शिमला बस स्टैंड के सामने का दृश्य |
मेरी इस रचना की अवधारणा मेरे शिमला प्रवास के दौरान आई। पहाड़ों की दुर्दशा को देख प्रकृति प्रेमियों के घायल मन से उपजी गज़ल :
शिमला – जो देखने मैं गया
बरसों बाद मैं पहाड़ से मिला,
लहूलुहान था, जब मुझको मिला।
जिस पहाड़ को देखने मैं गया,
मुझको यारों, ना मिला, ना मिला।
चले करने, दर्शन शिखर हिम का ,
मुझको वो भी, ना मिला, ना मिला।
रंग-बिरंगे मकान के पीछे,
अस्मत छुपाते हिम, मुझको मिला।
गीत चिड़ियों की तो बात छोड़ो,
दर्शन कौओं का मुझे ना मिला।
छीन कर बसेरा सब चिड़ियों का,
रहने को आसरा, मुझको मिला।
ख़ाक छानता रहा इस शहर की,
मूल शख्स अमीर, मुझे ना मिला।
थी तलाश मासूमियत की मुझे,
एक भी आदमी, मुझको न मिला।
दर्द ये बस हिम का नहीं “राही”,
हर शहर मुझको, ऐसा ही मिला।
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"