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Saturday, February 25, 2017

समरथ के नहीं दोष गोसाई - भाग -2


समरथ के नहीं दोष गोसाई 

भाग -2 (अंतिम भाग) 
भाग - 1 पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-

अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे इन्द्र राजभोग से विरक्त हो मोक्ष प्राप्ति हेतु कैलाश पर्वत पर शिव की आराधना करने पहुँचे और एक दिन मानसरोवर के तट पर कुबेर की पत्नी चित्रसेना को देख मोहित हो गए और कामदेव की मदद से चित्रसेना को काम-वासना वशीभूत कर अपने साथ मन्दराचल के एक अज्ञात कन्दरा में लेकर आए। पूरा पढ़ने के लिए ऊपर दिए गए  लिंक को क्लिक करें।  

अब आगे -

इधर, इन्द्र जब चित्रसेना को लेकर मन्दराचल चले आए, तब उसकी संगनी स्त्रियाँ उसे साथ लिए बिना ही यक्षराज कुबेर के समीप घबराई हुई पहुँची और बोलीं-“यक्षपते ! आपकी भार्या चित्रसेना को किसी अज्ञात पुरुष ने पकड़ कर विमान पर बिठा लिया और चारों ओर सशंक-दृष्टि से देखता हुआ वह चोर बड़े वेग से कहीं चला गया है।

विष के समान दुस्सह प्रतीत होने वाली इस बात को सुनने से धनाधिप कुबेर का मुँह काला पड़ गया। उस समय उनके मुख से कोई बात नहीं निकली। इसी समय चित्रसेना की सहचरी श्रेष्ठ यक्ष-कन्याओं से यह समाचार जानकर कुबेर का मंत्री कंठकुब्ज भी अपने स्वामी का मोह दूर करने के विचार से आया। उसका आगमन सुन राजाराज कुबेर ने आँखें खोल कर उसकी ओर देखा और लंबी साँस खींचते हुए अपने चित्त को यथासंभव शीघ्र सँभालकर दीनभाव से बोले। उस समय उनका शरीर भय और क्रोध से काँप रहा था।
वे कहने लगे – “वही यौवन सफल है, जिससे युवती का मनोरंजन हो सके; दान वही सार्थक है, जो आत्मीय जनों के उपयोग में आ सके। जीवन वह सफल है, जिसे सद्धर्म किया जाए और प्रभुत्व वही सार्थक है, जिसमें युद्ध और कलह के मूल नष्ट हो गये हों। इस समय मेरे इस विपुल धन को, मेरे इस विशाल राज्य को और मेरे इस जीवन को धिक्कार है। अभी तक मेरे इस अपमान को कोई नहीं जानता, अतः इसी समय अग्नि में जल मरूँगा। पीछे यदि इस समाचार को लोग जान लें तो क्या ? मृत पुरुषों का क्या अपमान होगा? हा ! वह मानसरोवर के तट पर गिरजा-पूजन के लिए गई थी जो यहाँ निकट ही था और मैं जीवित भी था, तो भी किसी ने हर लिया। हम नहीं जानते वह कौन है, पर अवश्य ही उस दुष्ट को मृत्यु का भय नहीं होगा। ”

स्वामी की यह बात सुनकर उसका मोह दूर करने के लिए कुबेर के उस मन्त्री कंठकुब्ज ने यह वचन कहा- “नाथ! सुनिए, स्त्री के वियोग में शरीर-त्याग करना आपके लिए उचित नहीं है। पूर्वकाल में भगवान् श्री रामचंद्र जी की एक मात्र पत्नी सीता को भी निशाचर रावण ने हर लिया था, परन्तु श्री रामचंद्र जी ने प्राण नहीं त्यागा। आपके यहाँ तो अनेक स्त्रियाँ हैं, फिर आप मन में यह कैसा विषाद ला रहें हैं? यक्षराज ! शोक त्याग कर पराक्रम में मन लगाइये; धैर्य धारण कीजिये। साधू पुरुष बातें नहीं बनाते और न बैठकर रोते ही हैं; वे दूसरों के द्वारा परोक्ष में किए हुए अपने अपमान को उस समय चुपचाप सह लेते हैं। वित्तपते ! महापुरुष समय आने पर महान कार्य कर दिखाते हैं। आपके तो अनेक सहायक हैं, आप क्यों कातर हो रहें हैं? इस समय तो आपके छोटे भाई विभीषण स्वयं ही आपकी सहायता कर सकते हैं।
कुबेर बोले- विभीषण तो मेरे विपक्षी ही बने हुए हैं, वे अब भी मेरे साथ कौटुम्बिक विरोध का त्याग नहीं करते। यह निश्चित बात है की दुर्जन पुरुष उपकार करने पर भी प्रसन्न नहीं होते, वे इन्द्र के वज्र के सदृश कठोर होते होते हैं। सगोत्र का मन उपकारों से, गुणों से अथवा मैत्री से भी प्रायः प्रसन्न नहीं होते।

