ख्वाहिश
चंद साँसों का ये सफ़र, जो मुझको मिला,
किसी को न मिले ये सफ़र , जो मुझको मिला।
गुनगुनाने की चाह अपने घर में और,
रोने को एक कोना भी न मुझको मिला ।
कई हसीं सपनें देखे मैंने भी और ,
सच करने का आसरा न, सपनों को मिला।
मातम फैला रहता मेरे घर में औ',
महफ़िल-ए-रंग जमाता, मैं सब को मिला।
सुकून ढूंढ़ने लगा बेगानों में और,
खुल कर हँसने का मौका ना, मुझको मिला।
रूह भटक रही , अपने ही घर में "राही ",
मुर्दा हूँ, सुपुर्द-ए-खाक न ,मुझको मिला।
© राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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