Monday, September 21, 2020
Friday, August 14, 2020
बाल कथा : प्रकृति और जीवन
प्रकृति और जीवन
विश्व के दो महाद्वीपों के कुछ हिस्सों में हाथियों का साम्राज्य है। एशिया महाद्वीप में ऍलिफ़स और उसके संतान मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस का साम्राज्य है और अफ्रीका में लॉक्सोडॉण्टा और उसके संतान अफ़्रीकाना और साइक्लोटिस का।
गर्मियों के दिन शुरू होने वाले थे। मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस ने अपने पिता से कहा, “आपने एक बार कहा था कि हमलोगों को आप अपने बड़े भाई के देश घुमाने ले चलेंगे। तो क्यों न इन गर्मियों की छुट्टियों में हम सभी अफ्रीका चलें?”
ऍलिफ़स ने कहा, “तो चलो! अगले महीने की एक तारीख को हमलोग अफ्रीका यात्रा पर चलेंगे, परन्तु अभी तुमलोगों की स्कूल में परीक्षा चल रही है, इसलिए तुमलोग पढ़ाई पर ध्यान दो।” और हिदायत देते हुए कहा कि परीक्षा के बाद ही यात्रा की तैयारी करनी है।
बच्चों ने भी अपने पिता जी के कथनानुसार कार्य किया और परीक्षा के बाद अफ्रीका जाने की तैयारी शुरू कर दी। समान को जब बैग में भर कर तैयार कर लिया, तो तीनों उस बैग को ख़ुशी-ख़ुशी अपने पिता जी को दिखाने गए। कुल चार बैग देखकर उसके पिता जी बोले, “तुमलोग तीन हो तो चौथा बैग किसका है?”
तीनों उत्साह में एक साथ बोले, “तीन छोटे बैग तो हमलोगों के हैं और सबसे बड़े बैग में सूंढ़ पर लगाने वाला एयर-फ़िल्टर मास्क और प्यूरिफाईड कम्प्रेसड एयर के सिलिंडर हैं।”
“अरे हाँ! मैं तुम्हें यह बताना तो भूल ही गया कि वहाँ, तुम्हारे इस चौथे बैग की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहाँ का पर्यावरण बहुत स्वच्छ एवं स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।”- उनके पिता जी ने कहा।
बच्चों को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने पिता जी से पूछा, “क्या दुनिया में ऐसी भी कोई जगह है, जहाँ हवा और पानी बिना फ़िल्टर के इस्तेमाल में लाया जा सके।”
ऍलिफ़स ने बच्चों से मुस्कुराते हुए कहा, “अब तो तुमलोग वहाँ जा ही रहे हो तो देख लेना। वैसे भी कहावत है कि हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या।”
बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी अपने बड़े बैग को छोड़ कर अफ्रीका के लिए रवाना हो गए। हवाई यात्रा के दौरान बच्चे अफ्रीका के प्राकृतिक सौन्दर्य को देख मुग्ध हो रहे थे। दूध जैसी सफ़ेद बलखाती चौड़ी नदियाँ और हरे-भरे जंगल देख उन्हें लग रहा था कि वे किसी परियों के शहर में आ गए हैं। वे मन ही मन दुखी थे कि उनकी मातृभूमि में ऐसा प्राकृतिक नज़ारा क्यों नहीं है? और इसी बात की चर्चा उसने अपने पिता से की तो उन्होंने लंबी सांस लेते हुए कहा, “बच्चों! कभी हमलोगों की मातृभूमि पर भी इसी तरह का प्राकृतिक नज़ारा था, परन्तु हमारे पूर्वजों की प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता और हमारी विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति का शोषण इसका मुख्य वजह है। कई दशक पहले हमारी प्राकृतिक संपदा यहाँ से अधिक और मनोरम थी। कुछ दशक पहले यहाँ की स्थिति भी हमारे जैसी थी। मेरे यहाँ आने का एक कारण यह भी है कि इनलोगों के प्रयास एवं तकनीक को सीख कर, अपने यहाँ लागू कर अपनी प्राकृतिक संपदा को पुनर्जीवित कर पाऊं।” – इतना कह कर वे उदास हो गए।
