करुणा
शाखों से पत्ते जब
टूटे पतझड़ में,
शाखें कब शोक मनाती हैं,
जब बसंत में पत्ते
गिरते हैं शाखों से,
तब देखना पत्ते जहाँ
से टूटे थे,
पानी बन आँसू वहाँ
टपकाती हैं।
जब कोई अपना असमय
में गुजरा हो,
बोलो कौन है जो, शोक
नहीं मनाता है,
अपनो के बिछड़ने का
गम ही ना हो,
गम हो और आँखों में
आँसू ही ना हो,
मानो या ना मानो, जीव नहीं वो पत्थर है।
गर है किसी में जीवन
तो,
दुःख है तो आँसू
निकलते हैं,
सुख है तो उत्सव भी
होते है,
कोई कैसे चुप रह
सकता है,
जब अपना कोई बिछुड़ता
है।
मैं मदिरालय की बात
नहीं करता,
मैं अम्बर की भी बात
नहीं करता,
निर्जीव हैं ये,
नहीं जीवन इनमें,
इनसे मैं सुख-दुःख
का और,
शोक-उत्सव की उम्मीद
नहीं करता।
जब हम पत्थर दिल बन
जाते हैं,
दारुण घटनाएँ बहुत
सी घटती हैं,
देखो पर हम कहाँ शोक
मनाते हैं,
जब यही घटना जुड़ती
है अपनो से,
आँसुओं को हम कहाँ
रोक पाते हैं।
प्राकृतिक चक्र को
समझो तुम,
सुरक्षा नियमों को
समझो तुम,
तुम से ही ये सृष्टि
चल पाएगी,
गर तुम ऐसा कर
पाओगे,
ह्रदय को करुणा से भर लो तुम,
गर दारुण घटना कहीं
भी हो जाए
तो आँखों से आँसू
बहाओ तुम। - © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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