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Monday, December 2, 2013

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-4, अंतिम भाग )

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-4,अंतिम भाग )



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दार्जिलिंग
 


गतांक से आगे.......

गंगटोक से करीब शाम को 4:30 बजे दार्जिलिंग के लिए रवाना हुए।  सिक्किम यात्रा के दौरान हुए शारीरिक थकान के कारण यह सफ़र बोझिल के साथ-साथ भयावह लग रहा था क्योंकि जल्द ही आकाश पर अँधेरी रात का साम्राज्य स्थापित हो चुका था।  हमारी गाड़ी, जंगलों के बीच पहाड़ी रास्तों से होते हुए दार्जिलिंग की ओर बढ़ रही थी. रात 9 बजे के करीब हमलोग होटल पहुंचे और खाना खाकर रात 11 बजे बिस्तर पर निढाल होकर सो गए। 

     हमलोगों ने तय किया था कि सुबह 10 बजे दार्जिलिंग भ्रमण को निकलेंगे।  सुबह जब हमलोग उठे और बाहर का नज़ारा देखा तो हतप्रभ रह गए।  अदभुत नज़ारा हमलोगों को अभिभूत कर रहा था मानो किसी चित्रकार ने अपनी कृति के विशाल कैनवास को हमलोगों के सामने लटका दिया हो. सामने कुछ दुरी पर राज-भवन दिख रहा था।  अंग्रेजों के शासन-काल में दार्जिलिंग, ग्रीष्म-ऋतु में राजधानी हुआ करता था एवं अन्य ऋतु में कलकत्ता।  आज भी यह भवन दो सप्ताह के लिए पश्चिम बंगाल के गवर्नर का निवास स्थान होता है। 


     नियत समय पर हमलोग दार्जिलिंग भ्रमण के लिए निकले।  सुबह सबसे पहले बुद्ध मंदिर गए. इसे जैपनीज टेम्पल भी कहते है।  इस मंदिर के बगल में एक बहुत ही सुन्दर श्वेत रंग का शान्ति स्तूप है जिसमें चार सुनहरे रंग के बुद्ध कि मूर्ति एफ.आर.पी.(फाइबर री-इन्फोर्सड पलास्टिक) पदार्थ से बनी है जिसका मोल्ड, सुरदर्शन क्राफ्ट म्यूजियम उड़ीसा द्वारा सैंड स्टोन से बनाया गया था।  अन्य वास्तुशिल्प जापानियों द्वारा बनाया गया था. इस स्तूप का व्यास 23 मी. एवं उचाई 28 .5 मी.है। 



इसके बाद हमलोग लाल कोठी गए जिसे आजकल डी.जी.एस.सी. सेक्रेटेरीयेट कहते है।  लाल कोठी कभी दीवान राय की पत्नी रानी भवानी का निवास स्थान था एवं इसे गोरी विला के नाम से जाना जाता था।  यहाँ नाना प्रकार के फूल एवं पेड़ इस स्थल को रमणीक बना रहे थे।  यहाँ से दार्जलिंग का नज़ारा बहुत ही सुन्दर दिख रहा था।   बॉलीवुड की बहुत सी फ़िल्में इसके मनोरम स्थल होने का सबूत देते हैं।  यहाँ प्रवेश टिकट में ही वेलकम ड्रिंक के रूप में दार्जलिंग की चाय दी जाती है जिसको पीने के बाद हमलोग रॉक-गार्डेन के लिए रवाना हुए जिसकी दुरी शहर से लगभग 10 कि.मी. है।  शहर से निकलने पर घुमावदार रास्तों के अगल-बगल चाय-बागानों को निहारते हुए जब हमलोग रॉक-गार्डेन के प्रवेश-द्वार पर पहुंचे तो वहां प्राकृतिक झरना हमलोगों के स्वागत में मधुर संगीत के साथ बह रही थी।
 गोरखा के स्थानीय पोशाकों को हम सभी ने पहन कर झरने के किनारे नृत्य किया और जमकर फोटोग्राफी की।  रॉक-गार्डेन के प्राकृतिक सौन्दर्य के मोह-पाश से मुश्किल से निकलकर वहां से पद्मजा नायडू हिमालयन जू एवं हिमालयन मौन्टेयरिंग इंस्टिट्यूट देखने को निकले।  रास्ते में तेन्जिंग रॉक देखा जहाँ तेन्जिंग माउन्ट एवेरेस्ट फतह करने से पहले यहाँ अभ्यास किया करते थे।  आज भी HMI द्वारा ट्रेकिंग के पहले यहाँ प्रशिक्षण देते हैं।

 यहाँ का चिड़ियाघर की दो ख़ास बात अन्य चिड़ियाघर से अलग करती है, एक यहाँ का रेड पांडा एवं दूसरा एक्वेरियम का संग्राहलय।  चिड़ियाघर के आगे ही
HMI है. यहाँ पर्वतारोहण का प्रशिक्षण दिया  जाता  है।  इसकी स्थापना 19 मई 1953 में पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रयास से हुआ।  यहाँ पर्वतारोहण से सम्बंधित एक अजायबघर भी जो अपने आप में अनोखा है।  इसमें मॉडल द्वारा हिमालय की सभी चोटियों को आकर्षक ढंग से प्रदर्शित किया गया है साथ में हिमालय में पाए जाने वाले पशु-पक्षी एवं पर्वतारोहण में काम आने वाले पोशाक, औज़ार इत्यादि रोचक ढंग से प्रदर्शित किए गए है।  यहाँ आदम-कद का तेन्जिग शेरपा एवं एडमण्ड हिलेरी की मूर्ति भी है। 

इसके बाद आज के अंतिम पड़ाव चाय-बगान का नजदीक से दर्शन के लिए निकल पड़े।  चाय-बगान के अन्दर जाना अपने-आप में एक अनोखा अनुभव था। चाय-बगान में फोटोग्राफी करते-करते शाम हो गई।  हमलोग स्थानीय खरीदारी के लिए बाज़ारों में घूम रहे थे तभी हमलोगों को एक विशाल जुलूस दिखाई पड़ा।  सैकड़ों की तदाद में महिलाएं हाथों में मशाल लिए शांतिपूर्वक आगे बढ़ रही थी और “वी वांट गोरखालैंड” के नारे लगा रही थीं।  मैं इतना बड़ा प्रदर्शन बिना बाज़ार बंद किए हुए पहली बार देख रहा था।  करीब आधे घंटे के बाद प्रदर्शनकारी आँखों से ओझल हो गए लेकिन उनकी मांग, मधुर संगीत की तरह काफी देर तक सुनाई देती रही। 