यह सुनकर कंठकुब्ज ने कहा - “धनाधिनाथ ! आपने ठीक कहा है. विरोध होने पर सगोत्र पुरुष अवश्य ही परस्पर घात-प्रतिघात करते हैं, तथापि लोक में उनका प्रभाव नहीं देखा जाता; क्योंकि कुटुम्बी जन दुसरे के द्वारा किए हुए अपने बन्धुजन के अपमान को नहीं सा सकते। जिस प्रकार सूर्य की किरणों से तप्त हुआ जल अपने भीतर के तृणों को नहीं जलाता; उसी प्रकार दूसरों से अपमानित कुटुम्बी जन अपने पार्श्ववर्ती बंधुओं को नहीं सताते। इसलिए धनाधिप ! आप बहुत शीघ्र विभीषण के पास चलिए। जो लोग अपने बाहुबल से उपार्जित धन का उपभोग करते हैं, उन्हें भाई-बन्धुओं के साथ क्या विरोध हो सकता है। ”

अपने मंत्री कंठकुब्ज के इस प्रकार कहने पर कुबेर मन-ही-मन उस पर विचार करते हुए शीघ्र ही विभीषण के पास गए। लंकापति विभीषण ने जब ज्येष्ठ भ्राता का आगमन सुना, तब उन्होंने बड़ी विनय के साथ उनकी अगवानी की। फिर विभीषण ने अपने भाई को जब दीन दशा में देखा, तब उन्होंने मन-हि-मन दुखी होकर उनसे यह महत्वपूर्ण बात कही।

विभीषण बोले-“ यक्षराज ! आप दीन क्यों हो रहे हैं? आपके मन में क्या कष्ट है? इस समय आप उस कष्ट को मुझे बताइये। मैं निश्चय ही उसका मार्जन करूँगा। "

तब कुबेर ने एकांत में जाकर विभीषण से अपनी मनोवेदना बतलाई .

कुबेर बोले- भाई! कुछ दिनों से मैं अपनी मनोरमा भार्या चित्रसेना को नहीं देख रहा हूँ। न जाने उसे किसी ने पकड़ लिया या स्वयं किसी के साथ चली गई अथवा किसी शत्रु ने उसे मार डाला।  बन्धो ! मुझे अपनी स्त्री के वियोग का महान कष्ट हो रहा है। यदि वह प्राणवल्लभा न मिली तो मैं प्राण त्याग दूँगा।

विभीषण बोले - “प्रभो! आपकी भार्या कहीं भी होगी, उसे मैं लाकर दूँगा। नाथ! इस समय संसार में किसकी सामर्थ्य है जो हमारा तृण भी चुरा सके।”

यह कहकर विभीषण ने नाना प्रकार की माया के ज्ञान में बढ़ी-चढ़ी “नाडीजंघा” नाम की निशाचरी से बहुत कुछ कहा और बताया – “कुबेर की जो “चित्रसेना” नाम की पत्नी है, वह एक दिन जब मानसरोवर के तट पर थी, तभी वहाँ से किसी ने उसे हर लिया. तुम इन्द्र आदि लोकपालों के भवनों में देखकर उसका पता लगाओ।”

तब वह निशाचरी मायामय स्त्री शरीर धारण कर इन्द्रादि देवताओं के भवनों में खोज करने के लिए शीघ्र ही स्वर्गलोक गई। उस निशाचरी ने ऐसा सुन्दर रूप बनाया था, जिसकी एक ही दृष्टि पड़ने से पत्थर भी मोहित हो सकता था। अवश्य ही उस समय वैसा मोहनी रूप चराचर जगत में कहीं नहीं था। इसी समय देवराज इन्द्र भी चित्रसेना के भेजने से उतावले हो कर नन्दन वन के दिव्य पुष्प लेने के लिए मन्दराचल से स्वर्ग लोक में आए थे। वहाँ अपने स्थान पर आई हुई उस अत्यंत रूपवती रमणी को जो मधुरगान गा रही थी, देख देवराज भी काम के वशीभूत हो गए। तब इन्द्र ने उसे जैसे भी हो , अपने अन्तःपुर में बुला लाने के लिए देव-वैद्य अश्वनी कुमारों को उसके पास भेजा।

दोनों अश्वनी कुमार उसके सामने जाकर खड़े हुए और कहने लगे-“ कृशांगी ! आओ, देवराज इन्द्र के निकट चलो।”

उन दोनों के द्वारा यों कहे जाने पर उस सुन्दरी ने मधुर वाणी में उत्तर दिया।

नाडीजंघा बोली- यदि देवराज इन्द्र स्वयं ही मेरे पास आयेंगे तो मैं उनकी बात मान सकती हूँ; अन्यथा बिलकुल नहीं।

