विश्व
का पहला गणराज्य लिच्छवि की राजधानी वैशाली के वैभवशाली इतिहास को कौन नहीं
जानता है। इस
स्थान का संबंध महात्मा बुद्ध,
भगवान महावीर, चन्द्रगुप्त
प्रथम, वैशाली की नगरवधू या राज नर्तकी आदि
से है। भारत के
वृज्जि गणराज्य की वैशाली
नगरी के निकट कुण्डग्राम में
पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला
के यहाँ 599 ई. पूर्व
जैन तीर्थंकर महावीर का जन्म
हुआ। वैशाली,
मेरे गृह नगर
मुजफ्फरपुर से महज़ 32 कि.मी.
एवं पटना से 60 कि. मी. पर स्थित है। अतः हमलोग
दोपहर का खाना खाकर निजी वाहन
से वैशाली दर्शन के लिए निकल
पड़े। जापान
सरकार के सहयोग से निर्मित
सड़कों पर सफ़र आरामदायक रहा
परन्तु जून की गर्मी ने स्थानीय
भ्रमण को थोडा कष्टकारक बना
रहा था। हमलोगों
का पहला पड़ाव निप्पोंजान
म्योहोजी और राजगीर बुद्ध
विहार सोसाईटी के सहयोग से
बनी विश्व शांति स्तूप था। यह सुबह 7
बजे से शाम 5
बजे तक खुला
रहता है। शांत
वातावरण और सुंदर बागवानी के
बीच बना शांति स्तूप वाकई
शांति का संदेश देता प्रतीत
हो रहा था। द्वितीय
विश्व-युद्ध
के अंतिम चरण में जापान के
हिरोशिमा और नागासाकी शहरों
पर परमाणु बम के हमलों से आहत
हो प्रेम और शांति का उपदेश
देने हेतु विश्व-शांति
के प्रवर्तक एवं निप्पोंजान
म्योहोजीके अध्यक्ष निचिदात्सु
फुजीई गुरूजी ने सद्धर्भ
पुण्डरीक सूत्र (लोटस
सूत्र) कि
शिक्षा के अनुरूप पुरे विश्व
में विश्व-शांति
स्तूप का निर्माण करवाया। इन्हीं के 99
वें जन्मदिवस
के शुभ अवसर पर 20 अक्टूबर
1983 को
वैशाली के इस विश्व-शांति
स्तूप का शिलान्यास हुआ। गौतम बुद्ध
के अवशेषों को स्तूप के नींव
एवं कंगूरे को सुशोभित किया
गया। बुद्ध
की चार प्रतिमायें और कंगूरा
का निर्माण पूरी के सुदर्शन
साह (पदम
श्री) एवं
धर्म-चक्र
एवं शेरों का निर्माण पटना
के श्री लक्ष्मी पंडित ने
फाईबर ग्लास से किया एवं उस
पर सोने कि पालिश की हुई है।
शांति
स्तूप के बगल में निप्पोंजान
म्योहोजी (जापानी
बुद्ध मंदिर) का
दर्शन कर पुरातत्व संग्रहालय,
वैशाली घूमने
गए. यह
वैशाली के प्राचीन टीलों के
उत्खनन् से प्राप्त पुरावशेषों
का संग्रह है। यहाँ
छठी शताब्दी ई.पू.
से बारहवीं
शताब्दी ई.पू.
की प्रस्तर
प्रतिमायें, मृण्मय
मानव एवं पशु-पक्षी
की आकृतियाँ, हाथी
दांत, अस्थि
और सीप की बनी वस्तुएं,
आभूषण,
मुद्रायें
एवं मुद्रा छाप, रजत
एवं कांस्य के पिटे और ढले
सिक्के प्रदर्शित हैं.
यहाँ से
विश्व-शांति
स्तूप बहुत ही मनमोहक लगता है।
इसके
बाद हमलोग उत्खनित अवशेष,
कोल्हुआ गए। इसके परिसर
में प्रवेश करते ही अपने आप
को इतिहास में मौजूद होने का
आभास मिलता है। इस
स्थल को सुंदर पार्क में तब्दील
कर दिया गया है. यहाँ
पर भगवान बुद्ध ने अनेक वर्षावास
व्यतीत किए। भगवान
बुद्ध ने आखरी धर्मौपदेश यही
पर दिया और तीन महीने पूर्व अपने
शीघ्र संभावित परिनिर्वाण
की घोषणा भी यहीं पर की। भगवान बुद्ध
ने यहीं पर पहली बार भिक्षुणियों
को संघ में प्रवेश की अनुमति
दी एवं वैशाली की अभिमानी
राजनर्तकी आम्रपाली को एक
विनम्र भिक्षुणी में परिवर्तित
किया। भगवान
बुद्ध के जीवन में आठ अनोखी
घटनाओं में से बंदरों द्वारा
बुद्ध को मधु अर्पण यहीं पर
घटित हुई थी और यहाँ का मुख्य
स्तूप इसी घटना का प्रतीक है। ईटों से निर्मित
यह स्तूप मूलतः मौर्य काल का
है। उत्खननों
के परिणाम स्वरुप कूटागारशाला,
स्वस्तिकाकार
विहार, पक्का
जलाशय, बहुसंख्य
मनौती स्तूप एवं लघु मंदिर
प्रकाश में आए। इसके
अतिरिक्त आंशिक रूप से दबे
अशोक स्तम्भ एवं मुख्य स्तूप
के अधोभाग को भी अनावृत किया
गया। सम्राट
अशोक द्वारा बनाए गए प्रारंभिक
स्तंभों में से एक जिस पर उनका
कोई अभिलेख नहीं है, बलुए
पत्थर का लगभग 11 मी.
ऊँचा चमकदार
एक एकाश्मक स्तम्भ है.
जिसके शीर्ष
पर एक सिंह सुशोभित है। कूटागारशाला
में बुद्ध के वर्षावास के
दौरान प्रवास करते थे। स्वस्तिकाकार
विहार संभवतः भिक्षुणियों
के लिए बनाया गया था। इसमें
शौचालय का भी प्रावधान था। सर
अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861-62
में चीनी उल्लेख
के आधार पर सीमित उत्खनन् से
मिले साक्ष्यों से प्राचीन
वैशाली की पहचान की। विगत
वर्षों में पुरातत्ववेत्ताओं
द्वारा अवशेषों के आधार पर
एतिहासिक गाथाओं में वर्णित
महान परम्पराओं से परिपूर्ण
छठी शताब्दी ई.पू.
लिच्छवी गणराज्य
की राजधानी वैशाली थी। चौबीसवें जैन
तीर्थकर भगवान महावीर की जन्म-स्थली
भी वैशाली ही है। चौथी
शताब्दी ई. के
प्रारंभ में लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी का विवाह चन्द्रगुप्त
प्रथम से हुआ। गुप्त
साम्राज्य के पतन के साथ-साथ
वैशाली का वैभव समाप्त हो गया।
No comments:
Post a Comment
मेरे पोस्ट के प्रति आपकी राय मेरे लिए अनमोल है, टिप्पणी अवश्य करें!- आपका राकेश श्रीवास्तव 'राही'