अगले दिन सूर्योदय देखने टाइगर हिल जाना था जिसकी दुरी शहर से 13 कि.मी. एवं समुन्द्र तल से 8482 फीट के ऊँचाई पर स्थित है।  सूर्योदय देखने के लिए हमलोग सुबह 4 बजे टाइगर-हिल के लिए रवाना हो गए।  टाइगर-हिल से 2 कि.मी. पहले ही गाड़ियाँ कतारों में खड़ी थी।  जब हमलोग टाइगर-हिल पहुंचे तो वहाँ, लोगों के हुजूम को देखकर ऐसा लग रहा था जैसेकि यहाँ मेला लगा हो।  ठण्ड बहुत लग रही थी परन्तु स्थानीय महिलाओं द्वारा 10 रु. प्रति कप गरमा-गर्म कॉफी, पर्यटकों को राहत पहुंचा रही थी।  हमलोगों ने भी ठण्ड से बचने के लिए कॉफी का आनंद लिया तभी आकाश में लालिमा दिखी।  सभी की निगाहें पूरब की तरफ स्थिर हो गई। सिहरन पैदा करने वाली ठंडी हवा पूर्व दिशा की ओर बह रही थी परन्तु अति उत्साह के कारण इसका प्रभाव कम था। इन हवाओं के संग बादलों का झुण्ड पूर्व दिशा की ओर तेजी से बढ़ रहा था मानो सूर्योदय की तैयारी में उनको विशेष कार्य हेतु विलंब हो रहा हो और वास्तव में बादलों का समूह सूर्य के श्रृंगार में अद्भुत योगदान दे रहे थे।  सूर्य की लालिमा बादलों को अलौकिक रूप प्रदान कर रहे थे एवं बादलों का समूह सूर्य के चारों तरफ अनुपम छटा बिखेर रहे थे।  सूर्य, बादल एवं पर्वत श्रृंखला मिलकर प्रकृति के सौन्दर्य को चार-चाँद लगा रहे थे।  सूर्य भी पूर्ण श्रृंगार के बिना अपना रूप दिखाना नहीं चाह रहे थे।  अतः काले बादलों के ओट में कभी-कभी छिप कर अपना श्रृंगार ठीक करते फिर दर्शन देते और जब तक सूर्य पूर्णतः उदय नहीं हो गए तब-तक बादल रूपी दरबारी सूर्य की राजतिलक समारोह के लिए भागे ही जा रहे थे।  वहाँ के नजारों को देखने के बाद कहीं जाने की इच्छा नहीं थी परन्तु घुमक्कड़ मन वहाँ से चलने को मज़बूर हो गया।  हमलोग, घूम बौद्ध मठ देखने को निकल पड़े।
 रास्ते में घूम रेलवे स्टेशन मिला जो भारत के सबसे ऊंचे स्थान पर बसा रेलवे स्टेशन है।  घूम बौद्ध मठ के शान्ति को आत्मसात कर हमलोग बतासिया लूप एवं वार मेमोरियल देखने गए।  गोरखा लोगों के शहीद सैनिकों के याद में यहाँ पार्क बनाया गया है एवं दार्जलिंग रेलवे पटरी का एक लूप  पूरे पार्क का चक्कर लगाता है।  यहाँ से कंचनजंघा पर्वत का मनमोहक दृश्य देखने के बाद हमलोग न्यू जलपाईगुड़ी भाया पशुपति बाज़ार(नेपाल) एवं मिरिक के लिए रवाना हुए।  पशुपति बाज़ार में कुछ खास बात नहीं है परन्तु जो लोग कभी नेपाल नहीं गए है वो एक बार जा सकते हैं।  इसके बाद हमलोग मिरिक पहुंचे।  यहाँ 1.25 कि.मी. लम्बा सुमेंदु लेक अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ-साथ नौका विहार के लिए मशहूर है। हमलोगों ने कुछ पल शुकून के बिताने के बाद न्यू जलपाईगुड़ी के लिए चल पड़े. चाय-बागानों, जंगलों एवं घाटियों के साथ किए इस सफ़र के   अनुभव को शब्दों में बांध पाना मेरे लिए असंभव है। 

विशेष जानकारी:- जब भी मैं बौद्ध धार्मिक स्थलों पर जाता था तो उनके धार्मिक झंडों के प्रति उत्सुकता बनी रहती थी और ये झंडे धार्मिक स्थलों के साथ-साथ पुरे कस्बे को अनुपम सौंदर्य प्रदान करते हैं।  ये नज़ारा मुझे धर्मशाला, सिक्किम, दार्जिलिंग आदि जगहों पर महसूस  हुआ।

इन प्रार्थना झंडे को तिब्बती भाषा में डार'चो कहते है।जीवन, किस्मत, स्वास्थ, और धन को बढाने को डार कहते हैं एवं चो का अर्थ है सचेतन। ये झंडे पांच रंग के होते हैं - पीला रंग का झंडा पृथ्वी का प्रतिक है, हरा  रंग का झंडा पानी का प्रतिक है, लाल रंग का झंडा अग्नि का प्रतिक है, सफ़ेद रंग का झंडा हवा का प्रतिक है एवं नीला रंग का झंडा आकाश का प्रतिक है। रंगों का क्रम हमेशा पीला, हरा, लाल, सफ़ेद और नीला होता है। ऊर्ध्वाधर अवस्था में नीला सबसे ऊपर और पीला सबसे नीचे होता है। क्षैतिज अवस्था में यही क्रम दायें से बायें या बायें से दायें होता    

- राकेश कुमार श्रीवास्तवा 


       

Tuesday, November 12, 2013

वादा

   
इन्टरनेट से साभार
         








              वादा 

आज के बाद हम मिल नहीं पायेंगे ,
तेरी राहों से हम गुजर नहीं पायेंगे। 

दुनिया की रस्मों को मिलकर निभाएँगे ,
आज के बाद हम मिल नहीं पायेंगे।

दुल्हन के जोड़े में, तुझे देख नहीं पायेंगे,
आज के बाद हम मिल नहीं पायेंगे।

लाखों दुआएँ मेरी, तेरे साथ जायेंगी ,
सारी  बलाएँ तेरी, मेरे साथ जायेंगी। 

अश्क तेरी आँखों में रह नहीं पायेंगे ,
खुशियों के तारे, तेरी राह में जगमगायेंगे। 

सदा मुस्कुराने का वादा तुम तो निभाओगी ,
मय्यत पर मेरी आ कर भी, तुम मुस्कुराओगी। 
-राकेश कुमार श्रीवास्तव 






Friday, October 4, 2013

तेरा साथ

    










   तुम्हारा साथ


तुझे चाहूँ, तुझे प्यार करूँ ,
मेरे हालात, मेरी औकात,
तुझे चाहने की, इज़ाजत नहीं देता.