लम्बी यात्रा के बाद जब साउथ अफ्रीका की राजधानी केप टाउन में उनका हवाई जहाज लैंड किया तो उनके चाचा लॉक्सोडॉण्टा और उसके भाई अफ़्रीकाना और साइक्लोटिस ने शाही अंदाज में उनका स्वागत किया। घर पहुँचने पर उनका स्वागत नाना प्रकार के फलों से हुआ। उदर तृप्ति हो जाने के बाद बच्चे नदी में खेलने चले गए। बच्चे सूंढ़ में पानी भर कर एक दूसरे के ऊपर फेंकने लगे। नदी में सभी बच्चों ने खूब उछल-कूद मचाई। जब मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस थक गए, तब वे नदी से निकलने लगे, तभी उनके चचेरे भाइयों ने उन्हें रोका और कहा, “नदी में हम मस्ती करने के बाद सूंढ़ में पानी भर कर जंगल जाते हैं और वहाँ के छोटे-छोटे पौधों को पानी देकर ही घर वापस जाते हैं। इस नियम का पालन यहाँ के छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्ग तक करते हैं। और जंगल से लौटते वक्त, जरूरत के अनुसार फलों को प्यार से ऐसे तोड़ते है, जिससे पेड़ को कोई नुकसान न हो।”
पाँचों ख़ुशी-ख़ुशी जंगल गए, पौधों को पानी दिया और अपनी-अपनी पसंद का फल तोड़ कर घर वापस आ गए। रात का खाना खाने के बाद ऍलिफ़स और लॉक्सोडॉण्टा आपस में बात करने लगे। परिवार का हालचाल पूछने के बाद ऍलिफ़स ने कहा, “भैया! मैं यहाँ आपसे पर्यावरण को समृद्ध एवं स्वच्छ बनाने के लिए आपके द्वारा उपयोग में किए जाने वाली तकनीक के बारे में जानने आया हूँ।”
लॉक्सोडॉण्टा ने कहा, “देखो छोटे! तकनीक अपनी जगह है, परन्तु उससे पहले जो तुम्हारे पास प्राकृतिक संपदा है उसके दुरूपयोग को रोकना है।”
अभी दोनों भाइयों का वार्तालाप चल ही रहा था कि उनके बच्चे वहाँ आ गए। मैक्सिमस ने उत्सुकता से कहा, “बड़े पापा! आप सभी आकार में बड़े एवं शक्तिशाली कैसे हैं? और यहाँ का पर्यावरण, समृद्ध एवं स्वच्छ कैसे है? हमारे यहाँ तो नदी, नाले में बदल गई और हवा इतनी प्रदूषित है कि साँस लेने के लिए भी नाक में फ़िल्टर और साथ में ऑक्सीजन का सिलिंडर रखना पड़ता है।”
लॉक्सोडॉण्टा ने कहा, “आओ बच्चो आओ! तुम्हारे पिता जी भी मुझ से यही सवाल पूछ रहे थे।” थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे गंभीर हो कर बोले, “यहाँ का नज़ारा अभी जो तुमलोग देख रहे हो, वह कुछ दशक पहले ऐसा नहीं था। जिसके कारण हमने अपने एक भाई ‘मैमथ’ एवं एक बेटे ‘अडौरोरा’ की पीढ़ी को खो दिया और इसका मुख्य कारण था- प्राकृतिक संपदाओं का दुरूपयोग। वे लोग नदी का उपयोग स्नान, गर्मी से राहत पाने एवं प्यास बुझाने के लिए करते थे। यहाँ तक तो बात ठीक