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Friday, April 9, 2021

आत्मीयता




आत्मीयता


मेरे एक परम मित्र अशोक जी का तबादला मेरे शहर में हो गया। एक दिन मैं सपरिवार बिना उनको सूचना दिए, उनका कुशलक्षेम पूछने उनके निवास स्थान पर पहुँचा। अभी हमलोग उनके घर के प्रवेशद्वार पर खड़े ही हुए थे कि एक काली आवारा कुत्तिया जोर-जोर से हमलोगों के ऊपर भौंकने लगी। मेरी पत्नी और बेटी उसके भौंकने की आवाज को सुनकर डर के मारे मुझ से चिपक गए। मैं भी डर के मारे 'हट-हट' कह रहा था, परन्तु उसने भौंकना कम नहीं किया। तभी कुत्तिया के भौंकने की आवाज को सुनकर अशोक दम्पत्तिबाहर निकले और हमलोगों को देखकर उन्होंने कुत्तिया को डाँटते हुए कहा, "जूली नहीं, जूली नहीं। "इतना सुनते ही जूली शांत होकर अपनी दुम हिलाते हुए अशोक के पास चली गई। अशोक उस कुत्तिया को प्यार से पुचकारते हुए उसे सहलाने लगा और हमलोगों को इशारे से अंदर आने को कहा। हमलोग सहमते हुए उसके घर में घुसे और पीछे-पीछे अशोक दम्पत्ति ने घुसते हुए कहा , "यार राकेश! तुमने यहाँ अपने आने की सूचना भी नहीं दी। चलो तुमलोग अचानक आए तो और अच्छा लगा। हमलोग भी सोच रहे थे कि घर व्यवस्थित हो जाए तो तुमसे मिलने जाएँगे।"

मैंने हँसते हुए कहा, "तुमसे पहले तो तुम्हारी जूली से मुलाक़ात के कारण हम सभी की साँसें अभी तक गले में अटकी पड़ी है। "

इतना सुनते ही अशोक की पत्नी पानी लेने रसोई की तरफ गई तब अशोक ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "सच पूछो तो राकेश, शुरू-शुरू में हमलोग भी इस जूली से परेशान थे। हमलोगों के पड़ोस में वर्मा जी के यहाँ जूली पड़ी रहती है। वर्मा जी सुबह और रात को इसे नियमित रूप से रोटी खिलाते हैं और यह दिनभर आवारा की तरह घूमती है और रात को इस गली की रखवाली करती है। एक-दो दिन जूली के भौंकने पर वर्मा जी ने इसे डाँट लगाई, उसके बाद हमलोगों को शान्ति मिली।"

अशोक की पत्नी पानी लेकर आई और हमलोग का मन पानी पीकर शांत हुआ। अन्य औपचारिक बातें करते-करते शाम हो गई। नाश्ता कर अशोक दम्पत्ति से हमने विदा ली। हमलोगों को छोड़ने अशोक दम्पत्ति के साथ-साथ जूली भी मुख्य सड़क तक आई और हमलोग अपने घर पहुँचे। इसके बाद एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना लगा रहा और जूली उस दिन के बाद हमलोगों पर कभी नहीं भौंकती, परन्तु कुत्तों का भय अभी भी हमलोगों के दिलों-दिमाग में रहता है। 

किसी कारणवश मुझे भी अपने किराए के मकान को छोड़ना पड़ा और अशोक की मदद से उसकी गली के दूसरे छोर पर एक किराए का मकान मिल गया। एक रात पुराने मकान से नए मकान में सामान रख कर वापस लौट रहा था तभी गली के तीन-चार कुत्ते मुझ पर झपट पड़े। उनके सामूहिक हमले से मैं घबरा गया। मैं जितना जोर से 'हट-हट' की आवाज करता, कुत्ते उससे ज्यादा तेज आवाज में भौंकते। इसी क्रम में कुत्ते इतने पास आ गए कि मैं अपना संतुलन खो कर गिरने ही वाला था, तभी जूली तेजी से दौड़ते हुए उन कुत्तों पर भौंकने लगी। उसके भौंकने से सभी कुत्ते भाग गए। जूली अपनी दुम को तेजी से हिलाते हुए मेरे सामने खड़ी हो गई। मेरी जान में जान आई और मन ही मन जूली का आभार प्रकट कर अपने गंतव्य की तरफ बढ़ गया।
 
एक दिन वर्मा जी का भी तबादला किसी अन्य शहर में हो गया। सामान को ट्रक पर चढ़ते देख जूली को कुछ समझ नहीं आया। वर्मा जी चले गए और जूली उनकी राह उनके दरवाजे पर ताकती रहती। कुछ दिनों तक बावली की तरह गलियों में चक्कर लगाती रही और अंत में वह समझ गई की मेरे मालिक अब नहीं लौटेंगे। उस गली के सभी मकानों के दरवाजे पर बारी-बारी से रहने गई परन्तु किसी ने उसे आश्रय नहीं दिया। समय पर खाना नहीं मिलने से दिन पर दिन कमजोर होती गई। अब उस गली पर अन्य आवारा कुत्तों ने कब्ज़ा जमा लिया। एक रात मेरे घर के पास बहुत से कुत्तों के  भौंकने की आवाज को सुन कर मैं बाहर निकला तो देखा कि जूली पर बहुत सारे कुत्ते झपट्टा मार-मार कर उसे घायल कर रहे थे। मैंने पास पड़े एक डंडे को उठाकर जोर से 'हट-हट' का आवाज लगाई । मेरी आवाज सुनकर सभी कुत्ते भाग गए और जूली भागते हुए मेरे पास आकर अपनी दुम जोर-जोर से हिलाने लगी। न चाहते हुए भी मैंने उसकी पीठ को सहलाया तो वह आराम से वहीं बैठ गई। मैं अंदर गया और उसके लिए रोटी और दूध लेकर आया। वह दूध और रोटी को ऐसे खा रही थी मानों वह कई दिनों से भूखी हो। उसके खाना खा लेने के बाद हमदोनों एक-दूसरे को आत्मीयता की दृष्टि से देख रहे थे।
-©  राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'

Friday, August 14, 2020

बाल कथा : प्रकृति और जीवन

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अफ्रीकी और एशियाई हाथियों के बीच शारीरिक अंतर। 1. कान का आकार 2. माथे का आकार 3. TUSKS केवल कुछ एशियाई हाथियों के पास ही है 4. ट्रंक के छल्लों की संख्या  5. Toenail की संख्या  6. पूंछ का आकार 7. पीठ का आर्च / डिप (चित्र विकिपीडिया से सभार)
प्रकृति और जीवन

