बैधनाथ धाम एवं वैशाली गणराज्य की यात्रा
भाग-2
बैधनाथ धाम की यात्रा वृतांत
सभी धर्मों में मनौती मानने की प्रथा है। जब किसी कठिन कार्य जो केवल आपके कर्म पर आधारित न हो कर, भगवद् कृपा पर भी निर्भर हो तो लोग मनौती मानते हैं। ऐसे तो प्रत्येक कार्य बिना भगवद् कृपा के संपन्न नहीं हो सकती। खैर! यह विश्वास का मामला है, मौका मिला तो विस्तार में चर्चा होगी। हँ! मनौतियों के बारे में मेरी एक धारणा है कि कठिन कार्य सफलता पूर्वक संपादित होने के फलस्वरूप इच्छित मनोकामना पूर्ण होने के बाद लोग अक्सर मनौती या तो भूल जाते हैं या उसको पूरा करने में किसी न किसी कारण से टाल-मटोल करते है और जब सभी तरफ से निश्चिंत हो जाते हैं तो मनौती याद आती है और इस तरह मनौती को पूरा करने में वर्षों लग जाते हैं।
मैंने
यहाँ मनौती का जिक्र इसलिए
किया कि मेरी इस यात्रा का
संबंध भी मनौती से है। हुआ यूँ कि जब
मेरी शादी तय हुई तो मेरे श्वसुर
जी ने यह मनौती मानी कि शादी
के बाद वे सपरिवार,
अपनी इकलौती
बेटी अर्थात् मेरी श्रीमति
जी एवं दामाद अर्थात् मैं, बाबा
बैधनाथ के समक्ष हाज़िर होंगे। और जैसा मैंने
ऊपर अपनी धारणा के बारे में
लिखा है उसी के अनुरूप जब उनके
दोनों बेटों की भी शादी और
उनके भी बच्चे हो गए तो मनौती
को पूर्ण करने का मौका मिला
और इसी मंशा को लेकर मैंने
अपनी यात्रा का शुभ-आरंभ
पंजाब से 15 जून
को शुरू किया। 18 जून
को मुजफ्फरपुर से देवघर का
सफ़र, निजी
वाहन से प्रातः 7
बजे प्रारंभ
हुई। बिहार
की राष्ट्रीय-राज्य
मार्ग की स्थिति अच्छी होने
के कारण सफ़र आरामदायक रहा। रास्ते में
बारिश होने के कारण मौसम भी
सुहाना हो गया। गर्मी
एवं धूल के कारण जो पेड़ मुरझाये
से लग रहे थे बारिश से धुल जाने
पर वही पेड़ चमक रहे थे और ऐसा
लग रहा था मानो बारिश होने की
ख़ुशी में वे हमलोगों के साथ
झूम रहे हैं। झमाझम
बारिश में चमकती काली सड़क पर
सरपट दौड़ती गाड़ी में से प्रकृति
को गोल-गोल
नाचते हुए देखना एक सुखद अनुभव
होता है। यात्रा
के दौरान हमलोग राष्ट्र कवि
रामधारी सिंह “दिनकर” के
जन्म-स्थली
सिमरिया
से गुजरे। यहाँ से गुजरते
वक्त मेरा कवि ह्रदय और हिंदी
प्रेमी मन वहाँ रुकने को बेचैन
हो रहा था। परंतु समयाभाव के
कारण ऐसा संभव न हो सका। तभी थोड़ी देर बाद दिनकर
चौक (जीरो
माइल, बेगुसराय
एन.एच.