थी, परन्तु उस दौरान वे सूंढ़ में पानी भर कर आस-पास फेंक कर जल का दुरुयोग करते थे। जंगल में रहते हुए, वहाँ उत्पात मचाते थे। बे-वजह पेड़ों को तोड़ना, आवश्यकताओं से अधिक फलों को तोड़ कर उसे बर्बाद करना और विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक संपदा के दोहन ने उनके अस्तित्व को मिटा दिया। उन्हीं से सबक लेते हुए, हमलोगों ने अपने दैनिक जीवन में प्रकृति के महत्व को समझते हुए उसकी देखभाल करनी शुरू की। ऐसे-ऐसे नियम बनाए जिससे पर्यावरण दूषित न हो और अधिक से अधिक पेड़ को सिंचित कर सकें। बरसात के पानी को सदुपयोग में लाने के लिए हमलोग रेन हार्वेस्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। कार्बन फुटप्रिंट को कम किया। अन्य तकनीक की जानकारी मैं तुम्हारे पापा को दे दूँगा, अगर तुमलोग उनका सहयोग करोगे तो वह दिन दूर नहीं, जब हमलोग भी तुम्हारे घर आ कर अपने बच्चों के साथ छुट्टियाँ मनाएँगे।”
ऍलिफ़स एक सप्ताह में सभी जानकारी इकठ्ठी कर बच्चों के साथ अपने देश लौट आया। उसने अपने समाज को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया और इम्पोर्टेड तकनीक से पर्यावरण को संरक्षित एवं स्वच्छ बनाने लगा। उसके एवं बच्चों के अथक प्रयास से, दो दशक बाद उनके नाले जैसी नदी चौड़ी एवं स्वच्छ हो गई। जंगल में हरियाली छा गई और वह दिन भी आया, जब दो दशक बाद ऍलिफ़स के बच्चे बड़े होकर अपने बुजुर्ग बड़े पापा एवं अपने भाइयों का नई दिल्ली के एअरपोर्ट पर शाही अंदाज में इंतज़ार कर रहे थे।
(नोट- ऍलिफ़स, लॉक्सोडॉण्टा और मैमथ हाथियों की प्रजाति है। ऍलिफ़स की तीन जातियां मैक्सिमस, इन्डिकस और सुमात्रेनस तथा लॉक्सोडॉण्टा की तीन जातियां अडौरोरा, अफ़्रीकाना और और साइक्लोटिस हैं।)
-----समाप्त----
© राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'
Sunday, July 5, 2020
साच पास - एक खतरनाक सड़क की यात्रा (भाग - 2)
साच पास - (भाग - 2)
अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे मैंने साच पास जाने का प्रोग्राम बनाया। चमेरा लेक और भलेई मंदिर का भ्रमण कर पूर्व निर्धारित स्थल एप्पल माउंटेन विला होमस्टे (बघाई गढ़) में रात बिताई।अब गतांग से आगे ...
होटल लेक व्यू और एप्पल माउंटेन विला होमस्टे (बघाई गढ़) के मालिक श्री अशोक बकाड़िया जी ने टाटा सूमो से सच पास जाने का व्यवस्था कर रखा था। अतः सुबह हमलोग आराम से तैयार हो रहे थे, तभी केयर-टेकर ने आ कर बताया कि टाटा सूमो वाला किसी कारण से नहीं आ रहा है। मैंने श्री अशोक बकाड़िया जी से इस संदर्भ में बात की, तो उन्होंने दूसरी गाड़ी का इंतज़ाम किया और हमलोगों ने जब गाड़ी के ड्राईवर से बात की तो उसने कहा की आपलोग नक्रोड़ क़स्बा पहुँचे, मैं वहीँ मिलूँगा। हमलोग सुबह नौ बजे अपनी गाड़ी से नक्रोड़ लिए निकल पड़े। पहाड़ो से नीचे उतरने का अपना अलग अनुभव था। रस्ते में टीले पर बैठा एक गुर्जर और थोड़ी ही दूर पर उसका परिवार दूध बेच रहा था। यह गुर्जर परिवार प्रकृति के साथ इस तरह मिले लग रहे थे मानों प्रकृति इनके बिना अधूरी है। ऐसा नज़ारा देखकर हमलोगों ने गाड़ी को रोका और उनकी अनुमति ले कर उनके साथ अपनी तस्वीरें ली।