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Wednesday, April 26, 2017

ख्वाहिश


ख्वाहिश

चंद साँसों का ये सफ़र, जो मुझको मिला,
किसी को न मिले ये सफ़र , जो मुझको मिला।

गुनगुनाने की चाह अपने घर में और,
रोने को एक कोना भी न मुझको मिला ।

कई   हसीं सपनें   देखे   मैंने भी  और ,
सच करने का आसरा न, सपनों को मिला।

मातम फैला रहता  मेरे घर में  औ',
महफ़िल-ए-रंग  जमाता, मैं सब को मिला।

सुकून ढूंढ़ने  लगा बेगानों में और,
खुल कर हँसने का मौका ना, मुझको मिला।

रूह भटक रही , अपने ही घर में  "राही ",
मुर्दा हूँ,  सुपुर्द-ए-खाक न ,मुझको मिला।


©  राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही" 





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