|
चित्र इन्टरनेट से साभार |
संवेदनहीनता
वहाँ
का मंजर,
जब से
देखा है,
आँखों
में समुन्दर का,
बोझ लिए
चलता हूँ।
कभी देखा है उनके आसुओं को,
जो कभी
छलके ही नहीं।
कभी सुना है उनके चीखों को,
जो कभी
निकले ही नहीं।
जिसका
जीने का मकसद,
एक निवाला
हो।
न तन पे
कपड़ा,
न रहने
का ठिकाना हो।
ऐसी
स्थिति में,
किसी
को देख कर,
मानवीय संवेदनाएं,
सहानुभूति
जगाती हैं,
पर स्वार्थ की चादर ओढ़,
ज़िन्दगी
आगे निकल जाती है।
संवेदनहीनता
की आग में,
आँखों
का समुन्दर सूख गया,
मस्त
हूँ अपनी ज़िन्दगी में,
जब से
वो मंजर पीछे छूट गया.
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव
No comments:
Post a Comment
मेरे पोस्ट के प्रति आपकी राय मेरे लिए अनमोल है, टिप्पणी अवश्य करें!- आपका राकेश श्रीवास्तव 'राही'