गुर्जर उत्कृष्ट जनजातीय ड्रेसिंग शैली के लिए जाने जाते हैं और पुरुषों और महिलाओं दोनों के मामले में उनकी ड्रेसिंग की शैली विशिष्ट पैटर्न की होती है। गुर्जर पुरुषों द्वारा अनोखे अंदाज में पहने जाने वाला रंग-बिरंगी पगड़ी जिसे अफ़गानी टोपी भी कहा जाता है बहुत आकर्षक होता है। गुर्जर महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला दुपट्टा जी एक रंग-बिरंगी शाल की तरह दिखता है। ये गूजर आदिवासी महिलाएं गहनों की बहुत शौकीन होती हैं। इसका प्रमाण तब मिला जब हमलोग वहाँ से चलने लगे तो उन्होंने पैसे नहीं माँगे वरन वे मेरी पत्नी की हाथ में पहनी हुई लाख की चूड़ियाँ माँग ली और मेरी पत्नी ने ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें दे भी दिया। हमलोग टेढ़े-मेढ़े सर्पीले पहाड़ी रास्तों से होते हुए प्रकृति का आनंद ले रहे थे। कल रात जिस रास्ते पर चलना भयावह लग रहा था वही रास्ता आनंद दे रहा था।
हमलोग जब नक्रोड़ क़स्बा पहुँचे तो वहाँ सच पास ले जाने के लिए ड्राइवर इंतज़ार कर रहा था और हमलोग अपनी कार वहीँ पर पार्क कर एस यू वी गाड़ी में सवार हो गए। हमलोगों ने रास्ते में रुककर नाश्ता किया और अपनी मंजिल की तरफ लिकल पड़े।हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में सच दर्रा (जिसे साच दर्रा भी कहा जाता है) एक उच्च ऊंचाई वाला दर्रा है। 4,420 मीटर की ऊंचाई पर, यह चंबा घाटी को पांगी घाटी से जोड़ता है। हिमपात के बाद दर्रा हर साल जून के अंत में नागरिकों के लिए खोला जाता है और मध्य अक्टूबर तक इस रास्ते को बंद कर दिया जाता है।बैरागढ़ तक की सड़कें टूटी-फूटी परन्तु वाहनों के चलने के हिसाब से ठीक-ठाक है, परन्तु इसके बाद का रास्ता उत्तरोत्तर कठिन होता जाता है। बैरागढ़ के रास्ते में एक रोमांचक दृश्य देखने को मिला। एक पानी का झरना पहाड़ से ऐसे गिर रहा था कि मानो पानी का गुफा हो और वहाँ की सड़क उसका प्रवेश का मार्ग हो। ड्राइवर ने कुछ देर के लिए अपनी गाड़ी वहीँ खड़ी कर दी जिससे मुफ्त में गाड़ी की धुलाई हो गई। अभी हमलोग बैरागढ़ से जंगल के रास्ते आगे बढ़े ही थे कि हमलोगों का सामना रास्ते पर पड़े बहुत बड़े चट्टान के टुकड़े से पड़ा। दूर से देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि आगे का रास्ता बंद है। हम लोग निराशा के साथ नीचे उतर कर चट्टान के पास गए, तब ड्राइवर ने अंदाजा लगाकर कहा कि कोशिश करते है शायद गाड़ी निकल जाए। बहुत मशक्कत के बाद ड्राईवर ने गाड़ी का एक पहिया चट्टान के किनारों पर चढ़ कर अवरोध को पार कराया। हमलोग अपने पहले पड़ाव सतरुंडी चेक पोस्ट की तरफ कच्चे और सर्पीले रास्तों पर आगे बढ़ रहे थे। रास्तों में अनेको छोटे झरने दिखे उसके बाद लगातार तीन बड़े झड़ने दिखे जो बहुत मनमोहक थे। झड़नों की कोलाहल करती जलधारा हमलोगों को उनके साथ अठखेलियाँ करने का निमंत्रण दे रही थी, प्रकृति के इस आग्रह को हमलोग ठुकरा नहीं सके और जमकर जलधारा के साथ मस्ती की।