तब अश्वनी कुमारों ने इन्द्र के पास जाकर उसका शुभ संदेश कहा।
तब इन्द्र स्वयं आकर बोले - कृशांगी ! आज्ञा दो! मैं इस समय तुम्हारा कौन सा कार्य करूँ ? मैं सदा के लिए तुम्हारा दास हो गया हूँ; तुम जो मांगोगी, वह सब दूँगा।

कृशांगी ने कहा - नाथ! यदि आप मेरी माँगी हुई वास्तु अवश्य दे देंगे तो निःसंदेह मैं आपकी वश में रहूँगी। आज आप अपनी समस्त भार्याओं को मुझे दिखाइए; देखूँ, आपकी कोई भी स्त्री मेरे रूप के सदृश्य है या नहीं?

उसके यों कहने पर इन्द्र ने पुनः कहा-“देवी! चलो, मैं तुम्हे अपनी समस्त भार्याओं को दिखाउँगा।”

यह कह कर इन्द्र ने उसी समय उसे अपना सारा अन्तःपुर दिखाया.

तब उस सुन्दरी ने पुनः कहा - “अभी मुझसे कुछ छुपाया गया है. केवल एक युवती को छोड़ कर और सब आपने दिखा दिया।”

इन्द्र ने कहा – “वह मन्दराचल पर है। देवता और असुर किसी को भी उसका पता नहीं है। मैं उसे भी तुम्हें दिखा दूँगा, परन्तु यह रहस्य किसी पर प्रकट न करना।”

यह कह कर देवराज इन्द्र उसके साथ आकाश मार्ग से मन्दराचल की ओर चले। जिस समय वे सूर्य के समान कान्तिमान विमान से चले जा रहे थे, उसी समय उन्हें आकाश में देवर्षि नारद का दर्शन हुआ।

नारद जी को देख कर वीरवर इन्द्र यद्यपि लज्जित हुए, तथापि उन्हें नमस्कार करके पूछा – “महामुने ! आप कहाँ जायेंगे ?”

तब मुनिवर नारद जी ने आशीर्वाद देते हुए स्वर्गाधिपति इन्द्र से कहा – “देवराज! आप सुखी हों, मैं इस समय मानसरोवर पर स्नान करने जा रहा हूँ।”

फिर उन्होंने नाडीजंघा को पहचान कर कहा - ”नाडीजंघे ! कहो तो महात्मा राक्षसों का कुशल तो है न ? तुम्हारे भाई विभीषण तो सुखपूर्वक हैं न?”

नारद जी की यह बात सुनते ही उसका मुख भय से काला पड़ गया।

देवराज इन्द्र भी बहुत आश्चर्य में पड़े और मन-ही-मन कहने लगे- “ इस दुष्ट ने मुझे छल लिया।”

नारद जी भी वहाँ से कैलाश पर्वत के निकट मानसरोवर में स्नान करने के लिए चले गए। तब इन्द्र भी उस राक्षसी का वध करने के लिए मन्दराचल पर जहाँ महात्मा तृणबिंदु का आश्रम था, आए और वहाँ थोड़ी देर विश्राम करके उस नाडीजंघा राक्षसी के केश पकड़ कर उसे मारना ही चाहते थे कि इतने में महात्मा तृणबिंदु अपने आश्रम से निकल कर वहाँ आ गए।

इधर इन्द्र के द्वारा पकड़ी जाने पर वह राक्षसी भी करुणा विलाप करने लगी- “हा! मैं मरी जा रही हूँ; इस समय कोई भी पुण्यात्मा पुरुष मुझ दीना को नहीं बचा रहा है।”

उसी समय महातपस्वी तृणबिन्दु मुनि वहाँ आ पहुँचे और इन्द्र के सामने खड़े हो बोले – “हमारे तपोवन में इस महिला को न मारो, छोड़ दो।”

तृणबिन्दु मुनि यों कह ही रहे थे कि महेन्द्र ने क्रुद्ध हो कर वज्र से उस राक्षसी को मार डाला।

तब मुनिवर इन्द्र की ओर बार-बार देखते हुए बहुत ही कुपित हुए और बोले – “रे दुष्ट! तुने मेरे तपोवन में इस युवती का वध किया है, इसलिए तू मेरे शाप से निश्चय ही स्त्री हो जाएगा।”
इन्द्र बोले – नाथ! मैं देवताओं का स्वामी इन्द्र हूँ और यह स्त्री महादुष्टा राक्षसी थी, इसलिए मैंने इसका वध किया है। आप इस समय शाप न दें।

मुनि बोले – अवश्य ही मेरे तपोवन में भी दुष्ट और साधु पुरुष भी रहते हैं, परन्तु वे मेरे तपोवन के प्रभाव से परस्पर किसी का वध नहीं करते। तू ने मेरे तपोवन की मर्यादा भंग की है, अतः तू शाप के योग्य है।