     विश्व के दो महाद्वीपों के कुछ हिस्सों में हाथियों का साम्राज्य है। एशिया महाद्वीप में ऍलिफ़स और उसके संतान मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस का साम्राज्य है और अफ्रीका में लॉक्सोडॉण्टा और उसके संतान अफ़्रीकाना और साइक्लोटिस का।
     गर्मियों के दिन शुरू होने वाले थे। मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस ने अपने पिता से कहा, “आपने एक बार कहा था कि हमलोगों को आप अपने बड़े भाई के देश घुमाने ले चलेंगे। तो क्यों न इन गर्मियों की छुट्टियों में हम सभी अफ्रीका चलें?”
     ऍलिफ़स ने कहा, “तो चलो! अगले महीने की एक तारीख को हमलोग अफ्रीका यात्रा पर चलेंगे, परन्तु अभी तुमलोगों की स्कूल में परीक्षा चल रही है, इसलिए तुमलोग पढ़ाई पर ध्यान दो।” और हिदायत देते हुए कहा कि परीक्षा के बाद ही यात्रा की तैयारी करनी है।
     बच्चों ने भी अपने पिता जी के कथनानुसार कार्य किया और परीक्षा के बाद अफ्रीका जाने की तैयारी शुरू कर दी। समान को जब बैग में भर कर तैयार कर लिया, तो तीनों उस बैग को ख़ुशी-ख़ुशी अपने पिता जी को दिखाने गए। कुल चार बैग देखकर उसके पिता जी बोले, “तुमलोग तीन हो तो चौथा बैग किसका है?”
   तीनों उत्साह में एक साथ बोले, “तीन छोटे बैग तो हमलोगों के हैं और सबसे बड़े बैग में सूंढ़ पर लगाने वाला एयर-फ़िल्टर मास्क और प्यूरिफाईड  कम्प्रेसड एयर के सिलिंडर हैं।”
     “अरे हाँ! मैं तुम्हें यह बताना तो भूल ही गया कि वहाँ, तुम्हारे इस चौथे बैग की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहाँ का पर्यावरण बहुत स्वच्छ एवं स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।”- उनके पिता जी ने कहा।
     बच्चों को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने पिता जी से पूछा, “क्या दुनिया में ऐसी भी कोई जगह है, जहाँ हवा और पानी बिना फ़िल्टर के इस्तेमाल में लाया जा सके।” 
     ऍलिफ़स ने बच्चों से मुस्कुराते हुए कहा, “अब तो तुमलोग वहाँ जा ही रहे हो तो देख लेना। वैसे भी कहावत है कि हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या।”
     बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी अपने बड़े बैग को छोड़ कर अफ्रीका के लिए रवाना हो गए। हवाई यात्रा के दौरान बच्चे अफ्रीका के प्राकृतिक सौन्दर्य को देख मुग्ध हो रहे थे। दूध जैसी सफ़ेद बलखाती चौड़ी नदियाँ और हरे-भरे जंगल देख उन्हें लग रहा था कि वे किसी परियों के शहर में आ गए हैं। वे मन ही मन दुखी थे कि उनकी मातृभूमि में ऐसा प्राकृतिक नज़ारा क्यों नहीं है? और इसी बात की चर्चा उसने अपने पिता से की तो उन्होंने लंबी सांस लेते हुए कहा, “बच्चों! कभी हमलोगों की मातृभूमि पर भी इसी तरह का प्राकृतिक नज़ारा था, परन्तु हमारे पूर्वजों की प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता और हमारी विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति का शोषण इसका मुख्य वजह है। कई दशक पहले हमारी प्राकृतिक संपदा यहाँ से अधिक और मनोरम थी। कुछ दशक पहले यहाँ की स्थिति भी हमारे जैसी थी। मेरे यहाँ आने का एक कारण यह भी है कि इनलोगों के प्रयास एवं तकनीक को सीख कर, अपने यहाँ लागू कर अपनी प्राकृतिक संपदा को पुनर्जीवित कर पाऊं।” – इतना कह कर वे उदास हो गए।
     लम्बी यात्रा के बाद जब साउथ अफ्रीका की राजधानी केप टाउन में उनका हवाई जहाज लैंड किया तो उनके चाचा लॉक्सोडॉण्टा और उसके भाई अफ़्रीकाना और साइक्लोटिस ने शाही अंदाज में उनका स्वागत किया। घर पहुँचने पर उनका स्वागत नाना प्रकार के फलों से हुआ। उदर तृप्ति हो जाने के बाद बच्चे नदी में खेलने चले गए। बच्चे सूंढ़ में पानी भर कर एक दूसरे के ऊपर फेंकने लगे। नदी में सभी बच्चों ने खूब उछल-कूद मचाई। जब मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस थक गए, तब वे नदी से निकलने लगे, तभी उनके चचेरे भाइयों ने उन्हें रोका और कहा, “नदी में हम मस्ती करने के बाद सूंढ़ में पानी भर कर जंगल जाते हैं और वहाँ के छोटे-छोटे पौधों को पानी देकर ही घर वापस जाते हैं। इस नियम का पालन यहाँ के छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्ग तक करते हैं। और जंगल से लौटते वक्त, जरूरत के अनुसार फलों को प्यार से ऐसे तोड़ते है, जिससे पेड़ को कोई नुकसान न हो।”
     पाँचों ख़ुशी-ख़ुशी जंगल गए, पौधों को पानी दिया और अपनी-अपनी पसंद का फल तोड़ कर घर वापस आ गए। रात का खाना खाने के बाद ऍलिफ़स और लॉक्सोडॉण्टा आपस में बात करने लगे। परिवार का हालचाल पूछने के बाद ऍलिफ़स ने कहा, “भैया! मैं यहाँ आपसे पर्यावरण को समृद्ध एवं स्वच्छ बनाने के लिए आपके द्वारा उपयोग में किए जाने वाली तकनीक के बारे में जानने आया हूँ।”
     लॉक्सोडॉण्टा ने कहा, “देखो छोटे! तकनीक अपनी जगह है, परन्तु उससे पहले जो तुम्हारे पास प्राकृतिक संपदा है उसके दुरूपयोग को रोकना है।”
     अभी दोनों भाइयों का वार्तालाप चल ही रहा था कि उनके बच्चे वहाँ आ गए। मैक्सिमस ने उत्सुकता से कहा, “बड़े पापा! आप सभी आकार में बड़े एवं शक्तिशाली कैसे हैं? और यहाँ का पर्यावरण, समृद्ध एवं स्वच्छ कैसे है? हमारे यहाँ तो नदी, नाले में बदल गई और हवा इतनी प्रदूषित है कि साँस लेने के लिए भी नाक में फ़िल्टर और साथ में ऑक्सीजन का सिलिंडर रखना पड़ता है।”
     लॉक्सोडॉण्टा ने कहा, “आओ बच्चो आओ! तुम्हारे पिता जी भी मुझ से यही सवाल पूछ रहे थे।” थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे गंभीर हो कर बोले, “यहाँ का नज़ारा अभी जो तुमलोग देख रहे हो, वह कुछ दशक पहले ऐसा नहीं था। जिसके कारण हमने अपने एक भाई ‘मैमथएवं एक बेटे ‘अडौरोरा’ की पीढ़ी को खो दिया और इसका मुख्य कारण था- प्राकृतिक संपदाओं का दुरूपयोग। वे लोग नदी का उपयोग स्नान, गर्मी से राहत पाने एवं प्यास बुझाने के लिए करते थे। यहाँ तक तो बात ठीक थी, परन्तु उस दौरान वे सूंढ़ में पानी भर कर आस-पास फेंक कर जल का दुरुयोग करते थे। जंगल में रहते हुए, वहाँ उत्पात मचाते थे। बे-वजह पेड़ों को तोड़ना, आवश्यकताओं से अधिक फलों को तोड़ कर उसे बर्बाद करना और विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक संपदा के दोहन ने उनके अस्तित्व को मिटा दिया। उन्हीं से सबक लेते हुए, हमलोगों ने अपने दैनिक जीवन में प्रकृति के महत्व को समझते हुए उसकी देखभाल करनी शुरू की। ऐसे-ऐसे नियम बनाए जिससे पर्यावरण दूषित न हो और अधिक से अधिक पेड़ को सिंचित कर सकें। बरसात के पानी को सदुपयोग में लाने के लिए हमलोग रेन हार्वेस्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। कार्बन फुटप्रिंट को कम किया। अन्य तकनीक की जानकारी मैं तुम्हारे पापा को दे दूँगा, अगर तुमलोग उनका सहयोग करोगे तो वह दिन दूर नहीं, जब हमलोग भी तुम्हारे घर आ कर अपने बच्चों के साथ छुट्टियाँ मनाएँगे।
     ऍलिफ़स एक सप्ताह में सभी जानकारी इकठ्ठी कर बच्चों के साथ अपने देश लौट आया। उसने अपने समाज को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया और इम्पोर्टेड तकनीक से पर्यावरण को संरक्षित एवं स्वच्छ बनाने लगा। उसके एवं बच्चों के अथक प्रयास से, दो दशक बाद उनके नाले जैसी नदी चौड़ी एवं स्वच्छ हो गई। जंगल में हरियाली छा गई और वह दिन भी आया, जब दो दशक बाद ऍलिफ़स के बच्चे बड़े होकर अपने बुजुर्ग बड़े पापा एवं अपने भाइयों का नई दिल्ली के एअरपोर्ट पर शाही अंदाज में इंतज़ार कर रहे थे।

(नोट- ऍलिफ़स, लॉक्सोडॉण्टा और मैमथ हाथियों की प्रजाति है। ऍलिफ़स की तीन जातियां मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस तथा लॉक्सोडॉण्टा की तीन जातियां अडौरोरा, अफ़्रीकाना और और साइक्लोटिस हैं)

-----समाप्त----

©  राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'

Tuesday, May 26, 2020

प्रेम का वायरस



Wednesday, August 8, 2018

जीवन की साँझ

जीवन की साँझ

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रामदीन का पुश्तैनी पेशा मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने बनाना था और उसके द्वारा बनाए गए सामान, उसके गाँव के पास के हाट में हाथों-हाथ बिक जाते थे। घर-गृहस्थी बड़े आराम से चल रही थी। रमेश उसका एकलौता बेटा था जो पढ़ने में बहुत ही  ज़हीन था। 

रमेश के मास्टर साहब, एक दिन रामदीन से बोले – “रामदीन ! देखना, रमेश एक दिन इस गाँव का नाम रौशन करेगा जैसे कमल ने किया।

रामदीन ने भी रमेश की पढ़ाई के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी और एक दिन रमेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर शहर की एक फैक्ट्री में नौकरी करने लगा। जब रमेश की नौकरी लगी तो वह अपने पिता जी को अपने साथ, शहर ले जाने के लिए घर आया और अपने पिता जी से बोला – “बाबू जी, आप मेरे साथ शहर चलें, वहाँ मुझे बंगला मिला है। आपने मेरे लिए बहुत मेहनत की है, अब आराम करने की बारी आपकी है।”

रामदीन बोला – “ बेटा, हमलोग मजदूर आदमी है, बिना मेहनत किए हम कहीं नहीं रह सकते।

रमेश जिद्द करके बोला – “बाबू जी, आप चलिए, वहाँ आपके मित्र, कमल के पिता जी भी तो रहते ही हैं।”

बेटे के जिद्द के आगे रामदीन को झुकना पड़ा और अपनी पत्नी एवं बेटे के साथ शहर में आ गया। अभी दो दिन ही बीते थे कि रामदीन ने अपने बेटे से कहा – “ बेटा ! बिना मेहनत किए मैं रह नहीं सकता, बैठे-बैठे मेरा सारा बदन टूट रहा है।”

रमेश ने कहा - “बाबू जी ! दिन भर आप अकेले रहते है इसलिए आपका यहाँ मन नहीं लग रहा। ऐसा करते है, कल रविवार की छुट्टी है। मैं आपको अपने प्रिय मित्र कमल के पिता जी, सुरजचंद जी से मिलवाने ले चलूँगा।” 

रमेश अपने पिता जी को को ले कर कमल के यहाँ पहुँचा। रामदीन ने एक लॉन के बीच बंगले को देखकर अपने बेटे से पूछा – “सुरजचंद यहीं रहता है?”