ऐशो-आराम, नाज़ो-नखरे तेरे,
मेरे हालात, मेरी औकात,
इसे उठाने की, इज़ाजत नहीं देता.

तेरे संग जीने की, तेरे संग मरने की,
मेरे हालात, मेरी औकात,
इस ख्वाहिश की, इज़ाजत नहीं देता.

तेरी आँखों में, मेरे लिए प्यार,
और हर पल मेरे, इंतज़ार को,
नज़र अंदाज़ कर नहीं सकता.

दिल भी मेरा दगाबाज़,
करता मनमानी हर बार,
पहुँचाता तेरे दरबार,
से इनकार कर नहीं सकता.

तुम्हारा साथ, तुम्हारा प्यार,
मुझे जीने का हौसला देता,
मेरे हालात, मेरी औकात,
तुझे चाहने की, इज़ाजत नहीं देता.

तू जानती है मुझे और,
मेरे हालात, मेरी औकात को,
फिर भी मुझे चाहने की जिद्द को,
मैं जलील कर नहीं सकता.

अब आ गई हो , मेरे गरीबखाने में,
पा लिया है, मैंने दोनों जहाँ,
तुम्हारा साथ, तुम्हारा प्यार,
कामयाब जिन्दगी जीने का, हौसला देता.

अब तुझे चाहूँ, तुझे प्यार करूँ,
मेरे हालात, मेरी औकात,
तुझे मल्लिका बनाने से, इनकार नहीं करता.
          ---------राकेश कुमार श्रीवास्तव 








Thursday, August 29, 2013

बाबा हरभजन सिंह : एक अशरीर भारतीय सैनिक


बाबा हरभजन सिंह : एक अशरीर भारतीय सैनिक 


फोटो- राकेश कुमार श्रीवास्तव 


कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं  तो  दरिया  हूं,  समन्दर में  उतर जाऊँगा
- अहमद नदीम क़ासमी


क्या आपने कभी पढ़ा या सुना है कि कोई व्यक्ति, मृत्युपरांत  सरकारी कार्य हेतु किसी पद पर कार्यरत हो एवं उसकी पदोन्नति भी होती हो? जी हाँ! मैं ऐसी ही एक अविश्वस्नीय परन्तु वास्तविक घटना से आपको रुबरु कराता हूँ। 

अक्सर ऐसा होता है कि हमलोगों को अपने आस-पास की घटनाओं, स्थलों या व्यक्तियों के बारे में किसी दूर अनजान जगह के लोगों से पता चलता है।  ऐसे ही एक व्यक्ति थे बाबा हरभजन सिंह और उनकी समाधि पूर्वी सिक्किम में है।  जब मैं वहाँ गया तो पता चला कि  बाबा हरभजन सिंह पंजाब में कपूरथला जिला के कूका गाँव के रहने वाले थे जो की मेरी कर्मस्थली से 30 कि.मी. की  दूरी  पर स्थित है।  जब मैं उनके समाधि स्थल पर श्रद्धा -सुमन अर्पण कर बाहर निकला तो उनके बारे में जानने की  उत्सुकता बढ़ी और जो जानकारी मुझे मिली उसे मैं आपलोगों से सांझा करने जा रहा हूँ। 

इनका जन्म 30 अगस्त 1946 को ज़िला गुजराँवाला  (वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्सा के सरदाना गाँव में हुआ और बाद में उनका परिवार पंजाब में कपूरथला  जिला, नडाला तह्सील  के कूका गाँव में बस गए ।  बाबा हरभजन सिंह, 9 फरवरी 1966 को भारतीय सेना के पंजाब रेजिमेंट में सिपाही के पद पर भर्ती हुए।  वह 1968 में 23वें पंजाब रेजिमेंट के साथ पूर्वी सिक्किम में सेवारत थे।  4 अक्टूबर 1968 को खच्चरों  का  काफिला लेकर, पूर्वी सिक्किम के तुकु ला से डोंगचुई तक ,  जाते वक्त पाँव फिसलने के कारण एक नाले में गिरने से मृत्यु हो गई एवं पानी के तेज बहाव होने के कारण उनका पार्थिव शरीर बहकर घटना स्थल से 2 कि.मी. की दूरी पर जा पहुँचा।  जब भारतीय सेना ने बाबा हरभजन सिंह की खोज-खबर लेनी शुरू की, तो तीन दिन बाद उनका पार्थिव शरीर मिला।  ऐसा विश्वास है कि उन्होंने  स्वयं एक राहगीर के वेश में अपनी मृत्यु की  घटना के बारे में विस्तृत जानकारी भारतीय सेना के जवानों को दी। 

                       

 मृत्युपरांत, बाबा हरभजन सिंह अपने साथियों को नाथु ला के आस-पास चीन की  सैनिक गतिविधियों की जानकारी अपने मित्रों को सपनों में देते, जो हमेशा सत्य होती  थी । तभी से बाबा हरभजन सिंह अशरीर भारतीय सेना की सेवा करते आ रहें हैं  और इसी तथ्य के मद्देनज़र उनको  मृत्युपरांत अशरीर भारतीय सेना की सेवा में रखा गया है तथा उनकी एक समाधि  भी बनवाई गई । श्रद्धालुओं  की सुविधा को ध्यान में रखते हुए पुनः उनकी समाधि को 9 कि. मी. नीचे 11  नवंबर 1982  कॊ  भारतीय सेना के द्वारा बनवाया गया। मान्यता यह है कि यहाँ रखे पानी की बोतल में चमत्कारिक गुण आ जाते हैं और इसका 21 दिन सेवन करने से श्रद्धालु अपने रोगों से छुटकारा पा जाते  है। 




