सामाजिक पशु, (एक मुक्त कविता)
काम और युद्ध प्रवृत्ति में बंधा मैं,
हमेशा हिंसा करने को आतुर,
काम-वासना में लिप्त,
पशु जैसा ही तो हूँ मैं,
अंतर है तो बस सामाजिक होने का।
पशु, जब जो चाहा,
उसे देता है अंजाम,
करता है हमला और हत्या,
विचार आते हैं मुझे भी,
चाहता हूँ पशु की तरह,
परन्तु अंजाम पूर्व सोचता हूँ,
बनाता हूँ सहमति,
अंतर है तो बस सामाजिक होने का।
अगर नहीं बनती है सहमति,
तो चढ़ा लेता हूँ,
चेहरे पर नक़ाब,
करता हूँ स्वयं से युद्ध,
नहीं हावी होने देता पशुता को,
चंद दे देते हैं अंजाम,
जब जो चाहा,
चाहे हो मतभेद,
बने रहते हैं पशु,
उनमें और मुझमें,
अंतर है तो बस सामाजिक होने का।
करते हैं जो अनैतिक कार्य,
काम-वासना और उत्तेजना में,
और पाए जाते हैं लिप्त,
किसी वारदात में,
किस में नहीं है,
काम-वासना और उत्तेजना,
परन्तु अंजाम पूर्व,
मैं सोचता हूँ,
क्योंकि मैं हूँ,
सामाजिक पशु,
अवसाद, परिवेश और संगती,नहीं बनने देते सामाजिक पशु,
अपराधी और मुझ में
अंतर है तो बस सामाजिक होने का।
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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