रमेश ने कहा - “हाँ बाबू जी ! कमल जी ही मेरे बॉस हैं।”

न चाहते हुए भी रामदीन को सुरजचंद की किस्मत पर रश्क हो आया। बंगले में प्रवेश करते ही कमल ने नमस्ते काका कह कर रामदीन का स्वागत किया, तो आशीर्वाद देकर चहकते हुए कमल से कहा – “ बेटा ! अब जल्दी से सुरजचंद को बुलाओ, लगभग दस साल के बाद उससे मिलूँगा।”

कमल ने कहा – “पिता जी को घुटनों में दर्द रहता है इसलिए उनको चलने-फिरने में तकलीफ़ होती है।”

कमल ने आवाज़ लगाई- “रामू काका!”

रामदीन की ही उम्र एक आदमी आया और कमल के सामने खड़ा हो कर कहा – “जी साहेब !”

कमल ने कहा - “देखो ! चाचा जी को पिता जी के कमरे में ले जाओ।” 
रामदीन, रामू के पीछे-पीछे हो लिए। एक कमरे की ओर इशारा कर रामू वहाँ से चला गया। रामदीन ने जब कमरे में प्रवेश किया तो एक जीर्ण-शीर्ण शरीर वाला व्यक्ति बिस्तर पर लेटा हुआ था। पास जाने पर मुश्किल से सुरजचंद को पहचाना तभी सुरजचंद बोल पड़े – “अरे ! रामदीन भाई, यहाँ कैसे?”
(सुरजचंद का चेहरा खिल उठा।) 

“ लोहे को तपा कर अपने मन-मुताबिक ढालने वाले सुरजचंद, ये क्या हाल बना लिया है?”- रोते हुए रामदीन ने कहा। 

“क्या बताऊँ ? जब मैं यहाँ आया तो कमल ने जैसे मुझे इस महल में कैद ही कर दिया। यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं है, परन्तु, स्वेच्छा से कोई काम नहीं कर सकता था। शुरू में तो बदन दर्द करता था फिर घुटनों में दर्द, अब तो चलना-फिरना भी मुहाल हो गया है।” ये कहते हुए सुरजचंद के आँखों से आँसू निकल पड़े। 

भारी मन से रामदीन अपने बेटे के साथ लौटे। अगली सुबह रामदीन ने अपने बेटे से कहा कि मैं सुरजचंद जैसी ज़िन्दगी नहीं जी सकता। मुझे यहाँ अपना काम करने दो या मुझे गाँव छोड़ दो। 

“कैसी बात करते हैं बाबू जी! यहाँ पर कुम्हार का काम करेंगे तो लोग क्या कहेँगे।”- रमेश ने कहा।  

बाप-बेटे में अभी बहस चल ही रही थी तभी घर में प्रवेश करते हुए कमल ने कहा - “लो काका! आपका चश्मा मेरे यहाँ छूट गया था, वही देने आया हूँ, परन्तु यहाँ किस विषय पर, आप दोनों में बहस छिड़ी हुई है?

रमेश ने नाराजगी दिखाते हुए कहा - “ देखिए ना ! बाबू जी अपनी जिद्द पर अड़े हैं कि या तो मुझे यहाँ कुम्हार का काम करने दो या फिर गाँव भेज दो।  

यह सुनकर कमल गंभीर स्वर में बोला - “काका सही कह रहे हैं, मैंने अपने बाबू जी को अपाहिज बना दिया और मैं नहीं चाहता कि काका का भी यही हाल हो। रमेश ! हमें समझना होगा कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, जिस काम को करने में हमें ख़ुशी मिले, उसी काम को करना चाहिए।

परन्तु लोग क्या कहेंगे ?” - रमेश ने झुँझलाते हुए कहा। 

इस समस्या का भी हल है मेरे पास। काश ! मेरी ये सोच पाँच साल पहले होती तो आज मेरे बाबू जी का ये हाल नहीं होता। ” - कमल ने कहा। 

रामदीन और रमेश आशाभरी नज़रों से कमल को देख रहे थे। 

कमल ने कहा - “ आजकल बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही हैं, क्यों ना हम एक पॉटरी एवं क्ले टॉय का वर्कशॉप लगाए, जिसमें काका बच्चों को मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने बनाना सिखाएंगे।” 

यह सुनकर, रामदीन और रमेश का चेहरा खिल उठा। रमेश ने चहकते हुए कहा - “यह सुझाव बहुत ही अच्छा है।” (यह कहते हुए, रमेश ने  भावुक होकर कमल को गले से लगा लिया।)

रमेश के  दस-पंद्रह दिन की  कड़ी मेहनत ने रंग दिखाया और पॉटरी एवं क्ले टॉय का वर्कशॉप खुल गया, जिसका उदघाटन करने सूरजचंद जी आए थे। 

वर्कशॉप में पॉटरी एवं क्ले टॉय को सीखने आए बच्चों को देख कर रामदीन एवं सूरजचंद की आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए। सूरजचंद ने रामदीन को गले लगाते हुए कहा - “रामदीन ! जीवन की इस ढलती साँझ में सूरज तो डूब रहा है, परन्तु, आज से तुम्हारे जीवन में पूर्णिमा का चाँद निकला है और साथ में तारे रुपी बच्चे तुम्हारे जीने की उम्मीद को जगमगाते रहेंगे। 

“सही कहा है, सूरजचंद भाई !” - रामदीन ने ख़ुशी के आंसू पोछते हुए कहा। 

©  राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"






Wednesday, April 5, 2017

वाक्यांश – संन्यास


वाक्यांश – संन्यास 

तबादला होने के कारण इस शहर में आना पड़ा और जॉगर’स पार्क में मेरा पहला दिन था। मैं कान में ईअर फोन लगाकर धीरे-धीरे दौड़ रहा था, तभी किसी ने पीछे से कंधा थपथपाया। मैं जब पीछे मुड़ा तो एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति को मुस्कुराते हुए देखा।

उसने हाथ बढ़ाते हुए कहा – “ मैं रवि कान्त शास्त्री, ऐसे दोस्त मुझे देव बुलाते है।”
मैंने भी हाथ मिलाते हुए कहा – “हाए देव साहब ! मैं श्रीवास्तव।”
देव साहब ने कहा – “नहीं, नहीं श्रीवास्तव ! आप मुझे सिर्फ देव ही बुलाएं। उम्मीद करता हूँ कि आप जॉगर’स पार्क में नियमित आयेंगे और इस तरह मेरे दोस्तों के फ़ेहरिस्त में शुमार हो जाएँगे।”

इस संक्षिप्त परिचय से मेरा उनसे मुलाक़ात का सिलसिला चल पड़ा और उस मुलाक़ात के दौरान जीवन के हरेक पहलू पर उनसे और उनके दोस्तों से चर्चा होती रहती। दोस्ती इतनी बढ़ गई थी कि जाड़ो के दिनों में सुबह के अंधेरो में भी मेरी पदचाप सुनकर वे मुझे पुकार लेते थे। 

देव के बारे में मैं कह सकता हूँ कि 65 वर्ष के उम्र में भी वे अपने पहनावे पर विशेष ध्यान देते हैं। वे बहुत ही जहीन, हंसमुख एवं मिलनसार व्यक्तित्व के मालिक भी हैं। 

इधर कई दिनों से उनसे मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी, तो एक दिन उनके मित्र से मैंने पूछा – “आज कल देव नहीं दिख रहें हैं !”

तो उनके मित्र ने कहा – “ क्या बताएं ? देव अपना घर-बार छोड़ कर नागपुर के किसी आश्रम में रहने लगे हैं।


मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इतना ज़िंदा-दिल, सकारात्मक सोच वाला इंसान और भरपूर आनंद के साथ जीवन जीने वाला व्यक्ति, इस उम्र में संन्यास कैसे ले सकता है ? यह घटना मेरे लिए सदमे से कम नहीं थी। 

चित्र http://www.mumbai77.com/ से साभार। 
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"








Friday, March 31, 2017

वाक्यांश – भूत


वाक्यांश – भूत   

दीनानाथ जी की बहू को आए दिन भूत चढ़ जाता, जिसके कारण दीनानाथ एवं उनकी पत्नी बहुत परेशान रहते। बहुत टोना-टोटका करवाया, पीर-फक़ीर और दरगाह के गंडे-ताबीज़ भी बहू के गले एवं बाजुओं में बंधवाये, परन्तु बहू की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। थक हार कर दीनानाथ जी दुसरे गाँव के ओझा के पास अपने बहू को ले कर गए। 

ओझा ने दीनानाथ जी को कहा – “बहू का भूत झाड़ कर आता हूँ तब तक आप बाहर बैठिए।”

ओझा जी ने बंद कमरे में बहू से पूछा – “सच-सच बताओ! क्या बात है? मैं तुम्हारे गाँव का भी नहीं हूँ और ना ही मैं तुम्हारे गाँव के किसी व्यक्ति को जानता हूँ।”

इतना सुनकर बहू आश्वस्त हो कर बोली – “ओझा जी ! मेरा परिवार बड़ा है और घर में सास, ननद और जेठानियाँ है पर काम में कोई हाथ नहीं बटाता है।”

इतना सुनकर ओझा जी बाहर आकर दीनानाथ जी को कहा – “दीनानाथ जी आपकी बहू का भूत उतार दिया है, बस ख्याल रखें कि बहू, आग एवं पानी में ज्यादा समय ना बिताएं। 

अब दीनानाथ जी के यहाँ खुशहाली है क्योंकि उनके घर की सारी औरतें मिल-जुल कर काम करती हैं। 

पढ़िए मेरी एक कहानी वाक्यांश – "इच्छा-मृत्यु" 

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"






Wednesday, March 29, 2017

वाक्यांश – "इच्छा-मृत्यु"



वाक्यांश – "इच्छा-मृत्यु"


एक दिन सुबह, जब मैं सैर करने निकला तो एक लड़की ने अटकते हुए आवाज़ दी – “अंकल जी !

