दीनानाथ जी की बहू को आए दिन भूत चढ़ जाता, जिसके कारण दीनानाथ एवं उनकी पत्नी बहुत परेशान रहते। बहुत टोना-टोटका करवाया, पीर-फक़ीर और दरगाह के गंडे-ताबीज़ भी बहू के गले एवं बाजुओं में बंधवाये, परन्तु बहू की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। थक हार कर दीनानाथ जी दुसरे गाँव के ओझा के पास अपने बहू को ले कर गए।
ओझा ने दीनानाथ जी को कहा – “बहू का भूत झाड़ कर आता हूँ तब तक आप बाहर बैठिए।”
ओझा जी ने बंद कमरे में बहू से पूछा – “सच-सच बताओ! क्या बात है? मैं तुम्हारे गाँव का भी नहीं हूँ और ना ही मैं तुम्हारे गाँव के किसी व्यक्ति को जानता हूँ।”
इतना सुनकर बहू आश्वस्त हो कर बोली – “ओझा जी ! मेरा परिवार बड़ा है और घर में सास, ननद और जेठानियाँ है पर काम में कोई हाथ नहीं बटाता है।”
इतना सुनकर ओझा जी बाहर आकर दीनानाथ जी को कहा – “दीनानाथ जी आपकी बहू का भूत उतार दिया है, बस ख्याल रखें कि बहू, आग एवं पानी में ज्यादा समय ना बिताएं।
अब दीनानाथ जी के यहाँ खुशहाली है क्योंकि उनके घर की सारी औरतें मिल-जुल कर काम करती हैं।
* पढ़िए मेरी एक कहानी वाक्यांश – "इच्छा-मृत्यु"।
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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