मुनि के यों कहने पर इन्द्र निःसंदेह स्त्री योनि को प्राप्त हो गए और पराक्रम तथा शक्ति खोकर स्वर्ग को लौट आए। उन्होंने सदा ही लज्जा और दुःख से खिन्न रहने के कारण देवताओं की सभा में बैठना छोड़ दिया। इधर देवता भी इन्द्र के स्त्री के रूप में परवर्तित हुआ देख कर बहुत दुःखी हुए। तत्पश्चात सभी देवता, दुखी शची और इन्द्र को साथ लेकर ब्रह्मा जी के धाम को गए।

जब तक ब्रहमा जी समाधि से विरत हुए, तब तक वे सभी वहीँ ठहरे रहे और इन्द्र के साथ ही सब देवता ब्रह्मा जी से बोले -“ब्रह्मन! सुरराज इन्द्र तृणबिन्दु मुनि के शाप से स्त्री योनि को प्राप्त हो गए हैं; वे मुनि बड़े क्रोधी हैं, किसी प्रकार अनुग्रह नहीं करते।”

ब्रह्मा जी बोले – इसमें उस महात्मा तृणबिन्दु मुनि का कोई अपराध नहीं है।  इन्द्र स्त्रीवध  रूपी अपने ही कर्म से स्त्रीभाव को प्राप्त हुए हैं। देवताओं ! देवराज इन्द्र ने भी मदमत्त होकर बड़ा ही अन्याय किया है, जो कुबेर की पत्नी चित्रसेना का गुप्त अपहरण कर लिया। यही नहीं, इन्होंने तृणबिन्दु  के तपोवन में एक युवती का वध किया है, अतः अपने इस निन्द्य कर्म के परिणाम स्वरुप ही ये इन्द्र स्त्रीभाव को प्राप्त हुए हैं।

देवगण बोले – नाथ! इन्होंने दुर्बुद्धि से प्रेरित होकर शंकरप्रिय कुबेर का अपमान किया है, उसके लिए हम सब लोग शची के साथ कुबेर को प्रसन्न करने का यत्न करेंगे। विभो! कुबेर की पत्नी मन्दराचल पर गुप्त रूप से रहती है, हम सभी लोग सम्मति करके उसे कुबेर को अर्पित कर देंगे। देवराज इन्द्र भी प्रति त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को नन्दन वन में शची को साथ लेकर यक्ष और राक्षसों की पूजा करेंगे।
तत्पश्चात शची अपने प्रियतम को कष्ट में डालने वाली चित्रसेना को गुप्तरूप से ले जाकर यक्षराज कुबेर के भवन में छोड़ आयीं।

इसी समय कुबेर का दूत असमय में ही लंका में पहुँचा और कुबेर से चित्रसेना के लौट आने का समाचार सुनाया – “हे धनाधिप ! आपकी प्रिय पत्नी चित्रसेना शची के साथ घर लौट आई है। वह शची जैसी अनुपम सखी को पा कर कृतार्थ हो चुकी है।”

तब कुबेर भी कृतकृत्य होकर अपने घर को लौट आए.इसके बाद देवगण पुनः ब्रह्मलोक में जा कर ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे।

देवगण बोले- ब्रह्मण !आपके कृपा से यह सारा काम तो हो गया, इसमें संदेह नहीं। परन्तु अब जैसे पति के बिना नारी, सेनापति के बिना सेना और कृष्ण के बिना व्रज की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार इन्द्र के बिना अमरावती सुशोभित नहीं होती। प्रभो! अब इन्द्र के लिए जप, क्रिया, तप, दान, ज्ञान और तीर्थ-सेवन आदि उपाय बताइए , जिससे स्त्रीभाव से इनका उद्धार हो सके। 
ब्रह्मा जी बोले – उस मुनि के शाप को अन्यथा करने में न तो मैं समर्थ हूँ और न भगवान् शंकर ही। इसके लिए एक मात्र भगवान् विष्णु के पूजन को छोड़ कर दूसरा कोई उपाय सफल नहीं दिख पड़ता। बस, इन्द्र अष्टाक्षर मन्त्र के द्वारा भगवान् विष्णु का विधिपूर्वक पूजन करें और उस मन्त्र का जाप करते रहें ; इससे वे स्त्रीभाव से मुक्त हो सकते हैं। इन्द्र! स्नान करके, श्रद्धायुक्त हो, आत्मशुद्धि के लिए एकाग्रचित से “ॐ नमो नारायणाय” मन्त्र का जाप करो। देवेन्द्र ! इस मन्त्र का दो लाख जप हो जाने पर तुम स्त्री-योनि से मुक्त हो सकते हो।