मैं उस अनजान, पतली-दुबली और जिसकी उम्र करीब चौदह-पंद्रह साल होगी, लड़की की तरफ मुखातिब होते हुए बोला – “क्या बात है?”

देखने में गरीब परिवार की लग रही थी और डरी हुई भी थी। 

उसने, अपने गले को साफ़ कर, ऊँगली से इशारा कर के बोली – “ वो मुझे कुत्तों से डर लगता है।”

मेरी नज़र उसके इशारे की तरफ मुड़ी । मुझे सुनसान सड़क के किनारे कुछ दूरी पर तीन-चार आवारा कुत्ते दिखे और मैं उसके साथ कुछ दूर चला। जब उसे लगा की कुत्तों से अब कोई खतरा नहीं है तो वह दौड़ कर पास के एक मकान में चली गई। 

तब से अक्सर वो लड़की मुझे वहीँ मिल जाती थी। बात-चीत से पता चला कि उसका नाम सरला है और वो उस घर में नौकरानी का काम करती है। 

एक दिन जब मैं सैर करने उसी रास्ते से जा रहा था तो वहाँ कुछ लोग इक्कठे खड़े थे। मैं उनमें से एक को जानता था। 

मैंने कहा – “शर्मा जी ! आज सुबह-सुबह यहाँ आप लोग इक्कठे क्यूँ हैं, सब खैरियत तो है। 

तब शर्मा जी ने कहा – “ श्रीवास्तव जी ! क्या बताएं, घोर कलयुग आ गया है। मिश्रा जी के यहाँ सरला नाम की बच्ची घर का काम करने आती थी। कल सुबह कुछ दरिंदों ने उसकी इज्ज़त लूटी और जख्मी कर अर्द्ध-नग्न अवस्था में इस सड़क के किनारे छोड़ कर भाग गए।”

मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ और साथ में अफ़सोस भी कि कल मैं सैर करने क्यों नहीं आया था। मुझे शर्मा जी से ही पता चला की सरला का ईलाज सिविल अस्पताल में चल रहा है। मैं भागता हुआ उसके पास पहुँचा। 

मुझे देख कर उसने बिलखते हुए कहा – “ अंकल जी ! आप मुझे कल सुबह क्यों नहीं मिले। जब वे कुत्ते मुझ पर झपटे तो मुझे आपकी बहुत याद आ रही थी और जब वह दरिंदे मुझे अर्द्धचेतन अवस्था में छोड़ कर भाग गए तो मेरे मन में इच्छा-मृत्यु की कामना उठ रही थी कि काश सच में गली के कुत्तें कल मुझे नोच खाते तो कितना अच्छा होता।”

उसकी बातों को सुनने के बाद मेरी आँखों में आँसू आ गए पर उसको देने के लिए मेरे पास सांत्वना के शब्द भी नहीं थे। 

चित्र  http://www.dnaindia.com/ से साभार

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"





Wednesday, March 8, 2017

पत्नी पुराण

पाठकों ! मेरी पहली कहानी सास पुराण आप सभी ने पढ़ी और सराही जिसके लिए आप सबको मेरी तरफ से धन्यवाद। साथियों! आप सब बार-बार मुझसे अनुरोध करते रहे कि सास-पुराण के बाद पत्नी-पुराण भी लिखूँ। पत्नी-पुराण की पाण्डुलिपि तो मैंने आपके कहने पर तैयार कर ली थी, परन्तु किसी पति में इतना साहस तो है कि वह अपनी पत्नी के बारे में कुछ लिख ले  और उस कृति को नजरबंद कर  दे, किन्तु  उसे  प्रकाशित कर दे, इतनी हिम्मत कहाँ? पति तो बेचारा एक निरीह प्राणी है, जो शादी के बाद घर में केवल सुनता है, बोलता कुछ नहीं है। इसलिए आप सभी, पतियों को घर  के बाहर, बहस करते, डींगे मारते, बिन पूछे राय देते तो देखा  ही होगा और ऐसे पतियों को भी देखा  होगा, जो राह चलते बड़बड़ाते भी हैं। आप सब से अनुरोध है कि ऐसे व्यक्ति को आपकी सहानभूति की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु जरा संभल  के, हो सकता  है कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक न हो और आप से  ही उलझ पड़े। तो आइए, फिर से बजरंग बली  का नाम लेते हुए मैं अपना पत्नी पुराण शुरू करता हूँ। मेरी शादी किस तरह से हुई यह तो आपने सास पुराण में तो पढ़ ही लिया।
सास पुराण पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-
http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2012/02/blog-post.html


अब आगे .........

मेरी पत्नी बहुत सुंदर एवं सुशील थी और वाणी मधुर जैसे की प्रत्येक पति को लगता है। मेरी पत्नी का व्यवहार शुरू में तो सभी के साथ मधुर था, परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया उसने अपना पहला निशाना मेरी माँ को बनाया, फिर क्या था? मेरा घर युद्ध के मैदान में बदल गया। एक तरफ मेरी माँ एवं मेरे भाई-बहन तो दूसरी तरफ मेरी पत्नी।

मेरी सरकारी नौकरी का कार्यस्थल घर से दूर था और साल में दो ही बार घर जा पाता था। शादी के शुरूआती दिनों में तो घर जाने के नाम पर रौनक आ जाती थी, क्यूंकि घर पहुँचते ही माँ, बहू का गुणगान करती और उनकी बहू मेरी सेवा! फिर क्या था? दोनों हाथो में लड्डू अर्थात शादी का लड्डू जिसे खा कर मैं बहुत खुश था। इन्हीं खुशियों के बीच मुझे एक पुत्री-रत्न प्राप्ति की ख़ुशी मिली।

मेरी माँ भी बहुत खुश थी और हो भी क्यों ना, किसी को पराधीन रखने का जो असीम सुख स्त्रियों को मिलता है, वह सभी सुखों में सर्वोपरी है। यही कारण है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सास-बहुओं के बीच ताल-मेल कभी बैठ नहीं पाता। सामान्यतः सास अपनी बहू को पराधीन रखती है, परन्तु कहीं-कहीं स्थिति विपरीत भी हो जाती है अर्थात बहू दबंग हो तो सास को पराधीन बना लेती है। खैर ! साधारणतः जब किसी स्त्री के बेटे की शादी होती है तो बहू को बेटी बनाने का सपना देखती है, परन्तु वह उसे अपने अनुशासन में रखना चाहती है। पर क्या किसी की बेटी, किसी के अनुशासन में रह सकती है? अरे ! बेटी तो लक्ष्मी होती है और लक्ष्मी तो चंचल होती है, लक्ष्मी किसी के अधीन नहीं रह सकती, वो तो उसी के पास रहेगी, जो उसको सर पर चढ़ा कर रखेगा। इसलिए स्त्री या तो पिता के साथ ख़ुशी से रहती है या पति के साथ।

तो, जब तक मेरी पत्नी को मेरे घर वालों ने सर चढ़ा कर रखा तब तक तो सब ठीक था , परन्तु जैसे-जैसे अनुशासन में रखने के लिए टोका-टाकी शुरू हुई, वैसे ही सास-बहू का तालमेल  बिगड़ा और मेरे शादी के लड्डू खा कर पछताने के दिन शुरू हो गए। अब मुझे घर जाने की ख़ुशी नहीं रहती, बल्कि घर जाने के नाम से ही पसीने आ जाते।किसी तरह घर पहुंचता, तो माँ अपने बहू की करतूतों से दिनभर अवगत कराती और रात  को खाना खाकर सोने जाता तो पत्नी रातभर अपनी सफाई देने में बिता देती। मैं तो बेचारा उल्लू की भाँति ऑंखें गोल-गोल घुमाकर दोनों की बातें सुनता रहता।

जब आपके अपनों के बीच युद्ध हो, तो आप तटस्थ नहीं रह सकते और अगर मैं  केवल किसी एक के पक्ष में दलील देता तो यकीन मानिए या तो मेरा  सारा दिन ख़राब होता या सारी रात। तो,  मैं यह खतरा मोल नहीं लेना चाहता था। अतः दोनों की बातों में हाँ-में-हाँ मिलाने लगा। पर मैं जानता था कि यह कोई स्थाई समाधान नहीं है। इसी उधेड़-बुन में मैंने बीमारी का बहाना बना कर घर आना-जाना बंद कर दिया। लेकिन क्या परिस्थितियों से निपटने के लिए पलायनवादी सोच कभी काम आती है, जो मेरे काम आती। अतः ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मैंने पत्नी को समझाने से अच्छा, माँ को ही समझाना अच्छा समझा और हिम्मत करके घर गया। घर पहुँचते ही माँ ने मेरी तबियत के बारे में पूछा।

