शरद पूर्णिमा
देखूँ चमकते चाँद-तारों को,तेरे ही आँचल के साये में,
इस तरह जब भी मैं तुझे देखूँ,
शर्म से छुपता, चाँद बादल में।
शरद की ठंडी हवा का झोंका,
और तेरा उड़ता हुआ आँचल,
तुम्हें देख कर याद आता है,
आवारा बादल व चाँद चंचल।
तेरी ख़ामोशी को क्या समझूँ ?
खामोशी में सुंदर दिखती हो,
थोड़ी देर मुखर हो जाओ तुम,
कि मेरी अभिलाषा साकार हो।
तुम सिमटी आई हो, बाहों में,
दिल पर रहा नहीं मेरा काबू,
खुला आसमां, चाँद और तारे,
और मैं हो रहा था बेकाबू।
तुम थी, था बेकाबू मन मेरा,
थी साँसें,सुलगता जिस्म तेरा,
शरीर से आत्मा तक तब पहुँचा,
इक लंबा गहरा चुम्बन तेरा।
इन्हीं सब यादों को सीने में,
यूँ ही संजोया मैंने अबतक,
इसी के सहारे जिंदा हूँ मैं,
देखें! ये साँस चलेगी कबतक।
-© राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
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