श्री अमरनाथ गुफा की यात्रा
जब से मैंने श्री अमरनाथ यात्रा के बारे में सुना व वहॉं के छायाचित्रों को देखा, तब से अमरनाथ यात्रा जाने का मैंने मन में निश्चय कर लिया।
मई 2011 में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के तरफ से यह सूचना आम भारतीयों को दी गई कि 29 जून से लेकर 13 अगस्त तक अमरनाथ के पवित्र गुफा में बाबा बर्फानी के दर्शन का मार्ग खुलेगा, अर्थात दर्शन सुलभ हो पाएगा।
यात्रा से पहले श्राइन बोर्ड के तरफ से कुछ औपचारिकताएँ पूरी करनी होती है जिसमें श्राइन बोर्ड के तरफ से दो फार्म भर कर जे.एंड.के बैंक अथवा अन्य बैंकों में जमा करना होता है। पहला फार्म-ए एक आवेदन के रूप में होता है, जिस पर एक पासपोर्ट आकार का रंगीन फोटो लगाना होता है और दूसरा फार्म यात्रा परमिट का होता है जिसमें तीन भाग होते हैं। उन तीनों पर भी पासपोर्ट आकार के फोटो लगाने होते हैं। इसका एक भाग चंदनवारी प्रवेश द्वार पर, दूसरा पवित्र गुफा के प्रवेश द्वार पर तथा तीसरा भाग पूरी यात्रा के दौरान अपने पास पहचान पत्र के रूप में रखना होता है। आजकल इंटरनेट की सुविधा होने के कारण ये औपचारिकताएं भी ऑन-लाइन संभव है। औपचारिकताएं पूरी होने के बाद मैं सफर की तैयारी में लगा, सर्वप्रथम एक जोड़ी जूता खरीदा व 4 से 5 किलोमीटर चलने का अभ्यास रोजाना शुरू किया तथा कुछ आवश्यक सामाग्री की व्यवस्था भी करनी शुरू की, जिनकी जरूरत यात्रा के दौरान पड़नी थी जैसे- टार्च, चश्मा, बरसाती, गर्म ट्रैकशूट, पैजामी, बनियान, एक जोड़ी कपड़ा दर्शन हेतु, दस्ताना, सनस्क्रीन लोशन, वैसलिन, कोल्ड क्रीम, ग्लूकोज, काली मिर्च पाउडर, काला नमक, भूने चने, ड्राई फ्रुट, चाकलेट, नींबू कुछ जरूरी दवाएं जैसे बुखार, उल्टी, दस्त, चक्कर, घबराहट, आदि के उपचार हेतु।
यह मेरा सौभाग्य था कि रेल कोच फैक्टरी, कपूरथला से यात्रियों का एक जत्था 9 जुलाई को बस से जाने का तय हुआ और इस जत्थे का एक सदस्य मैं भी बना। यात्रा की शुरूआत यहॉं के शिव मंदिर में पूजा अर्चना के बाद कारखाने के मुख्य यांत्रिक अभियंता श्री आलोक दवे जी के हाथों यात्रियों को माला पहना कर व लड्डू खिलाकर रात के 8 बजे हुई । हर-हर महादेव के जयघोष के साथ मैं अपने सहयात्रियों के साथ यहॉं से रवाना हुआ ।
यात्रियों के लिए लंगरों की व्यवस्था पंजाब से ही शुरू थी । हमलोग रात्रि 10.15 बजे दसुहा के एक मंदिर पर रूके जहॉं लंगर की व्यवस्था थी, वहीं हम सब यात्रियों ने भोजन किया व अल्प विराम ले कर यात्रा के लिए बस में सवार हो गए।
