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Friday, December 22, 2017

परिवेश





  



  









परिवेश - (एक मुक्त कविता)


जाड़े की नर्म धूप,
खो दी है तुमने,  
अपने हिस्से की। 

तुम्हें पसंद है,
वातानुकूलित परिवेश,
और छूट गया साथ,
जिसे तुम चाहते हो। 

तुम चाहते हो शांति,
तुम छुप जाते हो अपने,
वातानुकूलित विचारों में,
और दिखते हो शांत,
पर तुम्हें नहीं मिलती,
जिसे तुम चाहते हो। 

ऐसा नहीं है कि,
जो तुम्हें मिला वो,
तुम्हारी पसंद नहीं थी। 

वक्त की गर्त में,
धूल की ऐसी परतें,
जम गई है विचारों में,
बन गए हो खुदगर्ज,
नहीं सोचते उसके बारे में,
जिसे तुम चाहते हो। 

जब भी झुलस जाते हो,
वातानुकूलित विचारों से,
और पाते हो खुद के, 
रिश्तों में सर्द मौसम। 
  
नहीं देना चाहते हो,
पर दे जाते हो दुःख,
जिसे तुम चाहते हो। 

अब निकलो तुम अपने,
वातानुकूलित परिवेश से। 

दोनों के विचारों से,
बनाओ नया परिवेश। 

दूर करो उसके आँखों के
सामने छाये कोहरे को,
और कह दो ज़ुबाँ से,
चाहिए नर्म धूप उससे,
जिसे तुम चाहते हो। 

-© राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

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