मैंने माँ से कहा – माँ! तबियत तो अब ठीक है परन्तु कमजोरी महसूस करता हूँ। बाहर का खाना खाने का मन नहीं करता।

माँ ने कहा – तो बहु को ले जा। मैं तो तुम्हारे भाई-बहन की पढ़ाई एवं पिता जी की नौकरी के कारण, तुम्हारे साथ जा नहीं सकती। 

इतना सुनते ही, मेरी बिन माँगे मुराद पूरी हो गई। मैं अपनी पत्नी को अपने साथ ले आया। पत्नी जी अपने नई गृहस्थी को संभालने में लग गई और मेरी माता जी अपने छोटी बहू को ढूढ़ने में। अब मेरे दोनों हाथों में लड्डू और सर कड़ाही में था। उधर माँ अपनी छोटी बहु के लिए योग्य लड़की की बातें मुझको बता कर खुश होती और इधर मेरी पत्नी अपने स्वयं की  गृहस्थी को सजाने एवं नई सहेलियाँ बनाने में खुश थी। मैं भी उसकी सेवा एवं ख़ुशी को देख निहाल हो रहा था, परन्तु यह सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चला। शुरू में तो बैंक में रखे पैसों से गृहस्थी चली, परन्तु मुझे लगने लगा कि मासिक वेतन से घर खर्च चलाना मुश्किल है, तो इस पर मैंने पत्नी को टोकना शुरू किया, जैसे ही मैंने अपनी पत्नी को टोकना शुरू किया, वो तो नागिन की तरह फुफकारने लगी और कहने लगी – देखो जी ! मुझे इस तरह की टोका-टाकी पसंद नहीं है, क्या मैंने गहने गढ़वा लिए? जो खर्च हो रहा है, वह केवल राशन पर ही हो रहा है। ना मैंने अपने मायके में खाने-पीने में कटौती देखी है और ना ही मुझसे खाने-पीने के समान में कटौती  होती है।

ये सिलसिला जो चला वो कभी रुका ही नहीं। मैं इन सब से बचने के लिए ऑफिस से आता और चुपचाप अपने साहित्यिक लेखन में जुट जाता परन्तु उसे मेरा यह पलायनवादी तरीका पसंद नहीं आया। कुछ दिन तू-तू-मैं-मैं होती रही और अंत में मुझे ही उसकी  हाँ में हाँ मिलाकर अपना हथियार डालना पड़ा और मैंने लाफिंग बुद्धा का शांति वाला चोंगा पहन लिया। आए दिन किसी न किसी बात पर मुझको लड़ने के लिए उकसाती परन्तु मैंने अपनी शांति का चोंगा नहीं उतारा।

ऐसे तो मैं लड़के और लड़की में भेद नहीं करता परन्तु लड़का ना होने की कसक इस प्रौढ़ा अवस्था में ज्यादा महसूस हो रही थी। क्योंकि मेरे जिन मित्रों के पुत्र थे, वे अब आनंद में थे। क्योंकि उनकी पत्नियों को अपने-अपने  बहू और बेटों से फुर्सत नहीं थी, जो अपने पति पर चिल्लाये। मैं इस उम्र में भी अपनी पत्नी से प्रताड़ित होता रहा। पहले मैं काल्पनिक सास के डर से नींद में चिल्लाता था, अब स्वप्न में पत्नी श्री के भय से, नींद में भी चीख नहीं निकल पाती। मैं बिस्तर पर छटपटाता रहता हूँ । ऑंखें तभी खुलती हैं जब मेरी धर्मपत्नी साक्षात् दुर्गा का रूप लिए हाथ में झाड़ू लेकर झकझोर कर बोलती है – क्या बंदरों की तरह बिस्तर पर पलटी मार रहे हो?

खैर ! समय बीतता गया और बेटी की शादी के लिए मेरी दौड़-भाग शुरू हो गई। लड़की की शादी एक अच्छे परिवार में तय हो गई। शादी की तैयारी शुरू करनी थी, तभी मेरे दोनों हाथों और पैरों में लकवा मार गया और मैं व्हील चेयर पर आ गया। बेटी की शादी उसने, अपने बचत किए हुए रुपयों एवं गहनों को बेच कर की। मेरी नौकरी चली गई परन्तु अनुकम्पा के आधार पर मेरी पत्नी को नौकरी मिल गई। सदा चहकने वाली स्त्री, अब कर्तव्यों के बोझ तले गंभीर हो गई। मुझसे सदा लड़ने को उत्सुक, अब मेरी सेवा में तल्लीन हो गई। अब वह दफ्तर के काम के साथ-साथ घर की सारी ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर ले ली और मेरी शारीरिक सेवा को उसने पूजा और आराधना का रूप दे दिया।  उसने बड़े ही संयम से अपने सभी कार्यों को अंजाम दिया।

मैंने अक्सर देखा है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्रियों की दिनचर्या अन्य स्त्रियों की तुलना में बहुत ही कठिन होती है। जहाँ मुश्किल घड़ी में पुरुष धैर्य खो देता है वहीँ स्त्रियाँ दुर्गा बन परिस्थितियों का सामना करती हैं।

मेरी बेबसी के आसुंओं को देख, वह अक्सर मुझे सांत्वना देती - " देखना! तुम एक दिन चलने-फिरने लगोगे, तो फिर, मैं तुम से झगड़ा करुँगी।"

एक दिन मैंने उससे पूछ लिया – "तो क्या तुमको मुझसे हमेशा झगड़ना ही है ?"

उसने कहा – “हाँ! झगड़ना है, आखिर मैं भी एक इंसान हूँ। मुझे तुम्हारी किसी बात पर गुस्सा आ जाए तो तुमसे लड़ाई ना करूँ तो किससे करूँ। तुम तो जानते ही हो कि स्त्रियों को ता-उम्र  कितनी टोका-टाकी होती है , पर अपने आक्रोश को स्त्री कहाँ प्रकट करें। अगर कोई प्यार करने वाला पति उसे मिले, तो कभी-कभी अपने दबे हुए आक्रोश को अपने पति पर निकाल भी ले, तो क्या यह गुनाह है? आखिर वहीँ स्त्री अपने पति को सदैव प्यार करती है तो वह पुरुष को दिखाई नहीं देता, परन्तु कभी-कभी के झगड़ों को माफ़ करने की जगह, पुरुष सदैव के लिए उसे दिल में रख कर मौन धारण कर ले और पत्नी के प्यार को ना समझे तो इसमें स्त्रियों का क्या दोष?”

आज यह शब्द हथौड़े की तरह मस्तिष्क में गूंज रहें हैं। मैंने कितने ख़ुशी के स्वर्णिम अवसर खो दिए। मैं आज बहुत दिनों के बाद अपनी पत्नी श्री की तस्वीर के सामने बैठा, पत्नी पुराण  पाण्डुलिपि  को पढ़ रहा हूँ। उनकी अथक मेहनत और विश्वास से मैं स्वस्थ हो गया परन्तु मेरे देखभाल के चक्कर में वो अपनी स्वास्थ का ख्याल नहीं रख सकीं  और समय से पहले ही और मेरे ठीक होने के बाद उनका निधन हो गया।


"हेलमेट और पत्नी दोनों का स्वभाव एक जैसा है... सिर पर बिठा कर रखो तो जान बची रहेगी।
पतियों को समर्पित।"


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"


            

Saturday, February 25, 2017

समरथ के नहीं दोष गोसाई - भाग -2


समरथ के नहीं दोष गोसाई 

भाग -2 (अंतिम भाग) 
भाग - 1 पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-

अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे इन्द्र राजभोग से विरक्त हो मोक्ष प्राप्ति हेतु कैलाश पर्वत पर शिव की आराधना करने पहुँचे और एक दिन मानसरोवर के तट पर कुबेर की पत्नी चित्रसेना को देख मोहित हो गए और कामदेव की मदद से चित्रसेना को काम-वासना वशीभूत कर अपने साथ मन्दराचल के एक अज्ञात कन्दरा में लेकर आए। पूरा पढ़ने के लिए ऊपर दिए गए  लिंक को क्लिक करें।  

अब आगे -

इधर, इन्द्र जब चित्रसेना को लेकर मन्दराचल चले आए, तब उसकी संगनी स्त्रियाँ उसे साथ लिए बिना ही यक्षराज कुबेर के समीप घबराई हुई पहुँची और बोलीं-“यक्षपते ! आपकी भार्या चित्रसेना को किसी अज्ञात पुरुष ने पकड़ कर विमान पर बिठा लिया और चारों ओर सशंक-दृष्टि से देखता हुआ वह चोर बड़े वेग से कहीं चला गया है।

