जब तेरी इक, झलक, दिख जाती है मुझे,
कोई अपना सा, दिल को, लगता है।
अपनी चाहत को, बंदिशें, दे दी हमने,
प्यार के इजहार से, डर, लगता है।
तेरे बारे में मेरे, जज्बात, बयाँ करने को,
मेरी जुबां को सही, अल्फाज़, नहीं मिलते।
बस इक मुलाक़ात का, इंतज़ार, है मुझको,
मुझे यकीं है मेरे, जज्बात, को आँखें ही बयां कर देंगी।
नसीब देखिये कि, हालात, ऐसे हो ही गए,
उनसे मुलाक़ात की कोई, सूरत, नहीं मिलती।
मुद्दतों बाद, मुलाक़ात, हुई भी उनसे,
नज़रें मिलाने की, हिम्मत नहीं मिलती।
उन्हीं के ख्यालों में, जी, रही थी अब तक,
वो मेरे सामने और, आँखें, शर्मों-हया से खुली ही नहीं।
कानों में रागिनी सी गूंजी, हमसफ़र, तुम बनोगी मेरी,
दुआ मेरी कुबूल हुई, न जुबां खुली न ही नज़रें मिली।
-राकेश कुमार श्रीवास्तव
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