुम्हारी अभी।

विरासत में जो तुम को मिला, उसको रखना सहेज कर,
आने वाली नस्लें कर सकेंगी, तेरे होने की पहेचान भी।

तेरी-मेरी पहचान की गवाह है, जब तक खड़े  हैं ये खंडहर,
ये सिलसिला जब तक चलेगा,तब तक चलेगी कायनात भी।


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"