विष के समान दुस्सह प्रतीत होने वाली इस बात को सुनने से धनाधिप कुबेर का मुँह काला पड़ गया। उस समय उनके मुख से कोई बात नहीं निकली। इसी समय चित्रसेना की सहचरी श्रेष्ठ यक्ष-कन्याओं से यह समाचार जानकर कुबेर का मंत्री कंठकुब्ज भी अपने स्वामी का मोह दूर करने के विचार से आया। उसका आगमन सुन राजाराज कुबेर ने आँखें खोल कर उसकी ओर देखा और लंबी साँस खींचते हुए अपने चित्त को यथासंभव शीघ्र सँभालकर दीनभाव से बोले। उस समय उनका शरीर भय और क्रोध से काँप रहा था।
वे कहने लगे – “वही यौवन सफल है, जिससे युवती का मनोरंजन हो सके; दान वही सार्थक है, जो आत्मीय जनों के उपयोग में आ सके। जीवन वह सफल है, जिसे सद्धर्म किया जाए और प्रभुत्व वही सार्थक है, जिसमें युद्ध और कलह के मूल नष्ट हो गये हों। इस समय मेरे इस विपुल धन को, मेरे इस विशाल राज्य को और मेरे इस जीवन को धिक्कार है। अभी तक मेरे इस अपमान को कोई नहीं जानता, अतः इसी समय अग्नि में जल मरूँगा। पीछे यदि इस समाचार को लोग जान लें तो क्या ? मृत पुरुषों का क्या अपमान होगा? हा ! वह मानसरोवर के तट पर गिरजा-पूजन के लिए गई थी जो यहाँ निकट ही था और मैं जीवित भी था, तो भी किसी ने हर लिया। हम नहीं जानते वह कौन है, पर अवश्य ही उस दुष्ट को मृत्यु का भय नहीं होगा। ”

स्वामी की यह बात सुनकर उसका मोह दूर करने के लिए कुबेर के उस मन्त्री कंठकुब्ज ने यह वचन कहा- “नाथ! सुनिए, स्त्री के वियोग में शरीर-त्याग करना आपके लिए उचित नहीं है। पूर्वकाल में भगवान् श्री रामचंद्र जी की एक मात्र पत्नी सीता को भी निशाचर रावण ने हर लिया था, परन्तु श्री रामचंद्र जी ने प्राण नहीं त्यागा। आपके यहाँ तो अनेक स्त्रियाँ हैं, फिर आप मन में यह कैसा विषाद ला रहें हैं? यक्षराज ! शोक त्याग कर पराक्रम में मन लगाइये; धैर्य धारण कीजिये। साधू पुरुष बातें नहीं बनाते और न बैठकर रोते ही हैं; वे दूसरों के द्वारा परोक्ष में किए हुए अपने अपमान को उस समय चुपचाप सह लेते हैं। वित्तपते ! महापुरुष समय आने पर महान कार्य कर दिखाते हैं। आपके तो अनेक सहायक हैं, आप क्यों कातर हो रहें हैं? इस समय तो आपके छोटे भाई विभीषण स्वयं ही आपकी सहायता कर सकते हैं।
कुबेर बोले- विभीषण तो मेरे विपक्षी ही बने हुए हैं, वे अब भी मेरे साथ कौटुम्बिक विरोध का त्याग नहीं करते। यह निश्चित बात है की दुर्जन पुरुष उपकार करने पर भी प्रसन्न नहीं होते, वे इन्द्र के वज्र के सदृश कठोर होते होते हैं। सगोत्र का मन उपकारों से, गुणों से अथवा मैत्री से भी प्रायः प्रसन्न नहीं होते।

यह सुनकर कंठकुब्ज ने कहा - “धनाधिनाथ ! आपने ठीक कहा है. विरोध होने पर सगोत्र पुरुष अवश्य ही परस्पर घात-प्रतिघात करते हैं, तथापि लोक में उनका प्रभाव नहीं देखा जाता; क्योंकि कुटुम्बी जन दुसरे के द्वारा किए हुए अपने बन्धुजन के अपमान को नहीं सा सकते। जिस प्रकार सूर्य की किरणों से तप्त हुआ जल अपने भीतर के तृणों को नहीं जलाता; उसी प्रकार दूसरों से अपमानित कुटुम्बी जन अपने पार्श्ववर्ती बंधुओं को नहीं सताते। इसलिए धनाधिप ! आप बहुत शीघ्र विभीषण के पास चलिए। जो लोग अपने बाहुबल से उपार्जित धन का उपभोग करते हैं, उन्हें भाई-बन्धुओं के साथ क्या विरोध हो सकता है। ”

अपने मंत्री कंठकुब्ज के इस प्रकार कहने पर कुबेर मन-ही-मन उस पर विचार करते हुए शीघ्र ही विभीषण के पास गए। लंकापति विभीषण ने जब ज्येष्ठ भ्राता का आगमन सुना, तब उन्होंने बड़ी विनय के साथ उनकी अगवानी की। फिर विभीषण ने अपने भाई को जब दीन दशा में देखा, तब उन्होंने मन-हि-मन दुखी होकर उनसे यह महत्वपूर्ण बात कही।

विभीषण बोले-“ यक्षराज ! आप दीन क्यों हो रहे हैं? आपके मन में क्या कष्ट है? इस समय आप उस कष्ट को मुझे बताइये। मैं निश्चय ही उसका मार्जन करूँगा। "

तब कुबेर ने एकांत में जाकर विभीषण से अपनी मनोवेदना बतलाई .

कुबेर बोले- भाई! कुछ दिनों से मैं अपनी मनोरमा भार्या चित्रसेना को नहीं देख रहा हूँ। न जाने उसे किसी ने पकड़ लिया या स्वयं किसी के साथ चली गई अथवा किसी शत्रु ने उसे मार डाला।  बन्धो ! मुझे अपनी स्त्री के वियोग का महान कष्ट हो रहा है। यदि वह प्राणवल्लभा न मिली तो मैं प्राण त्याग दूँगा।

विभीषण बोले - “प्रभो! आपकी भार्या कहीं भी होगी, उसे मैं लाकर दूँगा। नाथ! इस समय संसार में किसकी सामर्थ्य है जो हमारा तृण भी चुरा सके।”

यह कहकर विभीषण ने नाना प्रकार की माया के ज्ञान में बढ़ी-चढ़ी “नाडीजंघा” नाम की निशाचरी से बहुत कुछ कहा और बताया – “कुबेर की जो “चित्रसेना” नाम की पत्नी है, वह एक दिन जब मानसरोवर के तट पर थी, तभी वहाँ से किसी ने उसे हर लिया. तुम इन्द्र आदि लोकपालों के भवनों में देखकर उसका पता लगाओ।”

तब वह निशाचरी मायामय स्त्री शरीर धारण कर इन्द्रादि देवताओं के भवनों में खोज करने के लिए शीघ्र ही स्वर्गलोक गई। उस निशाचरी ने ऐसा सुन्दर रूप बनाया था, जिसकी एक ही दृष्टि पड़ने से पत्थर भी मोहित हो सकता था। अवश्य ही उस समय वैसा मोहनी रूप चराचर जगत में कहीं नहीं था। इसी समय देवराज इन्द्र भी चित्रसेना के भेजने से उतावले हो कर नन्दन वन के दिव्य पुष्प लेने के लिए मन्दराचल से स्वर्ग लोक में आए थे। वहाँ अपने स्थान पर आई हुई उस अत्यंत रूपवती रमणी को जो मधुरगान गा रही थी, देख देवराज भी काम के वशीभूत हो गए। तब इन्द्र ने उसे जैसे भी हो , अपने अन्तःपुर में बुला लाने के लिए देव-वैद्य अश्वनी कुमारों को उसके पास भेजा।

दोनों अश्वनी कुमार उसके सामने जाकर खड़े हुए और कहने लगे-“ कृशांगी ! आओ, देवराज इन्द्र के निकट चलो।”

उन दोनों के द्वारा यों कहे जाने पर उस सुन्दरी ने मधुर वाणी में उत्तर दिया।

नाडीजंघा बोली- यदि देवराज इन्द्र स्वयं ही मेरे पास आयेंगे तो मैं उनकी बात मान सकती हूँ; अन्यथा बिलकुल नहीं।

तब अश्वनी कुमारों ने इन्द्र के पास जाकर उसका शुभ संदेश कहा।
तब इन्द्र स्वयं आकर बोले - कृशांगी ! आज्ञा दो! मैं इस समय तुम्हारा कौन सा कार्य करूँ ? मैं सदा के लिए तुम्हारा दास हो गया हूँ; तुम जो मांगोगी, वह सब दूँगा।

कृशांगी ने कहा - नाथ! यदि आप मेरी माँगी हुई वास्तु अवश्य दे देंगे तो निःसंदेह मैं आपकी वश में रहूँगी। आज आप अपनी समस्त भार्याओं को मुझे दिखाइए; देखूँ, आपकी कोई भी स्त्री मेरे रूप के सदृश्य है या नहीं?

उसके यों कहने पर इन्द्र ने पुनः कहा-“देवी! चलो, मैं तुम्हे अपनी समस्त भार्याओं को दिखाउँगा।”

यह कह कर इन्द्र ने उसी समय उसे अपना सारा अन्तःपुर दिखाया.

तब उस सुन्दरी ने पुनः कहा - “अभी मुझसे कुछ छुपाया गया है. केवल एक युवती को छोड़ कर और सब आपने दिखा दिया।”

इन्द्र ने कहा – “वह मन्दराचल पर है। देवता और असुर किसी को भी उसका पता नहीं है। मैं उसे भी तुम्हें दिखा दूँगा, परन्तु यह रहस्य किसी पर प्रकट न करना।”

यह कह कर देवराज इन्द्र उसके साथ आकाश मार्ग से मन्दराचल की ओर चले। जिस समय वे सूर्य के समान कान्तिमान विमान से चले जा रहे थे, उसी समय उन्हें आकाश में देवर्षि नारद का दर्शन हुआ।

नारद जी को देख कर वीरवर इन्द्र यद्यपि लज्जित हुए, तथापि उन्हें नमस्कार करके पूछा – “महामुने ! आप कहाँ जायेंगे ?”