बस जम्मू, उधमपुर, पटनीटॉप, रामबन, बनीहाल, काजीकुंड, अनंतनाग होते हुए पहलगाम से तीन किलोमीटर पहले नुनवान पहुँचे । रास्ते में प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाते हुए जब जवाहर सुरंग पहुँचे तो सभी यात्रियों का मन पुलकित हो उठा और सभी ने जयकारा लगाना शुरू कर दिया। जवाहर सुरंग की लम्बाई 2.5 किलामीटर है । यह सुरंग कश्मीर का प्रवेश द्वारा है। यहॉं एक नहीं बल्कि दो सुरंग बराबर लम्बाई के है, जो जर्मन इंजीनियर के सहयोग से 22 दिसम्बंर 1956 में शुरू हुआ। उस समय यह सुरंग एशिया का सबसे लम्बा सुरंग था। पीर पुंजाल के पहाड़ों के तलहटी में बना सुरंग बनिहाल को काजीगुंड से जोड़ता है, यहीं सुरंग कश्मीर को पूरे भारतवर्ष से जोड़ता है।
ऐसे तो यात्रा शुरू से आनंदमय थी, पर जैसे-जैसे बस पटनीटॉप से होते हुए आगे को बढ़ रही थी, मौसम के मिजाज भी बदल रहे थे, मौसम के ठंडी और खुशनुमा एहसास ने यात्रियों को गर्मी से निजात दिलाई। रास्ते में जगह-जगह पर सुरक्षा के कड़े प्रबंध थे, सैनिक गश्त लगा रहे थे। नुनवान पहुँचने पर तो हम यात्रियों के मन में आनंद की जो लहर दौड़ रही थी, वो पहाड़ों की तलहटी पर लिद्दर नदी की बलखाती चाल को देख और भी अधिक हो गई, सभी की थकान भी प्रसन्नता के कारण मिट चुकी थी।
नुनवान में हम सभी यात्रियों ने अपने-अपने सामानों के साथ चेक पोस्ट से गुजर कर अमरनाथ के श्राइनबोर्ड के कैंप के भी चेक पोस्ट से होते हुए रात के ग्यारह बजे कैंप पहुँचे, जहॉं हम सभी ने हट किराए पर लिया वैसे वहॉं हटों के अलावा टेंट भी किराए पर मिलते हैं, हम सभी ने सामान वहीं रखा और लंगर में खाना खाने पहुँचे।
मैंने पंजाब के बहुत से लंगरों में खाना खाया था, परंतु वहॉं का नजारा अद्भूत था, कतार में करीब लंगर के बीस खेमे लगे थे, जो अलग-अलग शहरों के थे, सभी खेमों में तरह-तरह के पकवान सजे हुए थे, और वहॉं के सेवादार भाई बड़े प्यार और आदरभाव से सभी को भोजन करा रहे थे, वहॉं समयानुसार चाय, नास्ते एवं खाने का प्रबंध रहता है। देश के लगभग सभी व्यंजन यहॉं पर अमरनाथ यात्रा के दौरान उपलब्ध होते है। व्रत के लिए फलाहार एवं मधुमेय के रोगियों के लिए भी शुगर फ्री खाने का प्रबंध वहॉं पर था। हम सब लोग स्वेच्छापूर्वक भोजन कर अपने हटों में गए और रात्रि विश्राम किया।
सुबह चार बजे से हमारे सहयात्री भाई-बहन चंदनबारी जाने को तैयार होने लगे एवं पांच बजे तक वो सभी हमें एवं हमारे साथ के लगभग 10 यात्रियों को छोड़कर पहलगाम से रवाना हो गए। पहलगाम से चंदनवारी 16 किलोमीटर है, वहॉं तक की यात्रा जम्मू-कशमीर ट्रांसपोर्ट के मिनी बसों से की जाती है।
