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Thursday, January 26, 2017

गिरगिट












         

             गिरगिट 

पहचान कर भी, मुझसे वे अनजान बनते हैं,
मतलब निकल पड़े तो, मुझे भाईजान कहते हैं,
जानता हूँ इस तरह के लोगों को बहुत ख़ूब
रंग बदलने ये गिरगिट को भी शर्मसार करते हैं। 

जो माँ-बाप की इज्जत करना, नहीं थे जानते,
ख़ुद बुजुर्ग हुए तो, बेटों को भेजते हैं लानतें,
ऐसे ही लोगों से परेशान हैं, हमारा ये समाज
रंग बदलने में गिरगिट को गुरु, हैं ये मानते। 

विश्वास करके जिसने, इनको इज्जत सौंप दी,
उसकी आबरू लूट कर सड़कों पर छोड़ दी,
ऐसे ही लोगों के कारण बदनाम है पुरुष 
रंग बदलने में इन्होंने गिरगिट को भी मात दी। 

सभी गलत काम करते हैं वो चुपचाप से,
इमानदारी का पाठ ये पढ़ाते हैं शान से,
ऐसे ही लोगों के कारण ये देश शर्मसार है 
रंग बदलते हैं गिरगिट की तरह बड़े आराम से। 

सफ़ेद कपड़े पहन कर सफ़ेद झूठ बोलते हैं ये,
धर्म और जाति के नाम पर देश को बाँटते हैं ये,
ये अगर सही हों तो देश में अमन-चैन हो
रंग बदलने में गिरगिट के रिश्तेदार लगते हैं ये। 

आओ ऐसे लोगों को उनको हम औकात दिखाएँ,
करें ये कितना भी जतन इनके झांसे में ना आएं,
कर्मठ और ईमानदार उम्मीदवार का हम करें चुनाव,
रंग बदले जो गिरगिट जैसा, उनको हम सबक सिखाएं। 


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, January 19, 2017

फ़तेहपुर सीकरी एवं सिकंदरा की यात्रा-वृतांत

बुलंद दरवाज़ा के अंदर का पैनोरोमीक व्यू (बड़ा देखने के लिए फोटो पर क्लिक करें। ) 
      




फ़तेहपुर सीकरी एवं सिकंदरा की यात्रा-वृतांत

जुलाई के महीने में दिल्ली और आगरा की यात्रा के नाम से अच्छे-अच्छों को पसीने छूटने लगते है। परन्तु घुम्मकरों को इससे क्या मतलब पसीना छूटे तो छूटे यात्रा का मौका नहीं छूटना चाहिए। तो हुआ यूँ कि मेरी छोटी बहन के ससुराल वालों ने एक कार्यक्रम में दिल्ली बुलाया। मैं  भी छोटी बहन से मिलने का प्रोग्राम बनाने का सोच ही रहा था। लेकिन हम भारतीय "एक पंथ दो काज" में विश्वास रखते है। अतः इसी बहाने मैंने अपने आगरा वाले चाचा जी से मिलने का भी प्रोग्राम बना लिया। तो तय प्रोग्राम के तहत हमलोग 24 जुलाई को रात में मेहरबाग़  (दयालबाग़, आगरा) पहुंचे। मेरे पास समय कम था इसलिए रात के खाने के समय ही चाचा जी ने आदेश सुना दिया कि कल हम सब को फ़तेहपुर सीकरी एवं सिकंदरा की यात्रा के लिए रवाना होना है क्योंकि 26 जुलाई की शाम को ताज़ एक्सप्रेस से हमें दिल्ली भी जाना था। 


सुबह हमलोग नाश्ता करने के बाद फ़तेहपुर सीकरी के लिए रवाना हो गए। आगरा शहर से निकलते ही शांत-वातावरण मिलने पर थोड़ी राहत मिली और हमलोगों को लगभग 45 मिनट के बाद फ़तेहपुर सीकरी का प्रवेश द्वार आगरा गेट का दर्शन हुआ। आज भी आगरा गेट अपने मुगलिया अंदाज़ में बड़े शानों-शौकत के साथ खड़ा है और पर्यटकों का स्वागत शाही अंदाज़ में करता है। 













(आगरा गेट )

इसके अंदर प्रवेश करते ही मुग़ल साम्राज्य के राजधानी की कहानी को बयां करती खंडहरों से रु--रु होते हुए हमलोग टैक्सी स्टैंड पहुँचे। यहाँ पर लोकल गाईड ने घेर लिया और कहा कि यहाँ से बस भी जाती है, जो की थोड़ी दूर पर है और जब तक बस भर नहीं जाती तब तक इंतज़ार करना पड़ेगा। अतः उसकी सलाह पर ऑटो से बुलंद दरवाजा तक जाने के लिए चले।बुलंद दरवाज़ा  पहुँचने  के लिए जहाँ से चढ़ाई शुरू होती है वहाँ से आगे ऑटो नहीं जाता है। लगभग आधा कि.मी. पैदल चलने पर बुलंद दरवाज़ा का महल दिखा।