जब हमलोग सतरुंडी चेक पोस्ट पर पहुँचे, तो वहाँ आइआरबी के जवानों ने गाड़ी की तालाशी लेकर हमलोगों का पंजीयन किया। उसके बाद हमलोगों का वीडियो रिकॉर्डिंग कर के आगे जाने की अनुमति दी। मीलों सुनसान पहाड़ी पथरीले रास्ते भयावह लग रहे थे। हरियाली और जीवों का नामों-निशान नहीं था। हमलोगों को कुछ दूर पर सतरुंडी हैलीपैड नज़र आया और यहीं पर हमें गिद्धराज के भी दर्शन हुए। इसके बाद कालाबन का वह क्षेत्र दिखा जहाँ 3 अगस्त 1998 को मिंजर मेले के दौरान कालाबन और सतरुंडी गांवों में आतंकियों ने 35 लोगों को मार गिराया था जबकि 11 अन्य लोग जख्मी हुए थे। उन्हीं की याद में बनी समाधि को देखकर आँखें नम हो गईं। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसी कौन सी वजह है, जिससे इतने दुर्गम स्थल पर नरसंहार किया गया और जिसके फलस्वरूप गुर्जरों और गद्दी जनजातियों के बीच संघर्ष हुआ।
खैर! भारी मन से हमलोग सर्पीले एवं पथरीले दुर्गम रास्तों से गुजर रहे थे कि प्रकृति ने अपना अचानक रौद्र रूप दिखाया और मुसलाधार बारिश शुरू हो गई जिसके कारण रास्तों में कीचड़ भर गया और गाड़ी की रफ़्तार पहले 10 कि.मी. प्रति घंटा था, वह फिसलन के कारण मात्र 5 कि.मी. प्रति घंटा हो गया फिर भी गाड़ी का पहिया फिसल रहा था। रास्ते के एक तरफ ऊँचा पहाड़ और दूसरी तरफ हजारों फ़ीट गहरी खाई को देख कलेजा मुँह को आ रहा था। किसी तरह हमलोग साच पास के उच्चतम चोटी पर पहुँचे। बर्फीली हवा में हो रही बारिश के कारण वहाँ रुकना असंभव हो रहा था। हमलोगों ने वहाँ चंद तस्वीरें ली और वापस उसी दुर्गम रास्ते से सतरुंडी चेक पोस्ट पर आ कर चाय-नाश्ता कर वापस लौटे। यहाँ पर एक बात आपलोगों से शेयर करना है कि आम तौर पर टूरिस्ट प्लेस के ड्राइवर अपने गंतव्य स्थान के पहले ही बहाना बनाने लगते है कि आगे का रास्ता खराब है या निर्धारित जगह यही है, परन्तु साच पास जाने वाले ड्राइवर ने कठिन परिस्थिति में भी हमलोगों को हँसी-ख़ुशी से सच-पास का दर्शन करवाया।
अब हमलोगों का निर्धारित प्रोग्राम में बदलाव करना था। हमलोग अब किसी भी हालत में होटल लेक व्यू और एप्पल माउंटेन विला होमस्टे (बघाई गढ़) नहीं रुकना चाहते थे और अन्य कोई जगह ठहरने का ठिकाना पता नहीं था। जब हमलोगों ने अपनी परेशानी ड्राईवर को बताई, तब उसने तिस्सा में आर. के. होटल के बारे में बताया। उसने कहा कि पहले वहाँ खाना खा लें और होटल का कमरा भी देख लीजियेगा। पसंद आए तो वहीँ रात्रि विश्राम कीजियेगा। उसने खाने के लिए फोन पर ही आर्डर दे दिया। हमलोग करीब सात बजे रात में होटल पहुँचे। गरमा-गर्म खाना तैयार था। हमलोगों ने खाना खाया और होटल के कमरों को देखा। एक फॅमिली रूम पसंद आया जिसमें एक कमरा और एक बहुत बड़ा लॉबी थी जिसमें डबल बेड एवं डाइनिंग टेबल लगा था। आज रात को अपनी पत्नी की बर्थ डे मनाने के लिए यह कमरा उपयुक्त लगा। सभी सदस्यों को सामान सहित कमरे में टिका कर ड्राइवर के साथ अपनी कार एवं बर्थडे केक और अन्य पार्टी के सामान के लिए निकल पड़े। बेकरी से केक एवं खाने-पीने का सामान लेकर अपनी कार से करीब नौ बजे रात को तिस्सा के होटल पहुँचे।