अब चंदनवारी से आगे का रास्ता यात्री अपने इच्छानुसार पैदल, घोड़ा, पिट्ठू, पालकी आदि से करते है। चंदवारी से पिस्सुटॉप की चढ़ाई बहुत खड़ी है जो कि लगभग 3 किलोमीटर है इसके आगे की चढ़ाई थोड़ी सुगम परंतु लंबी है। पिस्सुटॉप से जोजीबल फिर नागकोटी अंत में पहला पड़ाव शेषनाग है जिसकी कुल दूरी 9 कि.मी. है। शेषनाग जो कि यात्रियों के पहले दिन का पड़ाव स्थल है, जो चारों तरफ से पहाड़ों से घिरा है, जिसके कारण यहॉं पर ऑक्सीजन की कमी होती है और यात्रियों को थोड़ी बहुत परेशानी सॉंस लेने में आती है, जो सामान्यत: प्राथमिक उपचार से दूर हो जाती है। रास्ते में मेडीकल की सुविधाएं उपलब्ध हैं।
शेषनाग में सात पहाड़ों की चोटियॉं हैं यहॉं पर शेषनाग झील भी है, यहॉं से यात्रियों का जत्था दूसरे दिन खड़ी ढलान को पार करते हुए वारबल एवं महागुनास टॉप की खड़ी चढ़ाई भी चढ़ते हैं (जो कि इस सफर का सबसे ऊँचा स्थान है, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से करीब 14500 फीट है) फिर पविबल होते हुए दूसरे दिन के पड़ाव स्थल पंचतरणी पहुँचते है। रास्ते के मनोरम प्राकृतिक दृश्यों, झरनों, झील व पहाड़ आदि यात्रियों की थकान मिटाने में सहायक होते हैं। शेषनाग से पंचतरिणी की दूरी लगभग 14 कि.मी. है। पंचतरिणी में रात्रि विश्राम कर श्रद्धालु सुबह से ही पवित्रगुफा की ओर बाबा बर्फानी के दर्शनों को चल देते हैं जो कि लगभग 6 कि.मी. का रास्ता है। बर्फ के बने रास्तों पर डंडे के सहारे चलना एक अलग ही आनंद का एहसास कराता है। पवित्र गुफा के दर्शन के पश्चात श्रद्धालु वापिस बालटाल के लिए रवाना होते हैं जो कि लगभग 14 कि.मी है।
नुनवान, शेषनाग व पंचतरिणी में रात्रि विश्राम के लिए टेंट भाड़े पर मिलता है जिसका किराया 100 रू से लेकर 250 रू. प्रति व्यक्ति तक लेते हैं। जिसमें कंबल एवं विछावन का भी किराया शामिल होता है। रास्ते में छोटी-मोटी जरूरत का सामाना जैसे मिनरल वाटर, चाकलेट, जूस, कोल्डड्रिंक्स, नमकीन, बिस्कुट, नीबू पानी आदि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर छोटी-छोटी दुकानों में उपलब्ध होती है, जिनकी कीमत अधिकतम खुदरा मुल्य से दुगनी होती है। लंगरों में खाने-पीने की वस्तुएं व रास्तें में मेडिकल की सुविधाएं दी जाती है जोकि निशुल्क होती है।
मेरे साथ मेरी बेटी जो कि छोटी है, बेटा व पत्नी भी थे। अत: मैंने अपने मित्र व उसकी पत्नी एवं एक मित्र के भाई के साथ बालटाल के रास्ते पवित्रगुफा के दर्शन करने का निश्चय किया था। हमलोगों ने अपने सहयात्रियों को नुनवान से विदा करने के बाद पहलगाम घूमने निकल पड़े। चारों तरफ पहाड़ों से घिरा एवं सड़क के किनारे लिद्दर नदी बलखाती हुई पहलगाम के सुंदरता में चार चांद लगाती है। यहॉं के बाजारों में बहुत रौनक थी एवं अच्छे-अच्छे होटल भी थे। हमलोगों ने प्राकृतिक नजारों का भरपूर आनंद उठाते हुए वहॉं के पार्कों में जाकर फोटोग्राफी की एवं बाजारों में घूमते हुए वापस नुनवान पहुँचे। दिन का खाना लंगरों में खाने के पश्चात बालटाल के लिए अपने बस में बैठ गए। अनमने मन से हमलोगों