आह!
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
बचपन में तो माँ से ये सुख पाया,
अब रोटी ने ही मुझको तड़पाया,
मेरी उम्र गुजरी इसी चक्कर में,
मिली रोटियां पर शरीर गवांया।
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
इनके आगे देह कहाँ दिखती है ,
सभी की शांत हो उदरों की ज्वाला
इसकी लिए आम जनता पिसती है।
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
तब भी कहाँ, सब का पेट भरता है,
करनी पड़ती है दिन में मजदूरी
तब जाकर सभी को चैन मिलता है।
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
उनको हम पर तरस नहीं है आता,
हम मजदूरों का ही शोषण कर के
दानी बनने का नाटक है करता।
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
हम को तो बस रोटी का रोना है,
सेठ का कुत्ता भी जीता शान से
नरक से बदहाल जीवन अपना है।
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
शोषक और शोषित इन्हें कहते हैं,
शोषक न माने किसी धर्म-जात को
पैसे को ये बस ख़ुदा मानते हैं।
जीवन जीने के हैं रंग निराले,
इसे चाहिए इक देह, दो निवाले।
-© राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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