बुलंद दरवाजा का साईड व्यू 

कुछ ही कदम पर चलने पर अपने नामकरण के अनुरूप बुलंद दरवाज़ा मेरे सामने खड़ा था।इतिहासकारों के नज़र में बुलंद दरवाज़ा का निर्माण अकबर ने गुजरात पर विजय की स्मृति में बनवाया था, परन्तु मैं जब दक्षिण से बुलंद दरवाज़ा में प्रवेश किया तो सामने सफ़ेद रंग की संगमरमर से बना सुंदर मक़बरा सलीम चिश्ती का दिखा और देखते ही यह विचार आया कि सलीम चिश्ती के प्रति अपार श्रद्धा रखने वाले वाले अकबर ने अवश्य ही उनके शान में यह दरवाज़ा बनवाया होगा। यह वह बुलंद दरवाज़ा है जिसमें प्रवेश कर कोई भी व्यक्ति सलीम चिश्ती के दरगाह से मन्नत मांगता है तो उसकी मांग अवश्य पुरी होती है। जितना भव्य बुलंद दरवाज़ा है उतना ही शांत एवं सौम्य सलीम चिश्ती का दरगाह। यह दरवाज़ा आम लोगों के लिए था। 

बुलंद दरवाज़ा का फ्रंट व्यू 

सलीम चिश्ती का दरगाह 

बादशाही दरवाज़ा पूर्व की दिशा में स्थित है और इस प्रवेश द्वार से घुसते ही सामने जामी मस्जिद दिखता है। अंदर प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण हैं जिसके उत्तर में सलीम चिश्ती का दरगाह एवं उनके संबंधियों का मक़बरा है । बुलंद दरवाज़ा महल का वास्तु-शिल्प अदभुत है। यह महल पुरातत्व विभाग के अधीन होने के बाद भी इस महल पर स्थानीय विक्रेताओं का कब्ज़ा है। वक़्फ़ बोर्ड, दरगाह परिसर में धार्मिक गतिविधियों के लिए जिम्मेदार है। यहाँ पर सामान या माल बेचना एवं भीख माँगना मना है लेकिन यहाँ ऐसा कुछ दिखता नहीं है। मज़ार पर चादर चढ़ाने के लिए चादर एवं फुल महल के अंदर ही बिकते है। इसके अलावा श्रृंगार का सामान, टोपी, माला एवं अन्य सामान भी बिकते हैं। प्रवेश शुल्क नहीं होने के कारण पर्यटक से ज्यादा स्थानीय लोगों की संख्या थी जो पर्यटकों से गाइड बनकर या शेरो-शायरी सुनाकर पैसे लेते है। इसके आस-पास का स्थान पर भी स्थानीय लोगों का कब्ज़ा है। बुलंद दरवाज़े के आस-पास गन्दगी फैली हुई है। यहाँ आकर आप शांति से इस मुग़लिया निशानी को महसूस नहीं कर सकते और ना ही आपको यहाँ सही जानकारी देने वाला कोई गाइड मिलेगा।  

 बादशाही दरवाज़ा 


जामी मस्जिद 

नवाब इस्लाम खान का मक़बरा 

बुलंद दरवाज़ा का पिछला भाग 

बादशाही दरवाजे के बाहर सामने शबिस्तान--इक़बाल (जोधाबाई का महल) और रसोई घर के अलावा अन्य भवन है। यह आकर्षक महल अकबर का मुख्य हरम था, जो गलती से जोधाबाई का महल माना जाता है। इसमें एक चौकोर आँगन के किनारे अनेक कमरे हैं। बीच तथा कोनों में स्थित कमरे दो मंजिल के हैं। पश्चिम में सुसज्जित स्तंभों पर आधारित एक मंदिर भी है। 
जोधा बाई का महल 

जोधाबाई के महल का आँगन 


जोधाबाई का रसोई-घर 


फ़तेहपुर सीकरी अकबर की राजधानी थी। इसके राजकीय क्षेत्र को नौ किलोमीटर लंबी विशाल दीवार जिसमें प्रवेश हेतु नौ गेट है एवं पश्चिम में एक बहुत बड़े प्राकृतिक तालाब से इस शहर को एक सुरक्षित किले का रूप दिया गया था। यह मुग़लों द्वारा बनाया गया पहला पूर्व नियोजित शहर है। चंद इमारतों एवं दीवारों को छोड़ सभी इमारतें खंडहर में तब्दील हो गए हैं। पानी की समस्या के कारण अकबर को दूसरी जगह राजधानी बनानी पड़ी। बुलंद दरवाज़ा एशिया का सबसे बड़ा दरवाज़ा है। 