ने यात्रा शुरू की लेकिन जब बस श्रीनगर पहुँची तो वहॉं के स्थानीय पुलिस ने बस को सुरक्षा की दृष्टि से आगे जाने से रोक दिया। तीन घंटों के इंतजार के बाद बस बालटाल के लिए फिर रवाना हुई। करीब 15 मिनट पश्चात् मुगल गार्डेन, निशांत बाग का चलती बस से दर्शन हुए । हम सब उत्सुकता से देखे जा रहे थे और हमारी बस डल झील के किनारे से होती हुई आगे बढ़ रही थी । शाम होने वाली थी जिससे की सूर्यास्त का नजारा डल झील में देखते ही बन रही थी। डल झील के सतह पर सूर्यास्त की लालिमा, डल झील को अदभूत सौंदर्य प्रदान कर रही थी।
रास्ते में सोनमार्ग होते हुए करीब रात्रि 11 बजे हमलोग बालटाल पहुँचे, वहॉं दो बस स्टैंड है, एक तो हेलीपैड के पास है, जहॉं से थोड़ी दूर पर गेट नं. 1 है जहॉं लंगर एवं यात्रियों के रहने के लिए टेंट व क्लाक रूम की व्यवस्था है। दूसरा बस स्टैंड गेट नं.1 से 2 कि.मी. दूरी पर है।
हम सभी यात्रियों ने रात्रि विश्राम के पश्चात सुबह नित्यक्रिया से निवृत हो पैदल यात्रा शुरू की । बालटाल में भी सुबह का नाजारा बड़ा ही मनोरम था, हेलीकॉप्टर सुबह से ही उड़ाने भरने लगे थे । हेलीकॉप्टर बालटाल से पंचतरिणी के लिए है, फिर पंचतरिणी से 6 कि.मी पवित्र गुफा है जिसका जिक्र ऊपर कर चुका हूँ।
हम लोग बालटाल से दो कि.मी. चलने के बाद दोमेल पहुँचे जहॉं की यात्रा परमीट चेक होते है फिर आगे की यात्रा बरारीटॉप तक खड़ी चढ़ाई है, जिसकी दूरी करीब 5 कि.मी है । यह रास्ता धूलभरा है। पोनी वालों के कारण धूल ज्यादा उड़ती है। अत: नाक पर मास्क लगाना जरूरी होता है। दोमेल से पवित्र गुफा तक पोनीवाले 1200 से 2000 रू. तक लेते हैं, हमलोग सपरिवार अपने सहयोगियों के साथ पैदल चले, 2 किलोमीटर चलने पर पहला लंगर मिला, वहॉं पर थोड़ा विश्राम कर खाना खाया, फिर यात्रा आगे बढ़ी। कुछ दूर चलने पर ऑक्सीजन की कमी व धूल से परेशान हो बेटी घबराने लगी, अत: बरारी टॉप तक के लिए पोनी रु.700/- में किया। बेटा पैदल जाने की जिद पर था अत: पत्नी व मेरे मित्र सभी पैदल चलने लगे। जब हम लोग बरारी टॉप की ओर बढ़ रहे थे, तो बाबा बर्फानी की कृपा मानों रिमझिम फुहार के रूप में यात्रियों पर बरस रही थी, जिसके कारण धूल उड़ना बंद हो गया और सफर सुहाना हो गया। रास्ते का सौंदर्य बयान करना शब्दों से परे है, हॉं इतना कह सकते हैं कि प्राकृतिक नजारा देखकर हृदय के अंदर आनन्द का संचार हो रहा था।
