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Thursday, May 30, 2013

कैक्टस का फूल


 कैक्टस का फूल 
काँटों के बीच खिला है फूल,
जीवन का है यही उसूल, 
दुःख के बाद सुख आएगा ,
यह सिखलाता कैक्टस का फूल।

फूलों का जीवन छोटा है,

काहे को ये मन रोता है,
किया कर्म जो सच्चे मन से, 
काँटों में भी, फूल खिलता है।

खुशियों का जीवन चंद दिनों का,  

मीठा फल है तेरे सब्र का, 
ऊर्जा असीम ये जीवन को देगा, 
कर्म जरिया है खुशियाँ पाने का। 

खुशियाँ, सपनों में पलती है
इक दिन सबको ही मिलती है,
सच्चे मन से जब  कर्म करो तो 
जीवन में खुशियाँ मिलती है।

कैक्टस का जीवन एक तप  है,
आवश्यकताएँ इसकी, बहुत ही कम है,
फूल खिले तो सिर पर रखता है,
सभी मौसम में सम रहता  है।
-राकेश कुमार श्रीवास्तव    




Saturday, May 18, 2013

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-2)



PHOTO/GRAPHICS- R. K. SRIVASTAVA
उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-2)

युमथांग  - धरती का देवलोक :  

                                               मेरे एक प्रिय मित्र द्वारा दार्जिलिंग भ्रमण का प्रस्ताव मिला तो मेरा पर्यटक रूपी भ्रमर मन गुंजन करने लगा और उसी के गुनधुन में दार्जिलिंग के भौगोलिक स्थितियों का अनुसंधान करने लगा। इसी खोजबीन से पता चला कि भारत में अगर स्विटजरलैंड का दर्शन या मेरे प्रिय हिंदी सिनेमा के निर्देशक श्री यश चोपड़ा के फ़िल्मी लोकेशन का नजारा देखना हो तो उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम का दर्शन जरुरी है।

                                             इस सूचना को मैंने अपने मित्र को अग्रसरित कर दिया और उसने भी खुशी-खुशी अपनी रजामंदी दिखाई। जब मैं इन सूचनाओं की पड़ताल कर रहा था तो ऑफिस के एक मित्र भी इस रोमांचक यात्रा के लिए तैयार हो गए। इस तरह तीन परिवार अर्थात 11 सदस्यों के साथ यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। इसमें सबसे छोटी सदस्या मेरी बेटी की उम्र सात साल थी। जिस मित्र ने इस यात्रा की नींव रखी, उनको तो पटना से चलना था और हमलोगों को पंजाब के कपूरथला शहर से यात्रा प्रारंभ करनी थी।

रेल से दार्जिलिंग या गंगटोक पहुँचने के लिए न्यू जलपाईगुड़ी  या सिलीगुड़ी  पहुँचना जरुरी था। न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन को प्रारंभिक बिंदु मानकर यात्रा का खाका निम्न प्रकार से बनाई गई -
हम सभी 20 मार्च 2013  (दिन बुधवार ) को 11 बजे सुबह न्यू जलपाईगुड़ी  रेलवे स्टेशन पर तीनों परिवार मिलेंगे और वहाँ से गंगटोक पहुँचेंगे. 21 मार्च 2013  (दिन वृहस्पतिवार) को गंगटोक से चलकर लाचेन में रात्रि विश्राम करेंगे। 22 मार्च 2013  (दिन शुक्रवार) को गुरुडोंगमार दर्शन कर गंगटोक  में रात्रि विश्राम करेंगे. 23 मार्च 2013  (दिन शनिवार) को नाथुला पास का भ्रमण कर  दार्जिलिंग पहुँचेंगे।  24 मार्च 2013 (दिन रविवार) एवं 25 मार्च 2013 (दिन सोमवार) दार्जिलिंग भ्रमण  कर 25 मार्च 2013 (दिन सोमवार) को ही न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन रात पहुंचेंगें।

यहाँ एक सूचना देना जरुरी है कि इस तरह का प्रोग्राम बनाने के तीन मुख्य कारण थे  जिसमें पहला, सरकारी नौकरी होने के कारण सीमित छुट्टी , दूसरा नाथुला पास भ्रमण के लिए सिक्किम सरकार की तरफ से निर्धारित दिन जो बुधवार, वृहस्पतिवार, शनिवार एवं रविवार को है। तीसरा गंगटोक से बिना समय बर्बाद किये दार्जिलिंग पहुँचना।

पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार हमलोग  न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन पर पहुंचे पटना से आने वाले मित्र की ट्रेन थोड़े विलंब से पहुँची तो इस बीच एक टूर ऑपरेटर का दलाल हमलोगों के पीछे लग गया , हमलोगों ने सोचा चलो पता करते है। वो एक टूर ऑपरेटर के पास ले गया जो हमलोगों को महँगा लगा। रेलवे स्टेशन परिसर में एक स्थानीय व्यक्ति ने सुझाव दिया की आप सीधा गंगटोक जाएँ, वहाँ एम. जी. रोड पर सस्ते में आपका काम हो जायेगा। तो, हमलोगों ने दोपहर का खाना खाकर एक दस सीटों वाली  गाड़ी 2200 रू. में तय कर गंगटोक के लिए रवाना हुए। सिलीगुड़ी से आगे बढ़ने पर   तीस्ता नदी के दर्शन हुए।


तीस्ता नदी ऐसे लग रही थी मानो हरे रंग कि साड़ी पहने शांति के साथ आगे बढ़ रही हो। ऐसा सुन्दर नजारा देख कर, हमलोग ने  एक जगह रुककर तीस्ता नदी के किनारे चाय पी एवं प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद उठाया। करीब रात 8 बजे हमलोग गंगटोक के सिलीगुड़ी टैक्सी स्टैंड,देवराली पहुँच गए। ऐसे गंगटोक आने के लिए उपयुक्त जगह सिलीगुड़ी रेलवे स्टेशन है। वहाँ पर दस सीटों वाली पूरी गाड़ी या प्रति सीट के हिसाब से गाड़ी गंगटोक जाने वाले यात्रियों के लिए सुलभ उपलब्ध रहती है। न्यू जलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी के लिए ऑटो चलते है।

खैर! देवराली में बहुत सारे होटल हैं और वहाँ डबल बेड वाले  कमरें 500 रु. से 1000 रु. में मिल जाते हैं। हमलोगों ने एक होटल में कमरा बुक कर सामान रखा और खाना खाने के लिए निकल पड़े।

स्वादिष्ट खाने की तलाश में एक होटल हॉटलिक्स  का पता चला, वहाँ पर सभी तरह के व्यंजन उपलब्ध थे बच्चों ने कांटिनेंटल और हमलोगों ने वेज एवं नान-वेज खाना स्वाद ले-ले कर खाया और होटल में आकर सो गए।

गंगटोक में पता चला कि गुरुडोंगमार के लिए रास्ता बहुत खराब है और हो सकता है कि रास्ता बंद भी हो जाए, साथ ही एक रात रुक कर वापस गंगटोक आना मुश्किल है। वहाँ के लिए दो रात का पैकेज टूर चलता है जिसमे गुरुडोंगमार के साथ युमथांग का दर्शन शामिल है। अतः उपरोक्त कारणों से हमने 22 मार्च 2013  (दिन शुक्रवार) को गुरुडोंगमार दर्शन की जगह युमथांग वैली दर्शन कर दिया।


गंगटोक में ट्रेवल एजेंट के साथ मोल-भाव करना पड़ता है. जिस होटल में हमलोग ठहरे थे उसने प्रति गाड़ी 18,000 रु. माँगा था। अतः.सुबह 6 बजे हम दो मित्र, एम. जी. रोड चले गए। बाज़ार, स्थानीय एवं सैलानियों की सुबह की सैर से गुलजार थे। हम लोगों ने भी  एम. जी. रोड  पर सुबह की सैर का आनंद उठाया। वहाँ के स्थानीय लोग हंसमुख एवं मिलनसार है। यह गंगटोक में ही संभव है कि चार सीटों वाली कार पर प्रति सीट 10 रु. देकर 5-7 कि.मी. यात्रा कर सकते हैं। शहर के अंदर सुबह 8 बजे से लेकर रात 10 बजे तक, चार सीटों वाली  कार से बड़ी गाड़ी नहीं चलती है।


एम. जी. रोड  के टैक्सी स्टैंड पर हमने दस सीटों वाली महिंद्रा गाड़ी 9500 रु.(खाना एवं होटल के कमरे सहित) में युमथांग के लिए एवं  5500 रु. में नाथुला पास के लिए गाड़ी आरक्षित करा ली। युमथांग और नाथुला पास की यात्रा के लिए सिक्किम सरकार से यात्रा परमिट लेना पड़ता है। जिसके लिए प्रत्येक सदस्य के चार पासपोर्ट आकार के फोटो एवं पता लिखा हुआ पहचान पत्र आवश्यक है। बच्चों के लिए पहचान पत्र आवश्यक नहीं है। विदेशी नागरिक नाथुला पास की यात्रा नहीं कर सकते, वे केवल छांगू लेक (Tsomgo Lake) तक की यात्रा कर सकते है।