हमलोग शबिस्तान--इक़बाल (जोधाबाई का महल) का दर्शन कर बाहर आए तो पर्यटक विभाग की बस खड़ी मिली। हमलोग उस पर सवार होकर बस स्टैंड आ गए जो की टैक्सी स्टैंड से 250 मी. की दूरी पर ही था। बस स्टैंड के पास ही पर्यटक विभाग का गुलिस्तां नाम का होटल है। वहाँ हम लोगों ने खाना खाया और चल पड़े सिकंदरा के लिए। 


सिकंदरा में अकबर एवं जोधाबाई (मरियम ज़मानी) के दो प्रमुख मक़बरें हैं। यमुना नदी के किनारे अकबर का मक़बरा है। इस विशाल मक़बरा का निर्माण की शुरुआत अकबर ने की और इस शहर का नाम बहिश्ताबाद रखा। अभी ये मक़बरा बनना शुरू ही हुआ था कि 1605 ई. में अकबर की मृत्यु हो गई। इसके बाद जहाँगीर ने इसका निर्माण कराया और उसी दौरान इसके कुछ ही दूरी पर काँच महल का निर्माण कराया। यह महल हरम या स्त्रियों का आवास-गृह था।जिसका उपयोग बादशाह जहाँगीर शिकारगाह के रूप में करता था। अकबर का मकबरा के पास सड़क के दूसरी तरफ जोधाबाई (मरियम ज़मानी) का मक़बरा है जो राजा भारमल की बेटी एवं जहाँगीर की माँ थी। जहाँगीर के जन्म पर जोधाबाई को मरियम ज़मानी (विश्व पर दया रखने वाली) का ख़िताब अकबर ने दिया। इस मक़बरे का निर्माण भी जहाँगीर ने करवाया। 
अकबर का मक़बरा का मुख्या द्वार 

अकबर का मक़बरा के अंदरूनी द्वार 

अकबर का मक़बरा के सामने 

काँच महल के पीछे पुरुष-घर 

काँच महल का साईड व्यू 

काँच महल 


मरियम ज़मानी (जोधाबाई) का मक़बरा  
थोड़ा इतिहास से इतर  :

जोधा-अकबर की कहानी तो आप सब जानते है और इसके ऊपर बनी फिल्म एवं सीरियल के विवादों के बारे में सुना होगा। राजपूतों का कहना है कि वस्तुतः जोधा-अकबर की कहानी कुछ इस प्रकार है – जयपुर के राजा की पत्नी जोधपुर की थी और उनकी पर्शियन दासी की एक पुत्री हुई। रानी ने दासी को वचन दिया कि दासी की पुत्री को अपनी पुत्री बनाएगी और उसकी शादी राजघराने में करेंगी और यही मंशा उसने अपने पति आमेर के राजा भारमल को प्रथम मिलन में बतायी तो राजा भारमल ने रानी को वचन दिया कि ऐसा ही होगा। जब हरखू बड़ी हुई तो कोई राजपूत उससे विवाह करने को राजी नहीं हुआ क्योंकि वह राजपूत ना होकर एक दासी-पुत्री थी। जब अकबर अजमेर शरीफ़ जा रहे थे तो भारमल के यहाँ रुके और उनकी चिंता को दूर करते हुए भारमल से कहा कि मैं भी राजपूत नहीं हूँ परन्तु मेरा पालन-पोषण राजपूत परिवार में हुआ और वैसी ही स्थिति आपकी बेटी का भी है तो अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो मैं आपकी बेटी से विवाह करने को तैयार हूँ।  इस प्रकार जोधाबाई एवं अकबर का विवाह हुआ। 
विस्तार से पढने के लिए लिंक को क्लिक करें। 

खैर! 26 जुलाई की सुबह हमलोग  ताज़ महल देखने गए। ताज़  महल के बारे में  लिखने  नहीं जा रहा हूँ  परंतु कुछ तस्वीरें साँझा  करना चाहता हूँ।  तो प्रस्तुत है  तस्वीरें :-

वाह ताज़ कहना तो बनता है। 

  मेरे पुत्र द्वारा ताज़ महल के झरोखे से ली गई तस्वीर।

आगरा की यात्रा गर्मी एवं पसीने  के साथ करनी पड़ी परंतु आगरा ने  निराश नहीं किया २६ जुलाई शाम का  झमाझम बारिश का  नज़ारा लें।  धन्यवाद। 


    - © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, January 12, 2017

करुणा











     करुणा

शाखों से पत्ते जब टूटे पतझड़ में,
शाखें कब शोक मनाती  हैं,
जब बसंत में पत्ते गिरते हैं शाखों से,
तब देखना पत्ते जहाँ से टूटे थे,
पानी बन आँसू वहाँ टपकाती हैं। 

जब कोई अपना असमय में गुजरा हो,
बोलो कौन है जो, शोक नहीं मनाता है,
अपनो के बिछड़ने का गम ही ना हो,
गम हो और आँखों में आँसू ही ना हो,
मानो या ना मानो, जीव नहीं वो पत्थर है। 

गर है किसी में जीवन तो,
दुःख है तो आँसू निकलते हैं,
सुख है तो उत्सव भी होते है,
कोई कैसे चुप रह सकता है,
जब अपना कोई बिछुड़ता है। 

मैं मदिरालय की बात नहीं करता,
मैं अम्बर की भी बात नहीं करता,
निर्जीव हैं ये, नहीं जीवन इनमें,
इनसे मैं सुख-दुःख का और,
शोक-उत्सव की उम्मीद नहीं करता। 

जब हम पत्थर दिल बन जाते हैं,
दारुण घटनाएँ बहुत सी घटती हैं,
देखो पर हम कहाँ शोक मनाते हैं,
जब यही घटना जुड़ती है अपनो से,
आँसुओं को हम कहाँ रोक पाते हैं। 

प्राकृतिक चक्र को समझो तुम,
सुरक्षा नियमों को समझो तुम,
तुम से ही ये सृष्टि चल पाएगी,  
गर तुम ऐसा कर पाओगे,
ह्रदय को करुणा से भर लो तुम, 
गर दारुण घटना कहीं भी हो जाए
तो आँखों से आँसू बहाओ तुम।  

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Thursday, January 5, 2017

बादल का टुकड़ा

      


      




      



         बादल का टुकड़ा


तुम ने मुझे अपना आसमां माना,

तुम ने मेरे सभी आदेशों को माना,

तुम्हारी सभी मांगे थी छोटी-छोटी

उन मांगों को मगर मैंने कहाँ माना। 


ना तुम्हें चाँद पाने की चाहत थी,

ना तुम्हें सितारों की ख्वाहिश थी,

तुमने माँगा मेरे दिल का एक कोना

मेरे लिए तुम अनबुझ पहेली थी। 


अथक करती थी तुम मेहनत,

गिरती जा रही थी तेरी सेहत,

मगर मैं खुदगर्ज ऐसा था

पूरी की बस अपनी ही चाहत। 


सुकून की ज़िंदगी मेरी, तेरे ही दम पर है,

इस घर की हंसी-ख़ुशी, तेरे ही दम पर है,

ये इज़हार करने में जीवन की साँझ हो गई

मेरी खता को माफ़ करना ये भी तुम पर है। 


दुःख सह कर रिश्तों को तुमने था पकड़ा,

तुमने ना सुनाया अपना कोई भी दुखड़ा,

तेरी दुनियां का आसमां था मैं

ना दे सका तुमको बादल का एक टुकड़ा। 



- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Sunday, January 1, 2017

नववर्ष

      


        


     नववर्ष

गया दिसंबर, अब मौसम है नववर्ष मनाने का,

सुध लेनी है मुझको, दिल में बसने वालों का,

दे दूँ शुभकामनाएं सबको, पर चिंता है बस इतनी

कहीं छूट ना जाए नाम कोई, मेरे चाहने वालों का। 


नववर्ष का दिन है यारों, ख़ुशी मनाने का,

यारों के संग खाना-पीना, नाचने-गाने का,

नहीं भूलना उनको यारों जो काम तुम्हारे आते

मौका है, उनके चेहरे पर मुस्कान फैलाने का। 


बीते साल के दर्द को भूल, आगे बढ़ जाना है,

नववर्ष में अपने जीवन को सपनों से सजाना है,

कर लो प्रतिज्ञा, साकार करेंगे अपने सपनों को

नववर्ष में मिलेगी सफलता बस कदम बढ़ाना है। 


गिला शिकवा छोड़ कर सबको गले लगाना है,

अपनी खुशियों में अपनो को भूल ना जाना है,

कितना भी हो मशरूफ तुम अपने ही कर्मों में

सब काम को छोड़, रोते हुए बच्चों को हंसाना है। 


इस नववर्ष में हम को कुछ संकल्प उठाना है,

नशा-मुक्त हो हमारे युवा उन्हें राह दिखाना है,

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का संदेश फैलाना है,

स्त्रियों का करें सम्मान ये बच्चों को समझाना है।


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"