विगत 45 साल में इनकी पद्दौन्नति  सिपाही से कैप्टन की हो गई है। चीनी सिपाहियों ने भी, उनको घोड़े पर सवार होकर रात में गश्त  लगाने की, पुष्टि की है। आस्था का आलम ये है कि जब भी भारत-चीन की सैन्य बैठक नाथुला में होती है तो उनके लिए एक खाली कुर्सी रखी जाती है। इसी आस्था एवं अशरीर सेवा के लिए भारतीय सेना , सेवारत मानते हुए, उनको हरेक वर्ष 15 सितंबर  से 15 नवंबर तक की छुट्टी मंजूर करती हैं और बड़ी श्रद्धा के साथ स्थानीय लोग एवं सैनिक एक जुलुस के रूप में, उनकी वर्दी, टोपी , जूते एवं साल भर का वेतन को  दो सैनिकों के  साथ,  सैनिक गाड़ी में नाथुला से  न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन लाते हैं। वहाँ से डिब्रूगढ़ अमृतसर एक्सप्रेस से उन्हें जालंधर (पंजाब) लाया जाता है। यहाँ से सेना की गाड़ी उन्हें कूका गाँव उनके घर तक छोडऩे जाती है। वहाँ सब कुछ उनके माता जी को सौंपा जाता है फिर उसी ट्रेन से उसी आस्था एवं सम्मान के साथ उनके समाधि स्थल,  नाथुला लाया जाता है। आस्था कहीं अंध विश्वास न बन जाए इस लिए विगत दो वर्षों से अब यह यात्रा बंद कर दी गई  है। 
 





Tuesday, July 9, 2013

जीवन का सफ़र












जीवन का सफ़र

जीवन का सफ़र है ये प्यारे,
यहाँ पल-पल बदले नज़ारें.
कभी राह में, दुःख के काँटे मिले,
कभी राह आसां हो, सुख के सहारे.

इस सफ़र में जो हिम्मत न हारे,
बदले मेहनत से,  अपने सितारें.
उसकी राहों में , सदा फूल खिलें,
जीवन में रहती हैं बहारें.

ऐसे खड़े न हो, सागर किनारे,
तू भी इसमें, गोता लगा रे.
तेरे हाथ भी, कभी मोती मिले,
ऐसी आशा तू मन में जगा रे.

राह तकते हैं घर में बेचारे,
जो रहते है तेरे सहारे.
तेरे दम पे वो, सपने हैं पाले,
उनको न छोड़ यूँ बेसहारे.

अब तू यूँ न, समय गवाँ रे,
तेरे सामने है, अवसर खडा रे,
खुद पर विश्वास करके, हिम्मत जुटा ले.

खुशियाँ खड़ी है, बाँह पसारे,

लो ये पल कर रहे इशारे,
जीत की ताज है, सर पे तुम्हारे,
खुशी से तू अपनों को, गले लगा रे,
जीवन की राह हुआ, आसां रे.

-राकेश कुमार श्रीवास्तव 

Friday, June 14, 2013

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-3)

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-3)



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गतांक से आगे.......


नाथुला पास  - एक अंतर्राष्ट्रीय सीमा   

                                               ट्रेवल एजेंट के निर्देशानुसार  हम लोगों को सुबह 6:30 बजे, नाथुला पास के लिए निकलना था। उसकी गाड़ी ठीक समय पर आ गई लेकिन थकान होने के कारण हम लोगों ने 15 मिनट विलंब से अर्थात् सुबह 6:45  पर यात्रा प्रारंभ की। 

सभी नए उमंग एवं उत्साह के साथ यात्रा कर रहे थे। अपने आप को, मैं थोड़ा ज्यादा ही रोमांचित महसूस कर रहा था।  क्योंकि, भारत से लगी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से मुझे खास लगाव है और किस्मत से मेरा जीवन इन्हीं सीमाओं के आस-पास बीता हैं मेरा बचपन भारत-नेपाल सीमा के पास बीता, जीविकोपार्जन हेतु  पंजाब आना हुआ तो यहाँ भारत-पाकिस्तान सीमा से रु-ब-रु हुआ। कपूरथला भारत-पाकिस्तान के दो अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के मध्य स्थित है। एक तरफ वाघा बोर्डर एवं दूसरी तरफ हुसैनीवाला बार्डर है। इन अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं कि चर्चा फिर कभी। 


               अब जब हमलोग भारत-चीन सीमा की ओर बढ़ रहे थे, तो जोश और उत्साह का बढ़ना स्वाभाविक था। देशभक्ति की भावना स्वतः  बलवती होती जा रही थी। बच्चे खासे उत्साहित थे, वे अपने भूगोल के किताबों में पढ़े "नाथुला पास" की जानकारी को साक्षात् आँखों के सामने देखने को उतावले हो रहे थे। नाथुला पास कभी सिल्क-रूट का अभिन्न अंग हुआ करता था। क्योंकि, चीन के सिल्क कपड़ों के साथ-साथ दोनों देशों के बीच आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रिश्तों को बनाए रखने का एक मात्र रास्ता था। इस रास्ते को 1962 में बंद कर दिया गया था और  दुबारा 6 जुलाई 2006 को खोला गया। संयोगवश!  यह दिन वर्तमान दलाई लामा श्री ल्हामो थोंदुप का जन्मदिन भी है। 

गंगटोक से नाथुला की दूरी 56 की.मी. है एवं समुन्द्र तल से 14200 फीट की उचाई पर स्थित है हमलोग अभी लगभग 5 कि.मी. ही चले  थे कि ड्राईवर ने गाड़ी रोक दी।
 यहाँ पर नाथुला के लिए यात्रा परमिट की जाँच होती है एवं प्रवेश शुल्क भी लगता है। ड्राईवर ने इन सब कामों को निपटाने में 15 मिनट का समय लिया तब तक हम लोग सुबह के प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ वहाँ के वास्तुशिल्प को देख कर काफी प्रभावित हुए। सिक्किम के पहाड़ों एवं घाटियों में बने भव्य इमारतें किसी को भी सम्मोहित करने में सक्षम हैं।