31) पर राष्ट्र
कवि रामधारी सिंह “दिनकर” की
आदम कद प्रतिमा को देखा तो
वहाँ उनको नमन करने का लोभ
सवाँर न सका। वहाँ
कुछ पल के लिए रुके मैं तो भावुक
हो रहा था। इसी
बीच मेरे पुत्र कृष्ण ने उनकी
कुछ तस्वीरें ली।
इसके कुछ देर
बाद ही गंगा नदी का दर्शन और
उसके ऊपर दो तले राजेन्द्र
सेतु से गुजरने का अनुभव अनोखा
था। नीचे
के तले पर रेलगाड़ी के गुजरने
से हो रही कंपन को हमलोग ऊपर
के तले जा रही अपनी गाडी में
महसूस कर रोमांचित हो रहे थे
और उतनी ऊचाई से गंगा नदी का
विहंगम दृश्य का अवलोकन करना
अपने-आप
में अदभुत था। इसके
बाद झारखंड राज्य में प्रवेश
किया तो ऐसा लगा जैसे प्रकृति
ने करवट ले ली हो। मैदानी इलाका
पथरीले टीलों, पहाड़ों
एवं जंगलों में तबदील हो गए। बस्तियां सघन
से विरल होती चली गई। कई-कई
किलोमीटर की दूरी पर घर,
होटल या
पेट्रोल-पंप
दिखाई दे रहे थे परंतु हरियाली
का साथ यदा-कदा
ही छूट पाया। इन्हीं
नजारों में खोए शाम को 5
बजे देवघर
पहुँचे। जहाँ
हमलोग रुके थे वहाँ से मंदिर
का प्रांगन 300 मीटर
की दुरी पर था अतः हमलोग तैयार
हो कर बाबा बैधनाथ का श्रृंगार
देखने को निकल पड़े। बाबा का श्रृंगार
संध्या के समय शुरू होता है। बाबा का अद्वितीय स्वरूप के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त
हुआ। शिवलिंग
के ऊपर फूलों का मुकुट और मुकुट
के ऊपर फूलों से ही बनी शेषनाग
की आकृति, कलात्मक
रूप से बनाई गई थी। फूलों का यह
मुकुट वहाँ के कैदियों द्वारा
बनाया जाता है और वह बाबा के
श्रृंगार का हिस्सा बनता है।
19 जून
को सुबह हमलोग तैयार होकर बाबा
को जल चढाने लिए चल दिए। मंदिर में
काफी चहल-पहल
थी। जगह-जगह
पर माली फूल, माला,
बेलपत्र आदि
से सजे पत्ते के दोने बेच रहे
थे। जगह-जगह
पर पंडे थे। कहीं
श्रृंगार का सामान बिक रहा
था, कहीं हवन हो रहा था। बाबा
के मुख्य द्वार के सामने ऊँचे
स्थान पर विशेष हवन हो रहा
था। फोटोग्राफर
बहुतायत की संख्या में मौजूद
थे, जो फोटो खींच कर आपको पाँच
मिनट में फोटो का प्रिंट भी
दे जाते हैं। सुबह
हो या शाम बाबा के दरबार में
मेला लगा ही रहता है।
हमलोगों ने
फूल, माला,
बेलपत्र आदि
से सजे पत्ते के दोने ख़रीदे
और लोटे में जल भरकर चल पड़े
बाबा को जल चढाने। कतारबद्ध हो
कर सभी मंदिर के गर्भ गृह में
प्रवेश कर रहे थे। कतार में कोई
मंत्र का जाप कर रहा था तो कोई
बम-बम
भोले का नारा लगा रहा था। बाबा का साक्षात्
दर्शन बिना कष्ट के संभव नहीं
था। अतः मुझे थोड़ा सा धक्का लगा और जब मैं चेतन
अवस्था में आया तो साक्षात्
शिव जी मेरे सामने दिख रहे थे। मैंने जल और
फूल, माला,
बेलपत्र आदि
चढ़ा कर भाव-विभोर
होते हुए बाबा का दर्शन कर
माता सती एवं दुर्गा जी का
दर्शन किया और मंदिर की परिक्रमा
कर उत्तर द्वार जिसे सिंह
द्वार भी कहते हैं से होते हुए
शिव-गंगा
सरोवर को देखा। सुबह
8 बजे
हमलोग बाबा बासुकी नाथ के लिए
चल पड़े जो देवघर से 46
कि.मी.
पर स्थित है। कहते हैं कि
बाबा बैधनाथ धाम यात्रा का
संपूर्ण लाभ तब तक नहीं मिलता
जब तक बाबा बासुकी नाथ का दर्शन
न हो जाए। बाबा
बासुकी नाथ के मंदिर की संरचना
थोड़ी सी बाबा बैधनाथ से भिन्न
थी परंतु अन्य सभी स्थिति बाबा
बैधनाथ मंदिर के सामान थी।
हमलोगों ने
बाबा बासुकी नाथ जी एवं पार्वती
जी का दर्शन किया और मंदिर की परिक्रमा कर बाहर आ गए। वहीँ
स्थानीय व्यंजन का लुत्फ़ उठा
कर त्रिकुट पर्वत के लिए चल
पड़े जो लौटने में देवघर के
रास्ते में पड़ता है।
त्रिकुट
पर्वत, देवघर
से 18 कि.मी.
पर स्थित है
और मुख्य मार्ग से उतर कर लगभग
1 कि.मी.
जाना पड़ता
है। पर्यटक
को पहाड़ के ऊपर जाने की लिए
रोप-वे.