पार्टी धूम-धाम से मनाई गई और देर रात को हमलोग सोने गए।
अंत में एक सेव का पेड़ और एक झड़ने के दृश्यों का आनंद लें :अगले दिन सुबह भी होटल के बरामदे से पहाड़ों का नज़ारा मन को असीम शान्ति प्रदान करने वाला था। हमलोग सुबह तैयार होकर अपने घर के लिए निकल पड़े । करीब 11 बजे हमलोग चमेरा लेक के पास होटल व्यू लेक पहुँचे। होटल के मालिक श्री अशोक बकाड़िया जी ने हमलोगों का स्वागत बड़े गर्मजोशी के साथ किया। दोपहर का लंच कर पुनः अपनी यात्रा शुरू की और करीब 10 बजे रात को अपने घर पहुँचे।
-------समाप्त--------- ✍️© राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'
Tuesday, May 26, 2020
Saturday, April 4, 2020
दीप जलाएं!
दीप जलाएं!
एकता का हम अलख जगाएं,
हम सब मिलकर दीप जलाएं।
रण में हैं सब अपने बल पर,
मिल सभी एक जोर लगाएं।
कोई न हो निराश अभी से
आशा का हम दीप जलाएं।
एकता का हम अलख जगाएं,
हम सब मिलकर दीप जलाएं।
लड़ना पड़े अदृश्य शक्ति से,
सभी अपने डर को भगाएं।
करना है नाश तिमिर का, तो
आओ न! सभी दीप जलाएं।
एकता का हम अलख जगाएं,
हम सब मिलकर दीप जलाएं।
माँ भारती पर है आक्रमण,
शत्रुओं को मिलकर हराएं।
होनी है अब जीत हमारी,
दीप जलाकर जोश बढ़ाएँ।
एकता का हम अलख जगाएं,
हम सब मिलकर दीप जलाएं।
-© राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'
Monday, January 6, 2020
साच पास - एक खतरनाक सड़क की यात्रा (भाग - 1)
जब से मैंने साच पास की तस्वीरों को एक समाचार पत्र में देखा, तो उस अनुपम छटा को देखने की तमन्ना जाग उठी। बर्फ की दीवारों के बिच खड़ी कार एवं मोटर साईकिल की तस्वीरें मानों कह रही हों कि आओ तुम भी इस रोमांचकारी यात्रा का आनंद लो। इसी क्रम में यू-टूब और इंटरनेट के माध्यम से इस स्थल की जानकारी जुटानी शुरू कर दी. सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त करने के बाद , वहां जाने की इच्छा बलवती हो गई।
साच दर्रा हिमालय के पीर पंजाल पर्वतमाला पर चंबा जिला, हिमाचल प्रदेश, भारत में स्थित समुद्र तल से ऊपर 4.420 मीटर (1,4500 फीट) की ऊँचाई पर स्थित एक ऊँचा पर्वत दर्रा है। यह दर्रा जून के अंत या जुलाई की प्रथम सप्ताह से अक्टूबर के मध्य तक खुलता है और सितम्बर महीना वहाँ पर जाने के लिए सबसे अच्छा है, तो इसी आधार पर मैंने "एक पंथ दो काज" वाला मुहावरा को चरितार्थ करने हेतु 4 सितम्बर'2018 को अपनी पत्नी की जन्मदिन पर साच पास घूमने का कार्यक्रम बनाया। इसी दौरान, मेरे एक दोस्त श्री विनोद जी से पता चला