 सुबह का समय, प्राकृतिक नजारों के साथ सुन्दर वास्तुशिल्प मन को अद्-भुत शांति प्रदान कर रहे थे। यहाँ से आगे बढ़ने पर , पहाड़ पर हरे-भरे पेड़ एवं घाटी में बसे छुट-पुट भवनों  एवं उसके ऊपर से उमड़ते-घुमड़ते बादलों का समूह स्वप्न लोक का आभास दे रहे थे।

 इन नजारों के साथ-साथ खराब  सर्पीले मार्ग के एक तरफ पहाड़ एवं दूसरी तरफ खाई, भय और रोमांच का एक साथ अनुभव करा रहे  थे। थोड़ी दूर बढ़ने पर पर्वतों ने अपना रूप बदलना शुरू कर दिया 
©photo by R K SRIVASTAVA

सफ़ेद लिबासों पर भूरे रंग के कलात्मक छीट(print) में लिपटे पहाड़ मनमोहक लग रहे थे इन्हीं नज़ारों को देखते हुए सफ़र मजे में कट रहा था तभी ड्राईवर ने गाड़ी रोक दी और कहा कि आप लोग चाय-नाश्ता कर लें फिर आगे बढेंगें। मोमोज का स्वाद सबकी  जुबान पर अभी भी सर चढ़ कर बोल रहा था अतः दुकान पर पहुँचते ही सभी ने मोमोज के साथ गरमा-गर्म चाय की चुस्की ली। यहीं पर गमबूट भाड़े पर लेकर नाथुला पास के लिए चल पड़े। 

थोड़ी दूर पर छांगू लेक मिला। इसका नजारा अविस्मरणीय था। झील की ऊपरी सतह आईना का काम कर रही थी, ऐसा लग रहा था मानो झील अपने दामन में पहाड़ों को समेट लेना चाहती हो।


 इसके आगे एक और झील थी जिसकी ऊपरी सतह जमी हुई थी। थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर कुपुप लेक जो हाथी के आकार के होने के कारण इसका नाम एलिफैंट लेक भी है।

इसी के पास ही विश्व का सबसे ऊँचे स्थान पर गोल्फ ग्राउंड है, जिसका नाम याक गोल्फ ग्राउंड है। और अंत में, हम सब को तिरंगा लहराते हुए नजर आया।
 जिसको देख कर मन में जोश एवं देशभक्ति की भावना उमड़ पड़ी। चारों तरफ श्वेत हिम का साम्राज्य था। 
बर्फीली हवा चल रही थी। इन विकट परिस्थितियों में भी हमारे बहादुर सैनिक चौबीसों घंटे सीमा की सुरक्षा में लगे हुए थे। सिक्किम का यह इलाका 'नो मेंस लैंड' के नाम से जाना जाता है। जाड़ों के दिनों में यहाँ का तापमान -25 डिग्री सेल्सिअस हो जाता है।

 सैनिकों की कर्तव्यनिष्ठा एवं पर्यटकों के साथ सहृदयतापूर्वक व्यवहार को देख कर मैं उनके सामने नत-मस्तक था। मैं उन सैनिकों को तहे-दिल से धन्यवाद दिया जिनकी वजह से हमारी सरहदें एवं हम सुरक्षित हैं। दोनों देशों की सरहदों बीच मात्र दो कँटीले तारों का एक घेरा है। जून-जुलाई में यहाँ का मार्ग व्यापार के लिए खुलता है।

 इसके लिए यहाँ पर सीमा-शुल्क विभाग का एक भवन भी है। सीमा पर दोनों देश के अपने-अपने सम्मेलन हॉल हैं।
                                               बच्चों ने अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं का जायजा ले लिया तथा वहाँ के भारतीय सैनिकों के साथ हाथ मिलाते हुए अपने फोटो खिंचवा लिये, तब उन्हें चारों तरफ श्वेत हिम की चादरें बिछी दिखीं। उसके बाद उन्होंने बर्फ पर खूब उधम मचाई और तब तक मचाई जब तक की उनकी साँसे  फूलने न लगी।

 फिर हम लोगों ने सैनिकों द्वारा चलाये जा रहे कॉफी हाउस में कॉफी पी फिर हम लोग बाबा हरभजन मंदिर गए।
 यह एक वीर सैनिक की याद में बनाया गया है श्रद्धा और आस्था के कारण सैलानियों में इसके प्रति विशेष आकर्षण है। यहाँ कुछ समय बिताने के बाद हम लोग छांगू लेक आए। वहाँ सभी ने याक पर बैठ कर तस्वीरें खिचवाई। छांगू लेक पहुँचते ही बादलों ने झील एवं पहाड़ों को अपने आगोश में ले लिया। थोड़ी देर बाद प्रकृति का नजारा ऐसे बदला जैसे किसी ने प्राकृतिक नजारों पर पड़े परदे को हटा दिया हो। वापस छांगु  टैक्सी स्टैंड पर आकर, किराये का सामान वापिस कर, खाना खाया और गंगटोक के लिए चल पड़े। गंगटोक लगभग दोपहर तीन बजे पहुँचकर  देवराली टैक्सी स्टैंड से न्यू जलपाईगुड़ी के लिए रवाना हुए।
                                                           हम लोग करीब रात को आठ बजे न्यू जलपाईगुड़ी पहुंचे। हम लोगों की ट्रेन दस बजे रात में थी। अतः रात्रि भोजन कर हम लोग ट्रेन में सवार हो गए। लगातार पहाड़ी रास्तों पर टैक्सी द्वारा सफ़र करने के कारण सभी की कमर टूट रही थी, इस लिए सब अपनी-अपनी सीटों पर लेट गए। थकान होने के कारण और रेल की लंबी-चौड़ी सीट पाकर कब नींद के आगोश में चले गए पता ही नहीं चला। रेल के आरामदायक सफ़र के कारण सुबह दस बजे उठे तो सभी के चेहरे से थकान मिट चुकी थी। उसके बाद, इस यात्रा की जो चर्चा छिड़ी वो अभी तक जारी है। यकीन मानिए, यह यात्रा हम लोगों के लिए अविस्मरणीय  बन कर दिल में बस  गई
क्रमशः ...........................
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव 


