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Wednesday, October 14, 2015

आसरा

आसरा

ख़ुद से युद्ध करता रहता हूँ,
ख़ुद में राम-रावण को पाता हूँ,
जब-जब राम, रावण से हारे,
ख़ुद को दुष्कर्म में लिप्त पाता हूँ। 

दुष्कर्म में जब ख़ुद को पाता हूँ,
ख़ुद को आवरण से ढक लेता हूँ,
जब-जब रावण, राम से हारे,
सत्कर्म का मैं ढोल बजाता हूँ। 

चक्रव्युह में खुद को पाता हूँ,
अथक युद्ध मैं लड़ता रहता हूँ,
बुरे ख्याल स्वतः मुझमें आते,
सत्कर्म के लिए लड़ता रहता हूँ। 

अक्सर ख़ुद से ही हारा हूँ,
तभी तो मैं अधम-पापी हूँ.
अब तो तेरे शरण हूँ, गुरुवर !
अब तो तेरे चरण पड़ा हूँ। 

मेरे अंदर बैठा है जो रावण,
नहीं छोड़ता वह मेरा दामन,
अब आसरा है आपका गुरुवर !
आ बैठो मेरे दिल के आंगन।

नहीं कुछ है अब मेरे बस में,
बहुत दुष्कर्म किए जीवन में,
मुझ पर कृपा करो हे गुरुवर !
अजब सी बेचैनी है जीवन में। 

भौतिक-ज्ञान से केवल जीवन चला है,
आत्म-ज्ञान बिन आनन्द कहाँ मिला है,
राही” को बस अब आस थी तुमसे
उर में आनन्द का अब दीपक जला है। 

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"