कि साच-पास जाने के रास्ते में दो दर्शनीय स्थल भी है। तब मेरे एक मित्र श्री संजीव परमार जी ने बताया कि उनके मित्र श्री अशोक बकाड़िया जी का होटल लेक व्यू है, जहाँ से चमेरा लेक बहुत खूबसूरत दिखता है और उन्हीं का एक एप्पल माउंटेन विला होमस्टे(बघई गढ़) भी है। मैंने अपनी निजी वाहन के साथ आस-पास के दर्शनीय स्थल के लिए तीन दिवसीय यात्रा की एक रुपरेखा तैयार की जो निम्न प्रकार से थी :
03-09-2018 सुबह 5 बजे निवास स्थान से प्रस्थान, चमेरा डैम में बोटिंग, होटल लेक व्यू में लंच, भलेई माता
मंदिर दर्शन एवं एप्पल माउंटेन विला होमस्टे (बघाई गढ़) में रात्रि भोजन एवं विश्राम।
04-09-2018 सुबह नाश्ता करके साच-पास भ्रमण एवं वापस एप्पल माउंटेन विला होमस्टे में बर्थ-डे पार्टी।
05-09-2016 सुबह एप्पल माउंटेन विला होमस्टे में नाश्ता कर घर वापसी।
निर्धारित समयानुसार हमलोगों ने सुबह 5 बजे अपनी यात्रा शुरू की। सुबह का सुहाना मौसम, हलकी बारिश के कारण साफ़-सुथरी काली सड़क और कार के म्यूजिक सिस्टम पर बज रहे मधुर गाने, यात्रा को आनंददायक और मनोहारी बना रहे थे। दसुआ और मुकेरियां के बाद पठानकोट बाईपास से बाएं, जैसे ही बनिखेत की तरफ बढ़े, मैदानी सीधी और सपाट काली सड़क, काली सर्पीली सड़क में तब्दील हो गई और मैदान, पहाड़ों में। इस मार्ग से बाबा भोले शंकर के भक्तजन मणि-महेश की यात्रा करते है, इसलिए बनिखेत तक भक्तजनों की सेवा में श्रद्धालू जगह-जगह पर लंगर लगाए हुए थे। हमलोग करीब सुबह 7 बजे हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में प्रवेश किए और इतनी सुबह पहाड़ में आम-जन की दिनचर्या अभी शुरू हो रही थी। इक्का-दुक्का दुकानों में अभी कोयले की अंगीठियाँ जलने के प्रारंभिक चरण में था, इसलिए उसमें से सफ़ेद धुंआ निकल रहा था। चाय और नास्ते की तलब छोटे-बड़े सभी को हो रही थी, तभी एक लंगर दिखा। जैसे ही हमलोगों की गाड़ी लंगर के पास पहुँची, वैसे ही हमलोगों की गाड़ी के सामने, लाल-झंडा लिए दो व्यक्ति अवतरित हुए और चाय-बिस्कुट खाने के लिए विनम्र निवेदन करने लगे। हमलोग मणि-महेश नहीं जा रहे थे, अतः यहाँ रुकने में संकोच हो रहा था, परन्तु चाय की तलब और दो श्रद्धालुओं की विनम्र प्रार्थना को ठुकराना अच्छा नहीं लगा और हमलोगों ने वहाँ उतर कर चाय-बिस्कुट के साथ मीठा हलवा खाया और चलते वक्त उन्होंने खट्टी-मिठ्ठी टॉफी की गोलियां सभी को din जो पहाड़ों के घुमावदार एवं चढ़ाइयों में आने वाली परेशानियों को कम करती हैं। हमलोगों ने कुछ चढ़ावा चढ़ा कर अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए। बनिखेत से कुछ देर पहले एक और लंगर दिखा। सुबह के 9:30 का समय था। गरमा-गर्म पुरियां और जलेबियाँ बन रहीं थीं। हमलोगों ने वहाँ नाश्ता किया और चमेरा लेक की तरफ बढ़ लिए, तभी होटल व्यू लेक के मालिक श्री अशोक बकाड़िया जी का फ़ोन आया और निवेदन किया कि पहले मुलाक़ात करें, फिर आगे बढ़ें। बनिखेत से हमलोग