यह सुनकर इन्द्र ने ब्रह्मा जी की आज्ञा का यथावत पालन किया, तब वे भगवान् विष्णु की कृपा से स्त्रीभाव से छुटकारा पा गए। 

( सद्धर्म [सं-पु.] - उत्तम धर्म; उत्तम कर्म मानवता के लिहाज़ से जो करणीय हो ऐसा कर्तव्य।। )


गीता प्रेस के "श्रीनरसिंह पुराण" से साभार।


     







Wednesday, February 22, 2017

समरथ के नहीं दोष गोसाई - भाग -1

समरथ के नहीं दोष गोसाई 


“समरथ के नहीं दोष गोसाई” गोस्वामी तुलसीदास जी ने किस मंशा से यह दोहा लिखा और इसका अर्थ क्या है इस विवाद में मैं नहीं पड़ने जा रहा और ना ही ये मेरा विषय-वस्तु है। परन्तु हाँ! मेरा पूरा यकीन है कि समर्थ लोगों में कोई दोष नहीं होता है, होगा भी कैसे? हम जैसे लोग उनके कीर्ति बखान करने के लिए जो बैठे हैं। इनका दोष हमें तब दिखाई या सुनाई पड़ता है जब इनके समकक्षी या इनसे बड़ा समर्थवान अपने हित के लिए इन पर दोषारोपण लगाता है और इनके बड़े-से-बड़े अपराध की सजा बहुत ही छोटी होती है क्योंकि तंत्र के हमाम में ये सभी नंगे होते हैं। 

आज के लोकतंत्र में तो हमसभी अपने-आप को किसी न किसी स्तर के समर्थवान समझते हैं, परन्तु जिन लोगों से तंत्र प्रभावित हो वैसे ही समर्थ लोगों में कोई दोष नहीं होता है।  भारत में तंत्र को प्रभावित करने वाले समर्थवानों की संख्या अनगिनत है और इनके द्वारा किए गए अपराधों की फ़ेहरिस्त भी बड़ी लम्बी है और इन अपराधों का हश्र क्या होता है ये आप सब सुधि पाठकजन को मुझे बताने की जरूरत नहीं है। 

मेरा मानना है कि आमलोगों की इज्जत तब ही तक सलामत है जब तक किसी समर्थवान की बुरी नज़र उनकी इज्जत पर ना पड़ी हो। 

इसी तथ्य को उजागर करती श्रीनरसिंह पुराण की एक कथा आपके साथ साँझा करने जा रहा हूँ।  
भाग -1

सब प्रकार के भोगों को भोगने के बाद देवराज इन्द्र को मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हुआ। वे सोचने लगे – “यह निश्चित है कि वैरागी ह्रदय वाले मानव की दृष्टि में स्वर्ग के  राज्य का भी कोई महत्व नहीं होता और सत्ता का सुख विषयों के भोग में निहित है तथा भोग के अंत में कुछ भी नहीं रह जाता। यही सोच कर ज्ञानी जन सदा ही मोक्ष की प्राप्ति  के विषय में ही विचार करते हैं। सामान्य जन सदा भोग के लिए ही तप करते है और भोग के अंत में तप भी नष्ट हो जाता है। परन्तु जो लोग किसी कारण से विषय-भोग से विमुख हो मोक्षाधिकारी हो गए हैं, उन मोक्षभागी पुरुषों को न तप की आवश्यकता होती है न योग की। ”

ऐसा सोच कर ह्रदय में एक मात्र मोक्ष की कामना लिए देवराज इन्द्र क्षुद्रघंटिकाओं की ध्वनि से युक्त विमान पर आरूढ़ हो भगवान् शंकर की आराधना के लिए कैलाश पर्वत पर चले आए। एक दिन देवराज इन्द्र बिना किसी उद्देश्य के कैलाश पर्वत पर भ्रमण करते हुए मानसरोवर पहुँचे।  मानसरोवर के तट पर उन्होंने यक्षराज कुबेर की पत्नी  चित्रसेना को पार्वती जी का अराधना करते हुए देखा, उसकी काया  अनंग (कामदेव) के रथ की फहराती ध्वजा सी जान पड़ती थी . उसके अंग प्रसिद्ध “जम्बूनद” नामक सुवर्ण जैसी प्रभा बिखेर रही थी . उसके कटीले नयन मनोहर थीं, जो कानों के पास तक पहुँच गई थी. महीन वस्त्रों के भीतर से उसके मनोहर अंग इस प्रकार झलक रहे थे, मानो निहारिका के भीतर से चन्द्रलेखा दिख रही हो। इन्द्र ने अपने हज़ार नेत्रों से उस देवी को मुग्ध होकर निहारते रहे। वे उस स्त्री को देख इतने काम आसक्त हो गए कि दूर अपने आश्रम जाने का ख्याल ही नहीं रहा और देवराज इन्द्र विषयाभिलाषी होकर वहीँ खड़े हो गए। वे सोचने लगे – “पहले सर्वांग-सौन्दर्य के साथ उत्तम कुल में जन्म पा जाना ही बड़ी बात है, और उस पर भी धन तो सर्वथा ही दुर्लभ है। इन सब के बाद धनाधिप होना तो पुण्य से ही संभव है. स्वर्गलोक पर मेरा आधिपत्य है, फिर भी मेरे भाग्य में भोग भोगना नहीं है, इसलिए मेरे चित्त में मुक्ति की इच्छा उत्पन्न हुई। मोक्ष-सुख तो इस राज्य-भोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु क्या मोक्ष भी राज्य प्राप्ति का कारण हो सकता है? भला कोई अपने द्वार पर पके अन्न को छोड़ कर कोई जंगल में खेती करने क्यों जाएगा? जो सांसारिक दुःख से मारे-मारे फिरते हैं और कुछ भी करने की शक्ति नहीं रखते, वे अकर्मण्य, भाग्यहीन एवं मूढ़जन मोक्षमार्ग की इच्छा करते हैं। ”