Thursday, May 30, 2013

कैक्टस का फूल


 कैक्टस का फूल 
काँटों के बीच खिला है फूल,
जीवन का है यही उसूल, 
दुःख के बाद सुख आएगा ,
यह सिखलाता कैक्टस का फूल।

फूलों का जीवन छोटा है,

काहे को ये मन रोता है,
किया कर्म जो सच्चे मन से, 
काँटों में भी, फूल खिलता है।

खुशियों का जीवन चंद दिनों का,  

मीठा फल है तेरे सब्र का, 
ऊर्जा असीम ये जीवन को देगा, 
कर्म जरिया है खुशियाँ पाने का। 

खुशियाँ, सपनों में पलती है
इक दिन सबको ही मिलती है,
सच्चे मन से जब  कर्म करो तो 
जीवन में खुशियाँ मिलती है।

कैक्टस का जीवन एक तप  है,
आवश्यकताएँ इसकी, बहुत ही कम है,
फूल खिले तो सिर पर रखता है,
सभी मौसम में सम रहता  है।
-राकेश कुमार श्रीवास्तव    




Saturday, May 18, 2013

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-2)



PHOTO/GRAPHICS- R. K. SRIVASTAVA
उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-2)

युमथांग  - धरती का देवलोक :  

                                               मेरे एक प्रिय मित्र द्वारा दार्जिलिंग भ्रमण का प्रस्ताव मिला तो मेरा पर्यटक रूपी भ्रमर मन गुंजन करने लगा और उसी के गुनधुन में दार्जिलिंग के भौगोलिक स्थितियों का अनुसंधान करने लगा। इसी खोजबीन से पता चला कि भारत में अगर स्विटजरलैंड का दर्शन या मेरे प्रिय हिंदी सिनेमा के निर्देशक श्री यश चोपड़ा के फ़िल्मी लोकेशन का नजारा देखना हो तो उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम का दर्शन जरुरी है।

                                             इस सूचना को मैंने अपने मित्र को अग्रसरित कर दिया और उसने भी खुशी-खुशी अपनी रजामंदी दिखाई। जब मैं इन सूचनाओं की पड़ताल कर रहा था तो ऑफिस के एक मित्र भी इस रोमांचक यात्रा के लिए तैयार हो गए। इस तरह तीन परिवार अर्थात 11 सदस्यों के साथ यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। इसमें सबसे छोटी सदस्या मेरी बेटी की उम्र सात साल थी। जिस मित्र ने इस यात्रा की नींव रखी, उनको तो पटना से चलना था और हमलोगों को पंजाब के कपूरथला शहर से यात्रा प्रारंभ करनी थी।

रेल से दार्जिलिंग या गंगटोक पहुँचने के लिए न्यू जलपाईगुड़ी  या सिलीगुड़ी  पहुँचना जरुरी था। न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन को प्रारंभिक बिंदु मानकर यात्रा का खाका निम्न प्रकार से बनाई गई -
हम सभी 20 मार्च 2013  (दिन बुधवार ) को 11 बजे सुबह न्यू जलपाईगुड़ी  रेलवे स्टेशन पर तीनों परिवार मिलेंगे और वहाँ से गंगटोक पहुँचेंगे. 21 मार्च 2013  (दिन वृहस्पतिवार) को गंगटोक से चलकर लाचेन में रात्रि विश्राम करेंगे। 22 मार्च 2013  (दिन शुक्रवार) को गुरुडोंगमार दर्शन कर गंगटोक  में रात्रि विश्राम करेंगे. 23 मार्च 2013  (दिन शनिवार) को नाथुला पास का भ्रमण कर  दार्जिलिंग पहुँचेंगे।  24 मार्च 2013 (दिन रविवार) एवं 25 मार्च 2013 (दिन सोमवार) दार्जिलिंग भ्रमण  कर 25 मार्च 2013 (दिन सोमवार) को ही न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन रात पहुंचेंगें।

यहाँ एक सूचना देना जरुरी है कि इस तरह का प्रोग्राम बनाने के तीन मुख्य कारण थे  जिसमें पहला, सरकारी नौकरी होने के कारण सीमित छुट्टी , दूसरा नाथुला पास भ्रमण के लिए सिक्किम सरकार की तरफ से निर्धारित दिन जो बुधवार, वृहस्पतिवार, शनिवार एवं रविवार को है। तीसरा गंगटोक से बिना समय बर्बाद किये दार्जिलिंग पहुँचना।

पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार हमलोग  न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन पर पहुंचे पटना से आने वाले मित्र की ट्रेन थोड़े विलंब से पहुँची तो इस बीच एक टूर ऑपरेटर का दलाल हमलोगों के पीछे लग गया , हमलोगों ने सोचा चलो पता करते है। वो एक टूर ऑपरेटर के पास ले गया जो हमलोगों को महँगा लगा। रेलवे स्टेशन परिसर में एक स्थानीय व्यक्ति ने सुझाव दिया की आप सीधा गंगटोक जाएँ, वहाँ एम. जी. रोड पर सस्ते में आपका काम हो जायेगा। तो, हमलोगों ने दोपहर का खाना खाकर एक दस सीटों वाली  गाड़ी 2200 रू. में तय कर गंगटोक के लिए रवाना हुए। सिलीगुड़ी से आगे बढ़ने पर   तीस्ता नदी के दर्शन हुए।


तीस्ता नदी ऐसे लग रही थी मानो हरे रंग कि साड़ी पहने शांति के साथ आगे बढ़ रही हो। ऐसा सुन्दर नजारा देख कर, हमलोग ने  एक जगह रुककर तीस्ता नदी के किनारे चाय पी एवं प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद उठाया। करीब रात 8 बजे हमलोग गंगटोक के सिलीगुड़ी टैक्सी स्टैंड,देवराली पहुँच गए। ऐसे गंगटोक आने के लिए उपयुक्त जगह सिलीगुड़ी रेलवे स्टेशन है। वहाँ पर दस सीटों वाली पूरी गाड़ी या प्रति सीट के हिसाब से गाड़ी गंगटोक जाने वाले यात्रियों के लिए सुलभ उपलब्ध रहती है। न्यू जलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी के लिए ऑटो चलते है।