बनाया गया है, जिसका प्रति सवारी आने-जाने
का किराया 80 रु
है। बच्चे
रोप-वे
पर चढ़ने के लिए अति उत्साहित
हो रहे थे। परन्तु
जब हमलोग सुबह करीब 11
बजे त्रिकुट
पर्वत के टैक्सी स्टैंड पर
पहुँचे तो वहाँ आकाश में काले
मेघों का साम्राज्य था। ठंडी हवाएँ
जोरो से चल रही थी। वहाँ का नज़ारा
बहुत ही लुभावना लग रहा था
परन्तु बच्चे आशंकित थे कि कहीं
बारिश हुई तो रोप-वे
कार्यक्रम पर पानी फिर जाएगा। बच्चे तब और निराश
हो गए जब वहाँ के स्थानीय लोगों
ने कहा कि मौसम खराब होने पर
रोप-वे
की सेवा बंद हो जाती है। श्रीमती जी
भी स्थानीय लोगों की बात से
सहमत थी और वे रोप-वे
की सवारी करने से इनकार कर दी। इतना नजदीक
आकर दर्शनीय स्थल ना देखूं ये
मेरे घुमाक्करी स्वभाव के
विपरीत था। इसलिए
मैंने कहा कि रोप-वे
स्टेशन चलते है अगर बंद हुआ
तो हमलोग वापस आ जायेंगे। यह सुनकर बच्चों
में उत्साह की लहर दौर पड़ी। हमलोग अभी
चलना शुरू किए थे कि बूंदा-बांदी
शुरू हो गई। सब
जल्दी-से-जल्दी
रोप-वे स्टेशन पहुँचना चाह रहे थे। परन्तु अभी दस कदम ही बढ़े थे कि मूसलाधार बारिश शुरू हो
गई। करीब
आधे घंटे के बाद बारिश बंद हुई
तो हमलोग रोप-वे
की तरफ चल पड़े। रोप-वे
की सेवा चल रही थी। अतः
हमलोग टिकट ले कर त्रिकुट
पर्वत पर आ गए। वहाँ
के स्थानीय गाईड ने कहा कि
गाईड के बिना आपलोग सभी जगह
घूम नहीं पाएँगे। मैं किसी भी
पर्यटक स्थल पर गाईड लेना पसंद
नहीं करता हूँ। अतः
मैंने मना कर दिया परन्तु मेरे
साले साहब ने 100 रु.
में उसी गाईड
को साथ ले लिया क्योंकि रोप-वे
के नियमानुसार 1
घंटे के अन्दर
रोप-वे
से नीचे उतरना भी था। जंगल में पगडंडी पर चलना, भ्रमण को रोमांचकारी
बना रहा था। वहाँ
सात मुख्य दर्शनीय स्थल हैं। दो स्थान देखने
के बाद लगा कि गाईड को बेकार
ही साथ लिए। ऐसे
गाईड बहुत ही व्यवहारिक एवं
खुश मिज़ाज के साथ बढ़िया फोटोग्राफर
भी था। उसने
बहुत सी कलात्मक तस्वीरें भी खींची। ऐसे
त्रिकुट पर्वत एक रमणीक स्थल
है और घूमने में आनंद आ रहा
था। गाईड
के प्रति मेरा उस समय नजरिया
बदल गया जब उसके सहारे 100 फुट ऊँचे पहाड़
पर हमलोग चढ़ पाए अन्यथा हमलोग
वहाँ पहुँच नहीं पाते और
पर्वतारोहण का रोमांचक एहसास
से वंचित रह जाते।
अतः आप जब भी
त्रिकुट पर्वत जाएं तो गाईड
को अवश्य साथ लें। बच्चों के
साथ-साथ
हम बड़े भी त्रिकुट पर्वत के
सैर का आनंद लेकर वापस नीचे
आए और नौलखा मंदिर के लिए चल
पड़े जो देवघर से 1.5
कि.
मी.
पर स्थित है। रथ के आकार का
यह कृष्ण का मंदिर बेलूर के
रामकृष्ण मंदिर से मिलता-जुलता
है। देखने
में मंदिर बहुत ही भव्य है और
इसके प्रांगण में बैठने पर
आत्मिक शान्ति का अनुभव हो
रहा था।
20 मई
को मेरी शादी का सालगिरह थी
अतः सुबह नियत प्रोग्राम के
तहत हमलोग बाबा को जल चढ़ा कर
वापस अपने घर को चल दिए।
हमलोगों ने बाबा बासुकी नाथ जी एवं पार्वती जी का दर्शन किया और मंदिर की परिक्रमा कर बाहर आ गए। वहीँ स्थानीय व्यंजन का लुत्फ़ उठा कर त्रिकुट पर्वत के लिए चल पड़े जो लौटने में देवघर के रास्ते में पड़ता है।
देवघर
के लिए मुख्य रेलवे स्टेशन
जसीडिह है. अगर
काँवर लेकर नहीं जाना हो तो
श्रावण के महीने में देवघर न
जाए क्योंकि इन दिनों लाखों
कि संख्या में शिव-भक्त
बाबा को जल चढ़ाने पहुँचते है।
अगले अंक में आप पढेंगे कि क्यूँ रावण कैलाश पर्वत से भगवान शिव को लंका लाना चाहता था एवं श्री वैधनाथ धाम की स्थापना कैसे हुई?
बम-बम भोले आप सभी पर कृपा करें.
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव
No comments:
Post a Comment
मेरे पोस्ट के प्रति आपकी राय मेरे लिए अनमोल है, टिप्पणी अवश्य करें!- आपका राकेश श्रीवास्तव 'राही'