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Wednesday, December 17, 2014

शहर

          





            

            शहर

पूर्णिमा की रात, फिर भी अँधेरा है यहाँ,
काले धुओं के पीछे, चाँद छुप जाता है यहाँ। 

अपने शहर को अब, मैं पहचानता नहीं,
पेड़-पौधों की जगह, अब ईट-गारा है यहाँ

जिस घर को ढूंढता, आया हूँ इतनी दूर से,
वो तो मिला नहीं, शॉपिंग मॉल अब है यहाँ

शहर के जहरीले धुओं में, सभी रिश्तेदारी मर गए,
रिश्तेदारी के नाम पर, पत्नी-बच्चे अब है यहाँ

मेरे आँगन में कभी, चाँद-सूरज आता नहीं,
रोशनी का नामों-निशां नहीं है, अँधेरा पसरा है यहाँ

चंद लोगों के एशो-आराम जुटाने के वास्ते,
पूरे शहर के लोग, काम पर जुट जाते हैं यहाँ

आँख मूंद कर इस शहर परविश्वास न करना तुम “राही”,
आस्तीन के सांप अक्सर पाये जाते हैं यहाँ


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही "

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