बार-बार ऐसा विचार करके इन्द्र धनाधिप की पत्नी चित्रसेन के रूप पर मोहित हो गए। काम-वेदना से व्याकुल वे मानसिक धैर्य खो कर कामदेव का स्मरण करने लगे। इन्द्र के स्मरण करने पर अत्यंत कामनाओं से व्याप्त चित्तवृतिवाला कामदेव बहुत धीरे-धीरे डरता हुआ वहाँ आया, क्योंकि वहीँ पूर्वकाल में शंकर जी ने उसके शरीर को जला कर भस्म कर दिया था. जब किसी स्थान पर प्राण संकट में हो तो धीरतापूर्वक और निर्भय हो कर वहाँ कौन जा सकता है?

कामदेव ने आकर कहा – कौन आपका शत्रु बना हुआ है? शीघ्र आदेश दे विलम्ब ना करे, मैं अभी उसे आपत्ति में डालता हूँ।”

उस समय कामदेव के उस मनोभिराम वचन को सुन कर मन-ही-मन उस पर विचार कर के इन्द्र बहुत संतुष्ट हुए. अपने मनोरथ को सहसा सिद्ध होते जान वीरवर इन्द्र ने हँस कर कहा- “कामदेव! अनंग बन जाने पर भी तुम ने जब शंकर जी को भी आधे शरीर का बना दिया, तब संसार में दूसरा कौन तुम्हारे घात को सह सकता है? अनंग! जो गिरिजा पूजन में एकाग्रचित होने पर भी मेरे मन को आकर्षित कर रही है, उस विशाल नयनों वाली सुंदरी को तुम तुम एकमात्र मेरे अंग-संग की सरस भावना से युक्त कर दो।”
सुरराज इन्द्र के यों कहने पर उत्तम बुद्धि वाले कामदेव ने भी अपने पुष्पमय धनुष पर बाण रख कर मोहन मन्त्र का स्मरण किया। तब कामदेव द्वारा पुष्प-बाण से मोहित की हुई चन्द्रसेना काम के मद से विह्वल हो गई और पूजा छोड़ इन्द्र की ओर देख कर मुस्काने लगी. भला, कामदेव के धनुष की टंकार को कौन सह सकता है। इन्द्र उसको अपनी ओर आतुरता से देखने के कारण बोले – “चंचल नेत्रों वाली बाले! तुम कौन हो, जो पुरुषों के मन को इस प्रकार मोहे लेती हो? बताओ तो, तुम किस पुण्यात्मा की पत्नी हो?” इन्द्र के इस प्रकार पूछने पर उसके अंग काम-मद से विह्वल हो उठे। शरीर में रोमांच, स्वेद और कम्प होने लगे। वह कामबाण से व्याकुल हो गद्गद कंठ से धीरे-धीरे इस प्रकार बोली – “नाथ ! मैं धनाधिप कुबेर की पत्नी एक यक्ष-कन्या हूँ। पार्वती जी के चरणों की पूजा करने के लिए यहाँ आई थी। आप अपना कार्य बताइये; आप कौन हैं? जो साक्षात् कामदेव के समान रूप धारण किये यहाँ खड़े हैं?”