खैर! देवराली में बहुत सारे होटल हैं और वहाँ डबल बेड वाले  कमरें 500 रु. से 1000 रु. में मिल जाते हैं। हमलोगों ने एक होटल में कमरा बुक कर सामान रखा और खाना खाने के लिए निकल पड़े।

स्वादिष्ट खाने की तलाश में एक होटल हॉटलिक्स  का पता चला, वहाँ पर सभी तरह के व्यंजन उपलब्ध थे बच्चों ने कांटिनेंटल और हमलोगों ने वेज एवं नान-वेज खाना स्वाद ले-ले कर खाया और होटल में आकर सो गए।

गंगटोक में पता चला कि गुरुडोंगमार के लिए रास्ता बहुत खराब है और हो सकता है कि रास्ता बंद भी हो जाए, साथ ही एक रात रुक कर वापस गंगटोक आना मुश्किल है। वहाँ के लिए दो रात का पैकेज टूर चलता है जिसमे गुरुडोंगमार के साथ युमथांग का दर्शन शामिल है। अतः उपरोक्त कारणों से हमने 22 मार्च 2013  (दिन शुक्रवार) को गुरुडोंगमार दर्शन की जगह युमथांग वैली दर्शन कर दिया।


गंगटोक में ट्रेवल एजेंट के साथ मोल-भाव करना पड़ता है. जिस होटल में हमलोग ठहरे थे उसने प्रति गाड़ी 18,000 रु. माँगा था। अतः.सुबह 6 बजे हम दो मित्र, एम. जी. रोड चले गए। बाज़ार, स्थानीय एवं सैलानियों की सुबह की सैर से गुलजार थे। हम लोगों ने भी  एम. जी. रोड  पर सुबह की सैर का आनंद उठाया। वहाँ के स्थानीय लोग हंसमुख एवं मिलनसार है। यह गंगटोक में ही संभव है कि चार सीटों वाली कार पर प्रति सीट 10 रु. देकर 5-7 कि.मी. यात्रा कर सकते हैं। शहर के अंदर सुबह 8 बजे से लेकर रात 10 बजे तक, चार सीटों वाली  कार से बड़ी गाड़ी नहीं चलती है।


एम. जी. रोड  के टैक्सी स्टैंड पर हमने दस सीटों वाली महिंद्रा गाड़ी 9500 रु.(खाना एवं होटल के कमरे सहित) में युमथांग के लिए एवं  5500 रु. में नाथुला पास के लिए गाड़ी आरक्षित करा ली। युमथांग और नाथुला पास की यात्रा के लिए सिक्किम सरकार से यात्रा परमिट लेना पड़ता है। जिसके लिए प्रत्येक सदस्य के चार पासपोर्ट आकार के फोटो एवं पता लिखा हुआ पहचान पत्र आवश्यक है। बच्चों के लिए पहचान पत्र आवश्यक नहीं है। विदेशी नागरिक नाथुला पास की यात्रा नहीं कर सकते, वे केवल छांगू लेक (Tsomgo Lake) तक की यात्रा कर सकते है।


ट्रेवल एजेंट के निर्देशानुसार हमलोग अपने होटल से टैक्सी द्वारा वाजरा स्टैंड सुबह 10 बजे पहुँच गए। वहीँ पर नास्ता करके युमथांग के लिए गाड़ी में सवार हो गए।रास्ते में, सिक्किम की स्थानीय फिल्म की शूटिंग, रास्ता रोक कर की जा रहा थी, जिसकी थोड़ी सी झलक हमलोगों को भी देखने को मिला।


हमलोगों का अगला पड़ाव गंगटोक से 32 कि.मी. की दूरी पर सेवेन सिस्टर झरना था. खुले  आसमां और प्रकृति के मनमोहक दृश्य के साथ शाकाहारी मोमोज, चाय की चुस्की एवं झरने से निकल रहा मधुर संगीत, हमलोगों को खास होने का एहसास दिला रहा था। गाइड-सह- ड्राईवर के लाख मना करने के बावजूद हमलोगों ने  पत्थरों पर चढ कर झरने के पानी से खूब मस्ती की, फिर ही आगे बढ़े। रास्तों में सड़कों एवं पुलों की हालत बहुत दयनीय थी, जगह-जगह पर सड़कों की मरम्मत का कार्य चल रहा था। यहाँ से मगन 36 कि.मी. के दूरी पर है, जहाँ यात्रा परमिट चेक होता है। हम थोड़ी दूर आगे बढे ही थे कि बूंदा-बांदी शुरू हो गई। मौसम सुहाना एवं प्रकृति के अनुपम नजारों में झरना एवं नदी, चार चाँद लगा रहे थे,
 जिसको देखने भर से जी नहीं भर रहा था, मन करता था कि पास जाए परन्तु रास्ता खराब होने के कारण ड्राईवर जल्द से जल्द लाचुंग पहुँचना चाह रहा था, जो  गंगटोक से 125 कि.मी. दूरी एवं समुन्द्र तल से 9,600 फीट पर स्थित  है। लाचुंग का अर्थ छोटा रास्ता होता है। मगन पहुँचने के पहले ही बहुत जोरो से बारिश होने लगी और सड़कों का हालत देख कर हमलोगों की हालत पतली हो रही थी। 

खैर! हमलोग शाम को 6 बजेआज के अंतिम पड़ाव  लाचुंग पहुंचे, वहाँ के एक लॉज मे पहुँचकर आराम कर ही रहे थे कि, इसी बीच ड्राईवर ने हमलोगों के लिए चाय भिजवायी एवं खाने का इंतजाम कर यह सूचना दी कि कल सुबह 6 बजे हमलोगों को युमथांग के लिए निकलना है और साथ ही हिदायत भी दी कि अगर सुबह जल्दी नहीं चलेंगे तो बर्फ देखने का मजा कम हो जाएगा। यह सुनकर हमसभी ने रात्रि  भोजन कर कम्बलों में दुबक कर सो गए। बर्फ के अदभुत नजारे देखने के लालच में हमलोग सुबह 5:30 बजे तैयार होकर लॉज के बाहर निकले, तो सामने कंचनजंघा की चोटी हिमताज पहने अपना सौंदर्य बिखेर रही  थी और उसके पाँव पखारती तीस्ता  सहायक नदी लाचुंग, सड़क के किनारे से गुजर रही थी। 
सूरज की किरणें, कंचनजंघा कि चोटी को चमक प्रदान कर प्रकृति को नयनाभिराम बना रही थी। चाय पीकर हमलोग ड्राईवर का इन्तजार कर रहे थे। ड्राईवर ठीक  सुबह 6 बजे उपस्थित हो गया और हमलोग गाड़ी में सवार होकर अगले पड़ाव युमथांग के लिए रवाना हो गए।  युमथांग समुन्द्र तल से 11,800 फीट  एवं  लाचुंग से 25 कि.मी. दूरी पर है।  