जब मैं बरारी टॉप पहुँचा तो वहॉं का नजारा अव्यवस्थाओं से भरा था। रास्ता सकरा होने के कारण आने-जाने वाले श्रद्वालुओं की भीड़ जमा हो चुकी थी, भीड़ अनियंत्रित थी जिसके कारण ऐसा लग रहा था कि मानों कोई दुर्घटना हो जाएगी। कुछ समय बाद सुरक्षाकर्मी आये और व्यवस्था को संभालने की कोशिश करने लगे फलस्वरूप थोड़े समय के पश्चात् भीड़ छँटने लगी और भोलेनाथ की कृपा से कोई दुर्घटना नहीं हुई। मैं वही पर बेटी के साथ अपने सहयात्रियों एवं पत्नी व बेटे का इंतजार कर रहा था कुछ समय बाद मित्र उनकी पत्नी व मित्र का छोटा भाई तो मिले पर पत्नी व मेरे बेटे दोनों कब आगे निकल गये पता ही नहीं चला। इंतजार करते करते शाम होने लगी और ठंड बढ़ने के कारण हम लोगों ने यात्रा आगे बढ़ाने का निश्चय लिया। बरारी से संगम की दूरी 4 किलोमीटर है, रास्ता ढलान वाला था, अभी थोड़ी दूर ही बढ़े थे कि दर्शन कर वापस आ रहे हमारे एक मित्र जो हमारे साथ कोच फैक्टरी से आये थे वो मिल गए और उन्हीं के द्वारा हमें अपनी पत्नी व बेटा की कुशलता की सूचना मिली, उन्होंने बताया कि अगले लंगर पर वो हमलोगों का इंतजार कर रहे हैं। तब जाकर मन को राहत मिली, रास्ते में ग्लेशियर मिला और आगे मार्ग में थोड़ी दूरी पर ग्लेशियर फटने के कारण रास्ता काफी दुर्गम हो गया था, परन्तु मिलन की आस में बेटी और हमारे साथी आराम से रास्ता पार कर गए।
हम लोग जैसे-जैसे आगे बढ़े तो उधर से आ रहे अजनबी यात्री लोग भी मुझसे मेरी पत्नी की कुशलता के बारे में बताते जा रहे थे, क्योंकि पत्नी ने मेरी एवं बेटी का हुलिया बता कर संदेश देने की मिन्नत सबों से की थी। मेरा मन रामायण काल में विचरने लगा था दुर्गम रास्ता एवं राम जी की तरह व्याकुल मन से पत्नी रूपी सीता को ढूढ़ रहा था और रास्ते में जैसे-जैसे पत्नी की कुशलक्षेम का पता चला, मिलन के लिए मन और व्याकुल हो रहा था। खैर, आखिरकार वो पल भी आ गया, जब हम सब रात 10 बजे आपस में मिलें। वहॉं रहने का उचित प्रबंध नहीं था, अत: हम सब आगे संगम की ओर बढ़ने लगे, संगम पर सीआरपीएफ का बेस कैंप है, जहॉं दो सैनिक सुरक्षा के लिए गस्त लगा रहे थे, उन्होंने हमें रोककर पूछताछ की और आगे रात्रि में यात्रा न करने की सलाह देते हुए हम सबों को रात्रि विश्राम वहीं करने को कहा।
महिलाओं का कैंप अलग और पुरुषों का अलग कैंप था, जहॉं उन्होंने हमें स्लीपबैग लाकर दिया और हम सबों ने रात्रि विश्राम कर सुबह 4:30 बजे अपनी शेष यात्रा गुफा तक की शुरू की। संगम में अमरावती एवं पंचतरणी नदी का संगम है, पंचतरणी में भैरव पहाड़ी के तलहटी में पॉंच नदियॉं बहती हैं जो भगवान शिव के जटाओं से निकलती है, ऐसी मान्यता है। पूरे रास्ते छोटे झरने, जलप्रपात का दृश्य नयनाभिराम लगते हैं, संगम से गुफा का रास्ता भी काफी खड़ी चढ़ाई है जो कि लगभग 1 किलोमीटर है, उसके बाद ढलान है, जिसमें बर्फ का रास्ता शुरू हो जाता है, बर्फ पर डंडो के सहारे चलने का मेरा पहला अनुभव था जो कि बेहद रोमांचकारी रहा, 1.5 किलोमीटर चलने के बाद छोटे-छोटे रंग-बिरंगे टेंटों में दुकानें सजी हुई थी और दुकानदार प्यार से यात्रियों को बुला रहे थे वहॉं नहाने के लिए नदी के पानी को गर्म कर दुकानदार प्रति बाल्टी 50 रुपये में दे रहे थे , रुकने व सामान रखने के लिए कोई शुल्क नहीं लगता है।