ट्रेवल एजेंट के निर्देशानुसार हमलोग अपने होटल से टैक्सी द्वारा वाजरा स्टैंड सुबह 10 बजे पहुँच गए। वहीँ पर नास्ता करके युमथांग के लिए गाड़ी में सवार हो गए।रास्ते में, सिक्किम की स्थानीय फिल्म की शूटिंग, रास्ता रोक कर की जा रहा थी, जिसकी थोड़ी सी झलक हमलोगों को भी देखने को मिला।


हमलोगों का अगला पड़ाव गंगटोक से 32 कि.मी. की दूरी पर सेवेन सिस्टर झरना था. खुले  आसमां और प्रकृति के मनमोहक दृश्य के साथ शाकाहारी मोमोज, चाय की चुस्की एवं झरने से निकल रहा मधुर संगीत, हमलोगों को खास होने का एहसास दिला रहा था। गाइड-सह- ड्राईवर के लाख मना करने के बावजूद हमलोगों ने  पत्थरों पर चढ कर झरने के पानी से खूब मस्ती की, फिर ही आगे बढ़े। रास्तों में सड़कों एवं पुलों की हालत बहुत दयनीय थी, जगह-जगह पर सड़कों की मरम्मत का कार्य चल रहा था। यहाँ से मगन 36 कि.मी. के दूरी पर है, जहाँ यात्रा परमिट चेक होता है। हम थोड़ी दूर आगे बढे ही थे कि बूंदा-बांदी शुरू हो गई। मौसम सुहाना एवं प्रकृति के अनुपम नजारों में झरना एवं नदी, चार चाँद लगा रहे थे,
 जिसको देखने भर से जी नहीं भर रहा था, मन करता था कि पास जाए परन्तु रास्ता खराब होने के कारण ड्राईवर जल्द से जल्द लाचुंग पहुँचना चाह रहा था, जो  गंगटोक से 125 कि.मी. दूरी एवं समुन्द्र तल से 9,600 फीट पर स्थित  है। लाचुंग का अर्थ छोटा रास्ता होता है। मगन पहुँचने के पहले ही बहुत जोरो से बारिश होने लगी और सड़कों का हालत देख कर हमलोगों की हालत पतली हो रही थी। 

खैर! हमलोग शाम को 6 बजेआज के अंतिम पड़ाव  लाचुंग पहुंचे, वहाँ के एक लॉज मे पहुँचकर आराम कर ही रहे थे कि, इसी बीच ड्राईवर ने हमलोगों के लिए चाय भिजवायी एवं खाने का इंतजाम कर यह सूचना दी कि कल सुबह 6 बजे हमलोगों को युमथांग के लिए निकलना है और साथ ही हिदायत भी दी कि अगर सुबह जल्दी नहीं चलेंगे तो बर्फ देखने का मजा कम हो जाएगा। यह सुनकर हमसभी ने रात्रि  भोजन कर कम्बलों में दुबक कर सो गए। बर्फ के अदभुत नजारे देखने के लालच में हमलोग सुबह 5:30 बजे तैयार होकर लॉज के बाहर निकले, तो सामने कंचनजंघा की चोटी हिमताज पहने अपना सौंदर्य बिखेर रही  थी और उसके पाँव पखारती तीस्ता  सहायक नदी लाचुंग, सड़क के किनारे से गुजर रही थी। 
सूरज की किरणें, कंचनजंघा कि चोटी को चमक प्रदान कर प्रकृति को नयनाभिराम बना रही थी। चाय पीकर हमलोग ड्राईवर का इन्तजार कर रहे थे। ड्राईवर ठीक  सुबह 6 बजे उपस्थित हो गया और हमलोग गाड़ी में सवार होकर अगले पड़ाव युमथांग के लिए रवाना हो गए।  युमथांग समुन्द्र तल से 11,800 फीट  एवं  लाचुंग से 25 कि.मी. दूरी पर है।  

कुछ दूर आगे आने पर बर्फ, मैदान के साथ-साथ सड़कों के किनारे एवं पेड़ों पर दिखने लगी अब तो बर्फ छूने के लिए बच्चों के साथ-साथ बड़ों का भी दिल डोलने लगा परन्तु लगातार ड्राईवर के आश्वासन पर बैठे रहे, तभी हमलोगों ने देखा कि रास्ते में किसी कारण से बहुत सी गाडियाँ कतार में खड़ी है। ड्राईवर गाड़ी से उतर कर इस वजह का कारण पता करने गया, तबतक हमसभी गाड़ी से उतर कर बर्फ के साथ खूब मस्ती की। थोड़ी देर में ड्राईवर आ गया, वह जल्दी में था और हमलोग भी शरीफ बच्चों की तरह बिना विलंब किये गाड़ी में सवार हो गए। धीरे-धीरे गाड़ियों का कारवां आगे बढ़ने लगा। अब तो गाड़ी बर्फ पर ही चल रही थी, यह देख हमलोग रोमांचित होने के साथ-साथ डर  भी रहे थे।