ढलान वाली सड़क पर आ चुके थे, परन्तु उनके प्यार भरे अनुरोध को ठुकरा न सके और वापस आकर उनसे मुलाक़ात की और उनको आश्वासन दिया कि आज का लंच इसी होटल में करेंगे। गरमा-गर्म कॉफ़ी का आनंद लेकर हमलोग चमेरा लेक के लिए निकल पड़े। चमेरा लेक के बोट हाउस तक पहुँचने तक एक पल के लिए भी लेक का दृश्य आँखों से ओझल नहीं हुआ ऐसा लग रहा था कि लेक अलग-अलग एंगल से अपनी मनोहारी तस्वीर दिखाना चाह रही हैं। सर्पीले रास्तों से होते हुए, चमेरा डैम के ऊपर से चल कर कार से बोटिंग पॉइंट तक पहुँचे। शांत झील में बोटिंग कर हमलोग वापस लंच टाइम पर होटल लेक व्यू पहुँच गए। होटल के डाइनिंग हॉल से चमेरा लेक के अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य और गर्मा-गर्म मनपसंद खाने के साथ अशोक जी की मेजबानी न भूलने वाला पलों को सदा के लिए दिल में बसा कर, फिर से चमेरा लेक होते हुए, भलेई मंदिर घूमने के लिए निकल पड़े। हिमाचल में यह मंदिर शक्तिपीठ माँ दुर्गा के नाम से मशहूर है। मंदिर तक जाने के लिए कुछ दूरी सीढियों द्वारा तय की जाती है। माता का गर्भ-गृह मंदिर के पहले तल पर स्थित है। हमलोगों के कार्यक्रम में इस मंदिर के दर्शन के अलावा कोई अन्य काम नहीं था, अतः हमलोगों ने देवी का दर्शन कर आस-पास के प्राकृतिक नजारों का लुत्फ़ लिया। यहाँ से भी चमेरा लेक का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
एप्पल माउंटेन विला होमस्टे (बघाई गढ़) की दूरी भलेई मंदिर से 54 कि.मी. है और इस दूरी को तय करने में लगभग दो घंटा लगना था। अतः हमलोग दोपहर को 3 :30 बजे मंदिर से अगले गंतव्य स्थान के लिए प्रस्थान किए। पहाड़ों पर मोबाईल नेटवर्किंग की समस्या रहती है। मोबाईल पर केयर टेकर की आवाज ठीक से सुनाई नहीं देने के कारण हमलोग तिस्सा पहुँच गए। जब सिग्नल मिला तब केयर टेकर से पता चला की हमलोग गंतव्य स्थान से 26 कि.मी. आगे चले आए हैं। हमलोग फिर वापस लौटे और करीब रात को 7:30 बजे गंतव्य स्थान पर पहुँचे। वहाँ सड़क के किनारे केयर-टेकर हमलोगों का इंतज़ार कर रहा था। हमलोगों ने कार से उतर कर उससे बात की, तो पता चला कि होमस्टे पहुँचने के लिए आधा किलोमीटर पैदल चढ़ाई करनी है। इतना सुनने पर मेरे श्रीमती जी की साँसें फूलने लगी और कोई चारा न होने पर हमलोग धीरे-धीरे पहाड़ो की पगडंडियों पर चलने लगे। होमस्टे पहुँचने तक सभी की साँसें फूलने लगीं। सेब के बगीचे के बीच बसा यह होमस्टे हमलोगों को किसी प्रकार से रास नहीं आया। खाने के लिए भी कोई ख़ास व्यवस्था नहीं थी। मिनिरल वाटर की बोतल तक उपलब्ध नहीं था। ट्राइबल फ़ूड के नाम पर जो खाना परोसा गया, वह किसी प्रकार से खाने लायक नहीं था। खैर! किसी तरह हमलोगों ने वहाँ रात गुजारी। शेष अगले भाग में .........
इस यात्रा के दौरान ली गई कुछ तस्वीरों का आनंद लें :-
© राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'
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