इन्द्र बोले –प्रिये! मैं स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ। तुम मेरे पास आओ और मुझे अपनाओ तथा चिरकाल तक मेरे अंग-संग रहने का शीघ्र ही अपनी सहमति दो, नहीं तो तुम्हारे बिना मेरा यह जीवन और स्वर्ग का विशाल राज्य भी व्यर्थ जाएगा। 

इन्द्र ने मधुर वाणी में जब इस प्रकार कहा, तब उसका सुन्दर शरीर कामवेदना से पीड़ित होने लगा और वह फहराती हुई पताकाओं से सुशोभित विमान पर आरूढ़ हो देवराज इन्द्र के कंठ से लग गई। तब स्वर्ग के राजा इन्द्र शीघ्र ही उसके साथ मन्दराचल की उन कंदराओं में चले गए, जहाँ का मार्ग देवता और असुर दोनों के लिए अभी तक अज्ञात था और जो रत्नों की प्रभा से प्रकाशित थी। आश्चर्य है कि देवताओं के राज्य के प्रति आदर न रखते हुए भी उदार पराकर्मी इन्द्र उस सुन्दर यक्ष-बाला के साथ वहाँ रमण करने लगे तथा काम के वशीभूत हो परम चतुर इन्द्र ने अपने हाथों से चित्रसेना के लिए शीघ्रतापूर्वक छोटी सी पुष्प शय्या तैयार की। कामोपभोग में चतुर देवराज इन्द्र चित्रसेना के समागम के स्वप्नमात्र से कृतार्थ का अनुभव करने लगे। स्नेहरस से अत्यंत मधुर प्रतीत होने वाला वह परस्त्री के आलिंगन और समागम का सुख उन्हें मोक्ष से भी बढ़ कर लगा। 


(कामदेव को अनंग भी कहा जाता है।
शची, इन्द्र की पत्नी हैं। )

क्रमशः  (शेष अगले भाग में )

गीता प्रेस के "श्रीनरसिंह पुराण" से साभार।

भाग - 2 (अंतिम भाग ) पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-

http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/02/2.html



Friday, February 17, 2017

कलम की आवाज़










कलम की आवाज़ 

ना तुम बनना साहित्यकार,
नहीं तुम बनना रचनाकार,
रोजी-रोटी ये ना देगी 
नहीं सपना होगा साकार,
ना तुम बनना साहित्यकार ......

पेशा कोई चल जाएगा,
तुम को सब कुछ मिल जाएगा,
सुख-समृद्धि तब घर में होगी 
होगा नौकर बंगला कार 
नहीं तुम बनना साहित्यकार ......

ब्लैक-मनी, रिश्वतखोरी की
अलग से  एक अलख जगाना,
भोग-विलास के सभी साधन
तुमको भी, घर में है लाना,
कोई भी भूखे मर जाए या
या कोई भी अस्मत लूटे  
तुम को इससे क्या लेना है
इसके लिए है रचनाकार,
नहीं तुम बनना साहित्यकार ......

अगर तुम फिर भी नहीं माने,
तो तब सुन लो फिर क्या होगा,
महफ़िल में तालियां बजेगी 
पर घर इससे नहीं चलेगा .

जगत की सारी समस्या पर 
कागज़ काला करते रहना 
भैसों के आगे बीन बजा
अपना सिर ही धुनते रहना 
फिर भी हौसला बचा हो तो 
फिर तुम बनना साहित्यकार.

दिखाते रहो आईना तुम
अब तुम्हीं समाज को जगाना
गरीब और मजलूम की भी
तुम को आवाज़ है उठाना 
तुम्हारी कलम ही है इनकी
मौन चीत्कार  की पहचान  
तुम ही बनना साहित्यकार......

समाजवाद का परचम कभी
जब आसमान पर लहरेगा,
ना किसी की अस्मत लुटेगी,
नहीं कोई भूखा मरेगा, 
सब सपने होंगे साकार,
तुम ही बनना साहित्यकार......

कभी तेरी कलम से इक दिन
इंसाफ़ का सूरज निकलेगा,
बेईमानों-रिश्वतखोरों 
को अवश्य ही सज़ा मिलेगा .
तुम ही बनना साहित्यकार......

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"


Tuesday, February 14, 2017

प्रेम-गीत









प्रेम-गीत 

जी ना सकूँगा तुम बिन मैं यारा,
गर तुने मुझको प्यार से पुकारा,
मैं तुमसे प्यार करूँगा,
ना इंकार करूँगा,
हो जाऊँगा मैं तुम्हारा ,
सुन ले तू ये मेरे यारा .

हम साथ चलें जैसे नदी और किनारा,
नहीं साथ छूटे कभी हमारा-तुम्हारा,
तुम बिन अब जी ना सकूंगा,
मैं तुमसे प्यार करूँगा,
हो जाऊँगा मैं तुम्हारा ,
सुन ले तू ये मेरे यारा .

जब तक है आसमां में चाँद और सितारा,
रौशन रहेगा तब तक प्यार हमारा,
मैं तुझे नाज़ से रखूंगा,
मैं तुमसे प्यार करूँगा,
हो जाऊँगा मैं तुम्हारा ,
सुन ले तू ये मेरे यारा .

