मुक़द्दर का सिकंदर
पक्के इरादे के साथ, जिसका हौसला बुलंद हो,
मंजिल उसे सदैव मिले,ऐसा भला क्यों ना हो।
जोश और जुनूँ बन कर लहू, नस-नस में दौड़े,
दुश्वार कार्य फिर भला, आसान क्यों ना हो।
धारा के विपरीत, जो बाजुओं से पतवार चलाए ,
मुश्किल भरी डगर भी, फिर सुगम क्यों ना हो।
परिस्थितियों से करे सामना, संघर्ष ही कर्म हो,
कितना भी बड़ा हो सपना, साकार क्यों ना हो।
तक़दीर को जो ना माने, तदबीर पर ही जिए,
काँटों भरे रास्ते, फिर फूल भरे क्यों ना हो।
मुसीबतों में धैर्य ना खोकर, जो लक्ष्य की ओर बढ़े,
सफलता उसकी कदमों को चूमें,ऐसा क्यों ना हो।
ख़ुदा और ख़ुद पर जो करके भरोसा, मंजिल को पा जाए,
दुनियाँ की नज़रों में वो, मुक़द्दर का सिकंदर क्यों ना हो।
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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