कुछ दूर आगे आने पर बर्फ, मैदान के साथ-साथ सड़कों के किनारे एवं पेड़ों पर दिखने लगी अब तो बर्फ छूने के लिए बच्चों के साथ-साथ बड़ों का भी दिल डोलने लगा परन्तु लगातार ड्राईवर के आश्वासन पर बैठे रहे, तभी हमलोगों ने देखा कि रास्ते में किसी कारण से बहुत सी गाडियाँ कतार में खड़ी है। ड्राईवर गाड़ी से उतर कर इस वजह का कारण पता करने गया, तबतक हमसभी गाड़ी से उतर कर बर्फ के साथ खूब मस्ती की। थोड़ी देर में ड्राईवर आ गया, वह जल्दी में था और हमलोग भी शरीफ बच्चों की तरह बिना विलंब किये गाड़ी में सवार हो गए। धीरे-धीरे गाड़ियों का कारवां आगे बढ़ने लगा। अब तो गाड़ी बर्फ पर ही चल रही थी, यह देख हमलोग रोमांचित होने के साथ-साथ डर  भी रहे थे।

प्रकृति का सौंदर्य बढता ही जा रहा था, पेड़ बर्फ से लदे पड़े थे। क्षण-प्रतिक्षण प्रकृति का नजारा बदल रहा था। प्रकृति  के सौंदर्य में, पहले दो चाँद  फिर चार चाँद  फिर आठ चाँद  लगते ही जा रहे थे. अतः ड्राईवर की बात को मानना ही पड़ा और मजबूर हो कर हमलोग गाड़ी में बैठे रहे। तभी कुछ दूर पर चहल-कदमी दिखाई दी। सभी सैलानी भाव-विभोर हो कर प्रकृति का नजारा ले रहे थे। चारों तरफ बर्फ एवं उसके बीच में छोटी-छोटी दुकाने करीने से सजी हुई थी। ये जगह कोई और नहीं युमथांग था। ड्राईवर ने हमलोगों के लिए कॉफी एवं नास्ते का प्रबंध एक दुकान में किया। दूकान के अंदर अलाव का भी प्रबंध था।
हमलोगों ने अपने-अपने हाथ-पाँव गर्म कर भाड़े  के  गमबूट पहन लिए और बर्फ के मैदान की ओर बढने लगे, तभी ड्राईवर ने कहा- अगर इससे भी सुन्दर जगह देखना हो तो जीरो पॉइंट अर्थात युमेसंदोंग चलना पड़ेगा जो यहाँ से 16 कि.मी. दूरी पर है। ड्राईवर की बातों पर विश्वास जम चुका था, इसलिए 1000 रु. अतिरिक्त शुल्क देकर हमलोग गाड़ी में सवार हो गए। रास्ते का नजारा अदभुत होता जा रहा था। वहाँ  पेड़-पौधों का नामोंनिशान नहीं था, केवल धवल हिम की  चादरों में लिपटे पर्वत एवं पैरों के नीचे मखमली श्वेत बर्फ को हमलोग आत्मसात कर रहे थे। असीम शांति! रूह तक को चैन पहुँचाने वाला अध्यात्मिक माहौल परन्तु ये अनुभव मैं ज्यादा देर तक नहीं ले सका क्यूंकि सभी एक-दूसरे पर खुशी से ये लो ,ये लो कह कर एक-दूसरे पर बर्फ 



का गोला  फेंकने लगे. मैं भी उन्हीं के रंग में रंग गया, लेकिन यह सब ज्यादा देर नहीं चल सका चूँकि 16,000 फीट पर ऑक्सीजन की कमी के कारण सभी का जोश जल्द ही ठंडा हो गया। फिर हमलोग युमथांग आ गए। वहाँ के सपाट बर्फ के  विशाल मैदान में सभी ने खूब मस्ती की। मैदान के बीचों-बीच नदी बह रही थी। ऐसे नजारों की तो मैनें कभी कल्पना भी नहीं की थी परन्तु साक्षात् अनुभव कर मैं भाव-विभोर हो रहा था। अंदर से आवाज आ रही थी कि काश! ये पल यहीं ठहर जाए।
युमथांग तो ऐसे फूलों की घाटी के नाम से मशहूर है परन्तु इस समय सभी फूलों के पेड़ श्वेत चादरों में लिपटे सो रहे थे। भारी मन से हमलोगों ने युमथांग से विदा ली। फिर हमलोग लाचुंग पहुँच

कर खाना खाकर गंगटोक के लिए रवाना हुए।

                               जब हमलोग युमथांग के लिए जा रहे थे तो मेरी पत्नी जी, उधर से आ रहे यात्रियों के लटके चेहरे देख कर बोली थी- " लगता है की हमलोग बेकार ही युमथांग जा रहे है. किसी भी यात्री के चहरे पर खुशी नहीं है।"  अब, जब हमलोग युमथांग से लौट रहे थे तो होम सबी का चेहरा थकान से लटका हुआ था, तो मैंने चुटकी लेते हुए पत्नी जी को बोला- " लगता है की आपको युमथांग अच्छा नहीं लगा इसलिए तुम्हारा चेहरा लटका हुआ है."  थकान के कारण बस मुस्कुराकर मेरे कंधे पर अपना सिर टिका कर आंखे मुंद ली. उस मुस्कराहट में साफ संकेत थे की मौक़ा लगा तो युमथांग दुबारा फिर आयेंगें. 
हमलोग करीब रात 10 बजे, एम.जी. रोड के एक होटल में खाना खाकर अपने होटल पहुँच गए. नींद के मारे बुरा हाल था. इसलिए बिस्तर पर लेटते ही नींद के आगोश में चले गए।

पार्ट-1 पढ़ने के लिए क्लिक करें:-

-राकेश कुमार श्रीवास्तव