एक दुकान जो कि अमरावती नदी के किनारे पर था हम सभी वहॉं रुके, सुबह के 7 बजे थे, हम सभी ने वहीं नदी के गर्म पानी से स्नान किया ओर बड़े उत्साह के साथ पवित्र गुफा के दर्शन हेतु निकल पड़े, जब हम सबों ने बाबा बर्फानी के दर्शन के साथ-साथ वहॉं विराजमान दो कबूतरों को जिन्हें अमर कबूतर कहा गया है देखा तो दिल में उमंग, उल्लास की जो लहर दौड़ी उसका वर्णन शब्दों में बयान करना नामुमकिन सा लग रहा है, ये अनुभव तो आप पाठक भाई-बहन वहॉं जाकर महसूस कर सकते हैं। बर्फ से बने शिवलिंग का दर्शन बड़े सुकून के साथ हुआ फिर प्रसाद प्राप्त कर हर्षित मन से भोले की अदभुत शिवलिंग की छवि मन में लिए वापस बालटाल आने को चल दिये। दर्शन के पश्चात सफर की सारी थकान मानों गायब सी हो गई।
रात्रि बालटाल में श्री मणी महेश सेवा मण्डल, कपूरथला द्वारा लगाया गये पंडाल में विश्राम एवं शयन किया और सुबह वहीं लंगर में नास्ता-चाय कर वापस अपने बसों में रेल कोच फैक्टरी आने के लिए सवार हो गये।
वापसी रास्ते में सोनमर्ग में सुबह का नजारा बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। पूरे रास्ते नदी, पहाड़ एवं झरनों का अद्भुत नजारा था। श्री नगर में भी कुछ घंटे के लिए रुके।
वहॉं निशातबाग एवं डल झील में शिकारें में सैर किया। कश्मीर दर्शन करने पर पता चला कि यूं ही लोग कश्मीर को दूसरा स्वर्ग नहीं कहते। यह सच है कि अगर धरती पर स्वर्ग कहीं है तो वह कश्मीर में ही है।
स्थानीय प्रशासन के सुरक्षा कारणों से हम लोगों को एक रात मीर बाजार में गुजारनी पड़ी और दूसरे रात यानि 16.07.2011 को सुबह 2 बजे हम सब रेल कोच फैक्टरी कपूरथला पहुँचे, जहॉं के शिव मंदिर से हमारी यात्रा प्रारम्भ हुई थी।
हमारी यात्रा का समापन अगले रविवार को भगवान भोले के रुद्राभिषेक के साथ आरसीएफ के शिव मंदिर में ही हुई, जहॉं सभी यात्रियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
अंत में अमरनाथ की अमर कथा संक्षेप में:
जब मॉं पार्वती ने भोले शंकर से अमरत्व का रहस्य बताने को कहा तो शिव जी ने अपना नंदी बैल को पहलगाम (बैलग्राम) में, चंदनवाड़ी में चॉंद, शेषनाग में गले का सर्प, महागुनाश में अपने बेटे गणेश को और पंचतत्व (पृथ्वी, आकाश, पानी, हवा और अग्नी) जिससे मानव बना है को पंचतरणी में छोड़ा और पवित्र गुफा में विराजकर कालाग्नी के द्वारा सभी जीवित जीव को नष्ट कर मॉं पार्वती को अमरकथा सुनायी जो सौभाग्य से अंडे से बना कबूतर ने सुना और अमर हो गया। आज भी वह अमर कबूतर भक्तों को दर्शन देता है।
राकेश कुमार श्रीवास्तव