मजे में चलेगी मेरे जीवन की धारा,
जबसे मिलेगा मुझे साथ तुम्हारा,
दिल में तुझे छुपा लूँगा,
मैं तुमसे प्यार करूँगा,
हो जाऊँगा मैं तुम्हारा ,
सुन ले तू ये मेरे यारा .

लो आ गई, तेरी बाहों में यारा,
नहीं छोड़ना कभी दामन हमारा,
मैं तुमसे प्यार करूँगी,
ना इंकार करूँगी,
हो जाऊँगी मैं तुम्हारी ,
सुन ले तू ये मेरे यारा .

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"



Thursday, February 9, 2017

पुस्तक समीक्षा-1

पुस्तक समीक्षा- “ज़िन्दा है मन्टो”



केदारनाथ ‘शब्द मसीह’ एवं के.बी.एस. प्रकाशन, दिल्ली की पुस्तक “ज़िन्दा है मन्टो” एक लघु-कथा संग्रह है। मन्टो का नाम ज़ेहन में आते ही एक बेबाक अफसानानिगार की छवि उभरती है और इस पुस्तक में लिखी सभी लघु-कथाओं को पढ़ते हुए शब्द मसीहा जी को पाठक, मन्टो के सांचे में ढलते हुए महसूस करते हैं। इसको कहने में मुझे कोई अतिश्योक्ति नहीं लगती कि शब्द मसीहा जी ने मन्टो की विचार-धारा को आगे बढ़ाने का काम इस पुस्तक के माध्यम से किया है। 


इस पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता इसकी कथाओं को पढ़कर सहज ही महसूस की जा सकती हैं। तथाकथित बोल्ड विषय पर लिखना कहाँ आसान होता है परन्तु शब्द मसीहा जी ने फूहड़ता से परहेज करते हुए इस विषय पर अपनी लेखनी से एक अलग ही छाप छोड़ी जो कहीं न कहीं पात्रों के मनोभाव को पाठक अपने अंतर्मन से महसूस करता है। बात जब बोल्ड विषयों पर लिखने की हो तो फूहड़ता का आरोप लगता रहा है और इससे मन्टो भी बच नहीं पाए थे परन्तु शब्द मसीहा जी ने अपने पात्रों की पीड़ा को संतुलित शब्दों का ज़ामा सभी कथाओं में पहनाया है।

इस लघु-कथा संग्रह में कुल 104 कथाएं हैं जो बिना रुके आपके चेहरे पर भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमा उकेरने में सक्षम है और सभी कथाओं को पढ़ने के बाद भी कथाओं के पात्र बार-बार आपको फिर से इस पुस्तक को पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं।

16 शब्दों की कथा अगर आपके ज़ेहन में सदा घूमती रहे तो ये कमाल करने का माद्दा शब्द मसीहां जी की लेखनी में है। इनकी कथा “सच” को पढ़ कर इस कमाल को महसूस कर सकते हैं।


केदारनाथ जी की दो काव्य संग्रह पूर्व में प्रकाशित हो चुके है और ‘ज़िन्दा है मन्टो’ इनका पहला कहानी संग्रह है जिसको पाठकों का भरपूर प्यार मिल रहा है।
नई पीढ़ी को अपनी लेखनी से मन्टो को परिचय कराने के लिए शब्द मसीहा जी को साधुवाद है।
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- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

Wednesday, February 1, 2017

श्रम एवं परिश्रम












 

श्रम एवं परिश्रम 

माँ ! मुझको तो आसमान में चाँद, गेंद जैसा दिखता है,
फिर क्यूँ ? रामू काका को यही चाँद, रोटी सा दिखता है।

माँ ! मुझको तो केवल, साफ़-सुथरा कपड़ा ही अच्छा लगता है,
फिर क्यूँ ? उनको  सिर्फ मैला व कुचैला कपड़ा अच्छा लगता है।

बेटा ! परिश्रम और श्रम करने में बहुत अंतर होता है,
साक्षर हो कर मेहनत करे जो वो सदा सुखी होता है।

बेटा ! श्रम करने वाले को केवल गेहूँ ही मिलता है,
परिश्रम करने वाले को गेहूँ और गुलाब मिलता है।

सरस्वती माँ की जो आराधना तन व मन से करता है,
विद्या पाकर वही  मानव सुखी जीवन-यापन  करता है।

माँ ! मैं तो रामू काका को लिखना पढ़ना सिखाऊंगा,
अज्ञानता का अँधेरा उनके जीवन से मिटाऊंगा।

श्रम किए बगैर किसी का  जीवन को जीना ही मुश्किल है,
किन्तु परिश्रम करने वालों का ही भविष्य भी उज्ज्वल है।



नोट-श्रम का तात्पर्य शारीरिक श्रम से होता है
        परिश्रम का तात्पर्य जिसमे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का श्रम से होता है

        गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।- "रामवृक्ष बेनीपुरी "

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"