प्रकृति का सौंदर्य बढता ही जा रहा था, पेड़ बर्फ से लदे पड़े थे। क्षण-प्रतिक्षण प्रकृति का नजारा बदल रहा था। प्रकृति  के सौंदर्य में, पहले दो चाँद  फिर चार चाँद  फिर आठ चाँद  लगते ही जा रहे थे. अतः ड्राईवर की बात को मानना ही पड़ा और मजबूर हो कर हमलोग गाड़ी में बैठे रहे। तभी कुछ दूर पर चहल-कदमी दिखाई दी। सभी सैलानी भाव-विभोर हो कर प्रकृति का नजारा ले रहे थे। चारों तरफ बर्फ एवं उसके बीच में छोटी-छोटी दुकाने करीने से सजी हुई थी। ये जगह कोई और नहीं युमथांग था। ड्राईवर ने हमलोगों के लिए कॉफी एवं नास्ते का प्रबंध एक दुकान में किया। दूकान के अंदर अलाव का भी प्रबंध था।
हमलोगों ने अपने-अपने हाथ-पाँव गर्म कर भाड़े  के  गमबूट पहन लिए और बर्फ के मैदान की ओर बढने लगे, तभी ड्राईवर ने कहा- अगर इससे भी सुन्दर जगह देखना हो तो जीरो पॉइंट अर्थात युमेसंदोंग चलना पड़ेगा जो यहाँ से 16 कि.मी. दूरी पर है। ड्राईवर की बातों पर विश्वास जम चुका था, इसलिए 1000 रु. अतिरिक्त शुल्क देकर हमलोग गाड़ी में सवार हो गए। रास्ते का नजारा अदभुत होता जा रहा था। वहाँ  पेड़-पौधों का नामोंनिशान नहीं था, केवल धवल हिम की  चादरों में लिपटे पर्वत एवं पैरों के नीचे मखमली श्वेत बर्फ को हमलोग आत्मसात कर रहे थे। असीम शांति! रूह तक को चैन पहुँचाने वाला अध्यात्मिक माहौल परन्तु ये अनुभव मैं ज्यादा देर तक नहीं ले सका क्यूंकि सभी एक-दूसरे पर खुशी से ये लो ,ये लो कह कर एक-दूसरे पर बर्फ 



का गोला  फेंकने लगे. मैं भी उन्हीं के रंग में रंग गया, लेकिन यह सब ज्यादा देर नहीं चल सका चूँकि 16,000 फीट पर ऑक्सीजन की कमी के कारण सभी का जोश जल्द ही ठंडा हो गया। फिर हमलोग युमथांग आ गए। वहाँ के सपाट बर्फ के  विशाल मैदान में सभी ने खूब मस्ती की। मैदान के बीचों-बीच नदी बह रही थी। ऐसे नजारों की तो मैनें कभी कल्पना भी नहीं की थी परन्तु साक्षात् अनुभव कर मैं भाव-विभोर हो रहा था। अंदर से आवाज आ रही थी कि काश! ये पल यहीं ठहर जाए।
युमथांग तो ऐसे फूलों की घाटी के नाम से मशहूर है परन्तु इस समय सभी फूलों के पेड़ श्वेत चादरों में लिपटे सो रहे थे। भारी मन से हमलोगों ने युमथांग से विदा ली। फिर हमलोग लाचुंग पहुँच

कर खाना खाकर गंगटोक के लिए रवाना हुए।

                               जब हमलोग युमथांग के लिए जा रहे थे तो मेरी पत्नी जी, उधर से आ रहे यात्रियों के लटके चेहरे देख कर बोली थी- " लगता है की हमलोग बेकार ही युमथांग जा रहे है. किसी भी यात्री के चहरे पर खुशी नहीं है।"  अब, जब हमलोग युमथांग से लौट रहे थे तो होम सबी का चेहरा थकान से लटका हुआ था, तो मैंने चुटकी लेते हुए पत्नी जी को बोला- " लगता है की आपको युमथांग अच्छा नहीं लगा इसलिए तुम्हारा चेहरा लटका हुआ है."  थकान के कारण बस मुस्कुराकर मेरे कंधे पर अपना सिर टिका कर आंखे मुंद ली. उस मुस्कराहट में साफ संकेत थे की मौक़ा लगा तो युमथांग दुबारा फिर आयेंगें. 
हमलोग करीब रात 10 बजे, एम.जी. रोड के एक होटल में खाना खाकर अपने होटल पहुँच गए. नींद के मारे बुरा हाल था. इसलिए बिस्तर पर लेटते ही नींद के आगोश में चले गए।

पार्ट-1 पढ़ने के लिए क्लिक करें:-

-राकेश कुमार श्रीवास्तव