हुसैनीवाला बॉर्डर, फिरोज़पुर
रिट्रीट समारोह को मैंने पहली बार बाघा बार्डर पर देखा था। क्या माहौल था ? सूर्यास्त से पहले वहाँ उपस्थित सभी भारतीय आम नागरिक एवं सैनिक के दिलों में देश-भक्ति का जज़्बा भरा हुआ था और ये जज़्बा अपने चरम पर तब पहुँच गया जब भारत माता की जय-घोष का कमान माइक द्वारा एक सैनिक ने संभाली। उस सैनिक उद्घोषक के जोश पूर्ण आह्वान एवं उसके खास भाव-भंगिमा के साथ उद्घोष ने वहाँ उपस्थित जवानों, बुजुर्गों, महिलाओं एवं बच्चों में देशप्रेम की भावना रग-रग में भर दिया . वहाँ उपस्थित सभी दर्शकों के “भारत माता की जय” की उद्घोष के कारण वहाँ के फ़िजाओं में राष्ट्र-प्रेम की स्वर-लहरी गूंज रही थी, परन्तु अब अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिलने से बाघा बॉर्डर पर भारी भीड़ रहती है। जिसके कारण दर्शक दीर्घा बड़ा कर दिया गया है। दर्शक दीर्घा बड़ा होने के कारण बहुत से लोगों को रिट्रीट समारोह ठीक से नहीं दिखता और खास कर बुजुर्गों, महिलाओं एवं बच्चों को परेशानी होती है।
जब मैंने इस परेशानी की चर्चा अपने मित्रों से की, तो एक मित्र ने मुझे हुसैनीवाला बॉर्डर, फिरोज़पुर के बारे में बताया कि यहाँ पर भी रिट्रीट समारोह होता है, तो मैंने अपने कुछ मित्रों के साथ वहाँ जाने का कार्यक्रम बनाया। फिरोज़पुर कैंट रेलवे स्टेशन से लगभग 12 कि.मी. दुरी पर है हुसैनीवाला बॉर्डर।
हमलोग ट्रेन से सुबह 11:30 बजे फिरोज़पुर कैंट पहुँच गए और खाना खा कर स्टेशन के बाहर से कार भाड़े पर लेकर, सबसे पहले हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीदी स्मारक स्थल पहुँचे। यह स्मारक पाकिस्तान से लगने वाली सीमा से मात्र एक किलोमीटर पर है। यहाँ पर शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का समाधि स्थल है।
दरअसल देश के विभाजन के वक्त यह अंत्येष्टि स्थल पाकिस्तान में चला गया था और यह स्थल सन् 1962 के पहले तक पाकिस्तान के अधीन था, परन्तु पकिस्तान सरकार ने भारत के इन महान शहीदों, जो दोनों देशों के आजादी के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया, की स्मृति स्थल को सहेजने तक की परवाह नहीं की। तब 1962 में भारत सरकार के पहल पर, जब भारत ने पाकिस्तान को हेड सुलेमानकी (फाजिल्का) के पास 12 गांवों को दे दी तब यह क्षेत्र भारत के अधीन हुआ। यहाँ 23 मार्च, 1968 को शहीदी समाधी स्थल बना । लेकिन भाग्य की विडंबना है कि सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान सेना ने शहीदों की प्रतिमाओं को अपने कब्जे में ले लिया और आज तक वापस नहीं किया है। देश के पूर्व राष्ट्रपति एवं पंजाब के तत्कालीन सीएम ज्ञानी जैल सिंह ने 1973 में इस स्मारक को फिर से विकसित करवाया।
यहाँ पर बटुकेश्वर दत्त एवं भगत सिंह की माँ विद्यावती का अन्तिम संस्कार भी किया गया।
शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जी को 23 मार्च 1931 को शाम 7:15 लाहौर जेल में फांसी दी गई। लाहौर में दंगा ना भड़क जाए, इसलिए अंग्रेजों ने जेल का पिछला दीवार तोड़ कर ट्रेन द्वारा हुसैनीवाला लाकर अंतिम संस्कार कर ही रहे थे, तभी आज़ादी के परवानों के पहुँचने की खबर एवं उनके इंक़लाबी शोर को सुन कर, डर के मारे अंग्रेजों ने अधजला शव को वहाँ से उठा कर सतलज नदी में प्रवाहित कर दिया। भारत -पाक युद्ध के दौरान यह स्थल बुरी तरह से नष्ट हो गया, परन्तु रेलवे के कुछ अवशेष अभी भी यहाँ मौजूद है। इस पावन धरती को चूम कर मैं धन्य हो रहा था।
यहाँ से लगभग 1 कि.मी. की दूरी पर हुसैनीवाला बॉर्डर का प्रवेश द्वार शान-ए-हिन्द है जो 42 फुट लम्बा एवं 91 फुट चौड़ा और 56 फुट ऊँचा है। यह पकिस्तान के बनाए 30 फुट ऊँचे फ़ख्र-ए-पाक के जवाब में बनाया गया हैं। हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीदी स्मारक से हुसैनीवाला बॉर्डर तक पैदल चलना पड़ता है।
शान-ए-हिन्द
जैसा की मैंने पहले बाघा बॉर्डर का विवरण दिया उसके उलट यहाँ के फ़िजाओं में देश-भक्ति के गीत तो गूंज रहे थे, परन्तु माहौल बहुत शांतिपूर्ण था। दोस्ताना माहौल में कदम-ताल एवं झंडा उतारने का लगभग 40 मिनट का समारोह संपन्न हुआ। हिन्दुस्तान एवं पाकिस्तान का दर्शक-दीर्घा आमने-सामने है और दोनों के बीच मात्र एक सड़क है जिस पर रिट्रीट समारोह होता है। इतने नजदीक से पाकिस्तानियों के सामने बैठ कर रिट्रीट समारोह देखने का अनुभव अनोखा था। ज्यादातर दर्शक स्थानीय ग्रामीण परिवेश के थे। फिरोज़पुर से हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीदी स्मारक तक के सड़क की हालत खास्ता होने एवं व्यापक प्रचार ना होने के कारण पर्यटकों की संख्या नगण्य थी, परन्तु देश-भक्ति की जज़्बा इस धरती पर कदम पड़ते ही स्वतः दिल में उमड़ पड़ती है।
देखें कुछ और तस्वीर :
यहाँ पहले रेलवे ट्रैक था।
यहाँ पहले रेलवे पुल था।
फिरोज़पुर रेलवे स्टेशन के पास स्टीम रोड रोलर
फिरोज़पुर रेलवे प्लेटफार्म का नज़ारा
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"