तब मुनिवर नारद जी ने आशीर्वाद देते हुए स्वर्गाधिपति इन्द्र से कहा – “देवराज! आप सुखी हों, मैं इस समय मानसरोवर पर स्नान करने जा रहा हूँ।”

फिर उन्होंने नाडीजंघा को पहचान कर कहा - ”नाडीजंघे ! कहो तो महात्मा राक्षसों का कुशल तो है न ? तुम्हारे भाई विभीषण तो सुखपूर्वक हैं न?”

नारद जी की यह बात सुनते ही उसका मुख भय से काला पड़ गया।

देवराज इन्द्र भी बहुत आश्चर्य में पड़े और मन-ही-मन कहने लगे- “ इस दुष्ट ने मुझे छल लिया।”

नारद जी भी वहाँ से कैलाश पर्वत के निकट मानसरोवर में स्नान करने के लिए चले गए। तब इन्द्र भी उस राक्षसी का वध करने के लिए मन्दराचल पर जहाँ महात्मा तृणबिंदु का आश्रम था, आए और वहाँ थोड़ी देर विश्राम करके उस नाडीजंघा राक्षसी के केश पकड़ कर उसे मारना ही चाहते थे कि इतने में महात्मा तृणबिंदु अपने आश्रम से निकल कर वहाँ आ गए।

इधर इन्द्र के द्वारा पकड़ी जाने पर वह राक्षसी भी करुणा विलाप करने लगी- “हा! मैं मरी जा रही हूँ; इस समय कोई भी पुण्यात्मा पुरुष मुझ दीना को नहीं बचा रहा है।”

उसी समय महातपस्वी तृणबिन्दु मुनि वहाँ आ पहुँचे और इन्द्र के सामने खड़े हो बोले – “हमारे तपोवन में इस महिला को न मारो, छोड़ दो।”

तृणबिन्दु मुनि यों कह ही रहे थे कि महेन्द्र ने क्रुद्ध हो कर वज्र से उस राक्षसी को मार डाला।

तब मुनिवर इन्द्र की ओर बार-बार देखते हुए बहुत ही कुपित हुए और बोले – “रे दुष्ट! तुने मेरे तपोवन में इस युवती का वध किया है, इसलिए तू मेरे शाप से निश्चय ही स्त्री हो जाएगा।”
इन्द्र बोले – नाथ! मैं देवताओं का स्वामी इन्द्र हूँ और यह स्त्री महादुष्टा राक्षसी थी, इसलिए मैंने इसका वध किया है। आप इस समय शाप न दें।

मुनि बोले – अवश्य ही मेरे तपोवन में भी दुष्ट और साधु पुरुष भी रहते हैं, परन्तु वे मेरे तपोवन के प्रभाव से परस्पर किसी का वध नहीं करते। तू ने मेरे तपोवन की मर्यादा भंग की है, अतः तू शाप के योग्य है।

मुनि के यों कहने पर इन्द्र निःसंदेह स्त्री योनि को प्राप्त हो गए और पराक्रम तथा शक्ति खोकर स्वर्ग को लौट आए। उन्होंने सदा ही लज्जा और दुःख से खिन्न रहने के कारण देवताओं की सभा में बैठना छोड़ दिया। इधर देवता भी इन्द्र के स्त्री के रूप में परवर्तित हुआ देख कर बहुत दुःखी हुए। तत्पश्चात सभी देवता, दुखी शची और इन्द्र को साथ लेकर ब्रह्मा जी के धाम को गए।

जब तक ब्रहमा जी समाधि से विरत हुए, तब तक वे सभी वहीँ ठहरे रहे और इन्द्र के साथ ही सब देवता ब्रह्मा जी से बोले -“ब्रह्मन! सुरराज इन्द्र तृणबिन्दु मुनि के शाप से स्त्री योनि को प्राप्त हो गए हैं; वे मुनि बड़े क्रोधी हैं, किसी प्रकार अनुग्रह नहीं करते।”

ब्रह्मा जी बोले – इसमें उस महात्मा तृणबिन्दु मुनि का कोई अपराध नहीं है।  इन्द्र स्त्रीवध  रूपी अपने ही कर्म से स्त्रीभाव को प्राप्त हुए हैं। देवताओं ! देवराज इन्द्र ने भी मदमत्त होकर बड़ा ही अन्याय किया है, जो कुबेर की पत्नी चित्रसेना का गुप्त अपहरण कर लिया। यही नहीं, इन्होंने तृणबिन्दु  के तपोवन में एक युवती का वध किया है, अतः अपने इस निन्द्य कर्म के परिणाम स्वरुप ही ये इन्द्र स्त्रीभाव को प्राप्त हुए हैं।

देवगण बोले – नाथ! इन्होंने दुर्बुद्धि से प्रेरित होकर शंकरप्रिय कुबेर का अपमान किया है, उसके लिए हम सब लोग शची के साथ कुबेर को प्रसन्न करने का यत्न करेंगे। विभो! कुबेर की पत्नी मन्दराचल पर गुप्त रूप से रहती है, हम सभी लोग सम्मति करके उसे कुबेर को अर्पित कर देंगे। देवराज इन्द्र भी प्रति त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को नन्दन वन में शची को साथ लेकर यक्ष और राक्षसों की पूजा करेंगे।
तत्पश्चात शची अपने प्रियतम को कष्ट में डालने वाली चित्रसेना को गुप्तरूप से ले जाकर यक्षराज कुबेर के भवन में छोड़ आयीं।

इसी समय कुबेर का दूत असमय में ही लंका में पहुँचा और कुबेर से चित्रसेना के लौट आने का समाचार सुनाया – “हे धनाधिप ! आपकी प्रिय पत्नी चित्रसेना शची के साथ घर लौट आई है। वह शची जैसी अनुपम सखी को पा कर कृतार्थ हो चुकी है।”

तब कुबेर भी कृतकृत्य होकर अपने घर को लौट आए.इसके बाद देवगण पुनः ब्रह्मलोक में जा कर ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे।

देवगण बोले- ब्रह्मण !आपके कृपा से यह सारा काम तो हो गया, इसमें संदेह नहीं। परन्तु अब जैसे पति के बिना नारी, सेनापति के बिना सेना और कृष्ण के बिना व्रज की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार इन्द्र के बिना अमरावती सुशोभित नहीं होती। प्रभो! अब इन्द्र के लिए जप, क्रिया, तप, दान, ज्ञान और तीर्थ-सेवन आदि उपाय बताइए , जिससे स्त्रीभाव से इनका उद्धार हो सके। 
ब्रह्मा जी बोले – उस मुनि के शाप को अन्यथा करने में न तो मैं समर्थ हूँ और न भगवान् शंकर ही। इसके लिए एक मात्र भगवान् विष्णु के पूजन को छोड़ कर दूसरा कोई उपाय सफल नहीं दिख पड़ता। बस, इन्द्र अष्टाक्षर मन्त्र के द्वारा भगवान् विष्णु का विधिपूर्वक पूजन करें और उस मन्त्र का जाप करते रहें ; इससे वे स्त्रीभाव से मुक्त हो सकते हैं। इन्द्र! स्नान करके, श्रद्धायुक्त हो, आत्मशुद्धि के लिए एकाग्रचित से “ॐ नमो नारायणाय” मन्त्र का जाप करो। देवेन्द्र ! इस मन्त्र का दो लाख जप हो जाने पर तुम स्त्री-योनि से मुक्त हो सकते हो।

यह सुनकर इन्द्र ने ब्रह्मा जी की आज्ञा का यथावत पालन किया, तब वे भगवान् विष्णु की कृपा से स्त्रीभाव से छुटकारा पा गए। 

( सद्धर्म [सं-पु.] - उत्तम धर्म; उत्तम कर्म मानवता के लिहाज़ से जो करणीय हो ऐसा कर्तव्य।। )


गीता प्रेस के "श्रीनरसिंह पुराण" से साभार।


     







Wednesday, February 22, 2017

समरथ के नहीं दोष गोसाई - भाग -1

समरथ के नहीं दोष गोसाई 


“समरथ के नहीं दोष गोसाई” गोस्वामी तुलसीदास जी ने किस मंशा से यह दोहा लिखा और इसका अर्थ क्या है इस विवाद में मैं नहीं पड़ने जा रहा और ना ही ये मेरा विषय-वस्तु है। परन्तु हाँ! मेरा पूरा यकीन है कि समर्थ लोगों में कोई दोष नहीं होता है, होगा भी कैसे? हम जैसे लोग उनके कीर्ति बखान करने के लिए जो बैठे हैं। इनका दोष हमें तब दिखाई या सुनाई पड़ता है जब इनके समकक्षी या इनसे बड़ा समर्थवान अपने हित के लिए इन पर दोषारोपण लगाता है और इनके बड़े-से-बड़े अपराध की सजा बहुत ही छोटी होती है क्योंकि तंत्र के हमाम में ये सभी नंगे होते हैं। 

आज के लोकतंत्र में तो हमसभी अपने-आप को किसी न किसी स्तर के समर्थवान समझते हैं, परन्तु जिन लोगों से तंत्र प्रभावित हो वैसे ही समर्थ लोगों में कोई दोष नहीं होता है।  भारत में तंत्र को प्रभावित करने वाले समर्थवानों की संख्या अनगिनत है और इनके द्वारा किए गए अपराधों की फ़ेहरिस्त भी बड़ी लम्बी है और इन अपराधों का हश्र क्या होता है ये आप सब सुधि पाठकजन को मुझे बताने की जरूरत नहीं है। 

मेरा मानना है कि आमलोगों की इज्जत तब ही तक सलामत है जब तक किसी समर्थवान की बुरी नज़र उनकी इज्जत पर ना पड़ी हो। 

इसी तथ्य को उजागर करती श्रीनरसिंह पुराण की एक कथा आपके साथ साँझा करने जा रहा हूँ।  
भाग -1

सब प्रकार के भोगों को भोगने के बाद देवराज इन्द्र को मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हुआ। वे सोचने लगे – “यह निश्चित है कि वैरागी ह्रदय वाले मानव की दृष्टि में स्वर्ग के  राज्य का भी कोई महत्व नहीं होता और सत्ता का सुख विषयों के भोग में निहित है तथा भोग के अंत में कुछ भी नहीं रह जाता। यही सोच कर ज्ञानी जन सदा ही मोक्ष की प्राप्ति  के विषय में ही विचार करते हैं। सामान्य जन सदा भोग के लिए ही तप करते है और भोग के अंत में तप भी नष्ट हो जाता है। परन्तु जो लोग किसी कारण से विषय-भोग से विमुख हो मोक्षाधिकारी हो गए हैं, उन मोक्षभागी पुरुषों को न तप की आवश्यकता होती है न योग की। ”

ऐसा सोच कर ह्रदय में एक मात्र मोक्ष की कामना लिए देवराज इन्द्र क्षुद्रघंटिकाओं की ध्वनि से युक्त विमान पर आरूढ़ हो भगवान् शंकर की आराधना के लिए कैलाश पर्वत पर चले आए। एक दिन देवराज इन्द्र बिना किसी उद्देश्य के कैलाश पर्वत पर भ्रमण करते हुए मानसरोवर पहुँचे।  मानसरोवर के तट पर उन्होंने यक्षराज कुबेर की पत्नी  चित्रसेना को पार्वती जी का अराधना करते हुए देखा, उसकी काया  अनंग (कामदेव) के रथ की फहराती ध्वजा सी जान पड़ती थी . उसके अंग प्रसिद्ध “जम्बूनद” नामक सुवर्ण जैसी प्रभा बिखेर रही थी . उसके कटीले नयन मनोहर थीं, जो कानों के पास तक पहुँच गई थी. महीन वस्त्रों के भीतर से उसके मनोहर अंग इस प्रकार झलक रहे थे, मानो निहारिका के भीतर से चन्द्रलेखा दिख रही हो। इन्द्र ने अपने हज़ार नेत्रों से उस देवी को मुग्ध होकर निहारते रहे। वे उस स्त्री को देख इतने काम आसक्त हो गए कि दूर अपने आश्रम जाने का ख्याल ही नहीं रहा और देवराज इन्द्र विषयाभिलाषी होकर वहीँ खड़े हो गए। वे सोचने लगे – “पहले सर्वांग-सौन्दर्य के साथ उत्तम कुल में जन्म पा जाना ही बड़ी बात है, और उस पर भी धन तो सर्वथा ही दुर्लभ है। इन सब के बाद धनाधिप होना तो पुण्य से ही संभव है. स्वर्गलोक पर मेरा आधिपत्य है, फिर भी मेरे भाग्य में भोग भोगना नहीं है, इसलिए मेरे चित्त में मुक्ति की इच्छा उत्पन्न हुई। मोक्ष-सुख तो इस राज्य-भोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु क्या मोक्ष भी राज्य प्राप्ति का कारण हो सकता है? भला कोई अपने द्वार पर पके अन्न को छोड़ कर कोई जंगल में खेती करने क्यों जाएगा? जो सांसारिक दुःख से मारे-मारे फिरते हैं और कुछ भी करने की शक्ति नहीं रखते, वे अकर्मण्य, भाग्यहीन एवं मूढ़जन मोक्षमार्ग की इच्छा करते हैं। ”

बार-बार ऐसा विचार करके इन्द्र धनाधिप की पत्नी चित्रसेन के रूप पर मोहित हो गए। काम-वेदना से व्याकुल वे मानसिक धैर्य खो कर कामदेव का स्मरण करने लगे। इन्द्र के स्मरण करने पर अत्यंत कामनाओं से व्याप्त चित्तवृतिवाला कामदेव बहुत धीरे-धीरे डरता हुआ वहाँ आया, क्योंकि वहीँ पूर्वकाल में शंकर जी ने उसके शरीर को जला कर भस्म कर दिया था. जब किसी स्थान पर प्राण संकट में हो तो धीरतापूर्वक और निर्भय हो कर वहाँ कौन जा सकता है?

कामदेव ने आकर कहा – कौन आपका शत्रु बना हुआ है? शीघ्र आदेश दे विलम्ब ना करे, मैं अभी उसे आपत्ति में डालता हूँ।”

उस समय कामदेव के उस मनोभिराम वचन को सुन कर मन-ही-मन उस पर विचार कर के इन्द्र बहुत संतुष्ट हुए. अपने मनोरथ को सहसा सिद्ध होते जान वीरवर इन्द्र ने हँस कर कहा- “कामदेव! अनंग बन जाने पर भी तुम ने जब शंकर जी को भी आधे शरीर का बना दिया, तब संसार में दूसरा कौन तुम्हारे घात को सह सकता है? अनंग! जो गिरिजा पूजन में एकाग्रचित होने पर भी मेरे मन को आकर्षित कर रही है, उस विशाल नयनों वाली सुंदरी को तुम तुम एकमात्र मेरे अंग-संग की सरस भावना से युक्त कर दो।”
सुरराज इन्द्र के यों कहने पर उत्तम बुद्धि वाले कामदेव ने भी अपने पुष्पमय धनुष पर बाण रख कर मोहन मन्त्र का स्मरण किया। तब कामदेव द्वारा पुष्प-बाण से मोहित की हुई चन्द्रसेना काम के मद से विह्वल हो गई और पूजा छोड़ इन्द्र की ओर देख कर मुस्काने लगी. भला, कामदेव के धनुष की टंकार को कौन सह सकता है। इन्द्र उसको अपनी ओर आतुरता से देखने के कारण बोले – “चंचल नेत्रों वाली बाले! तुम कौन हो, जो पुरुषों के मन को इस प्रकार मोहे लेती हो? बताओ तो, तुम किस पुण्यात्मा की पत्नी हो?” इन्द्र के इस प्रकार पूछने पर उसके अंग काम-मद से विह्वल हो उठे। शरीर में रोमांच, स्वेद और कम्प होने लगे। वह कामबाण से व्याकुल हो गद्गद कंठ से धीरे-धीरे इस प्रकार बोली – “नाथ ! मैं धनाधिप कुबेर की पत्नी एक यक्ष-कन्या हूँ। पार्वती जी के चरणों की पूजा करने के लिए यहाँ आई थी। आप अपना कार्य बताइये; आप कौन हैं? जो साक्षात् कामदेव के समान रूप धारण किये यहाँ खड़े हैं?”

इन्द्र बोले –प्रिये! मैं स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ। तुम मेरे पास आओ और मुझे अपनाओ तथा चिरकाल तक मेरे अंग-संग रहने का शीघ्र ही अपनी सहमति दो, नहीं तो तुम्हारे बिना मेरा यह जीवन और स्वर्ग का विशाल राज्य भी व्यर्थ जाएगा। 

इन्द्र ने मधुर वाणी में जब इस प्रकार कहा, तब उसका सुन्दर शरीर कामवेदना से पीड़ित होने लगा और वह फहराती हुई पताकाओं से सुशोभित विमान पर आरूढ़ हो देवराज इन्द्र के कंठ से लग गई। तब स्वर्ग के राजा इन्द्र शीघ्र ही उसके साथ मन्दराचल की उन कंदराओं में चले गए, जहाँ का मार्ग देवता और असुर दोनों के लिए अभी तक अज्ञात था और जो रत्नों की प्रभा से प्रकाशित थी। आश्चर्य है कि देवताओं के राज्य के प्रति आदर न रखते हुए भी उदार पराकर्मी इन्द्र उस सुन्दर यक्ष-बाला के साथ वहाँ रमण करने लगे तथा काम के वशीभूत हो परम चतुर इन्द्र ने अपने हाथों से चित्रसेना के लिए शीघ्रतापूर्वक छोटी सी पुष्प शय्या तैयार की। कामोपभोग में चतुर देवराज इन्द्र चित्रसेना के समागम के स्वप्नमात्र से कृतार्थ का अनुभव करने लगे। स्नेहरस से अत्यंत मधुर प्रतीत होने वाला वह परस्त्री के आलिंगन और समागम का सुख उन्हें मोक्ष से भी बढ़ कर लगा। 


(कामदेव को अनंग भी कहा जाता है।
शची, इन्द्र की पत्नी हैं। )

क्रमशः  (शेष अगले भाग में )

गीता प्रेस के "श्रीनरसिंह पुराण" से साभार।

भाग - 2 (अंतिम भाग ) पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-

http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/02/2.html