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Monday, November 19, 2012

भारत माँ

                             भारत   माँ  




तू  तो मेरी प्यारी माँ ,
तेरी शान निराली माँ  ।
तेरे आँचल में हरियाली ,
सर पे ताज हिमालय माँ  ।।
                                                              करोड़ो बहती सरिता तुझ में,
                                                               बनकर रुधिर वाहिका तन में ।
                                                              अगल-बगल सागर लहराती,
                                                              पाँव हिंद महासागर पखारती ।।
तुझ में सृष्टि की सारी रचना,
नदी झील सागर और झरना ।
मरुस्थल पर्वतों का क्या कहना,
लगता है जैसे हो सपना ।।
                                                             खनिज संपदा वनस्पति अपार है,
                                                            जलीय-जीव पशु-पक्षी नाना-प्रकार है ।
                                                            तेरे कारण यहाँ जीवन आसान है,
                                                           कैसे न कहूँ माँ तू  महान है ।।
ऋतु मौसम ऐसे सजा है,
सभी दिशाओं में विभिन्न फिज़ा है ।
ऐसा नज़ारा और कहाँ है,
सारे विश्व का रूप यहाँ है  ।।
                                                         लूटने आया जो भी  तुझको,
                                                         ऐसे रिझाया तुमने उसको  ।
                                                        वो तेरा गुलाम हो गया,
                                                        कदमों  में तेरी दो जहाँ पा गया  ।।
अनेक रंग जाति और भाषा ,
सभी भारतीयों  की एक ही आशा ।
हमारा भारत बने महान,
इसके लिए हम दे दें जान ।।
                                                      तेरी सेवा किए ज्ञानी-विज्ञानी,
                                                     कण-कण में संतों की वाणी ।
                                                     कभी तेरे काम आ जाऊ माँ ,
                                                    हँसते हुए  शीश चढ़ाऊ माँ ।।

राकेश कुमार श्रीवास्तव 



Thursday, November 1, 2012

जीवन का अस्तित्व-एक विचार


जीवन का अस्तित्व-एक विचार 

पानी की बूंद की उत्पत्ति का रहस्य भी अजीब है | मैंने बहुत  सोचा, परन्तु समझ न सका , कहाँ से आया और इसका क्या हश्र होगा? खैर ! बूंद, जिसकी शायद नियति ही थी उसकी  उत्पत्ति का कारण|

  बूंद तो अपने आप में मग्न थी क्योंकि वह अपने आप को बादल का एक सदस्य समझ कर अनेक बूंदों के साथ आकाश में विचरण कर रही थी  परन्तु एक दिन अचानक अपने आप को धरती की तरफ गिरते हुए  महसूस किया  और इस गिरने में भी, वह अपने आप में आनन्द की अनुभूति  महसूस कर रही  थी। बूंद वाकई भाग्यशाली थी  कि वह नदी में जा गिरी   एवं लहरों के साथ ऐसे जा मिली  कि यह  भूल गई कि वह बादलों के साथ कभी आकाश में विचरण करती  थी | नदी  के मध्य, लहरों में हिलोरें लेते हुए अभी आगे बढ़ रही थी। अचानक वह किनारे कि तरफ चली गई  और अपने आप को एक पत्थर से टकराते हुए महसूस किया और उछल कर फिर नदी के मध्य में जा मिली | आश्चर्य! बूंद फिर भी नहीं टुटी , लेकिन  बूंद को पाँच-दस पत्थर से टक्कर के बाद वह समझ गई  कि अब उसकी नियति पत्थरों से टकरा कर फिर नदी में मिल जाना ही है | फिर एक  दिन नदी के किनारे किसी महापुरुष के वाणी से पता चला कि नदी की  मुक्ति, सागर में मिलने पर ही है|बूंद अब इस एहसास के साथ समय बिताने लगी  कि सागर में किसी प्रकार जा कर मिले तो शायद उसे  भी मुक्ति मिले, चूँकि नदी भी उन  जैसों से ही तो बनी  है ।

एक दिन ऐसा आया, बूंद ने अपने आप को अथाह सागर की  गोद में पाया परन्तु बूंद की किस्मत फिर भी नहीं सुधरी उसकी हालत पहले से और खराब हो गई पहले लहरों की आपस की लड़ाई फिर चट्टानों से टकरा-टकरा कर अपना सर फोडती  रही ,  फिर भी वह नहीं टूटी  लेकिन अंदर ही अंदर काफी टूट चुकी थी | वह संवेदनहीन हो कर सागर की  लहरों में शामिल होती  और चट्टानों से टकराती।

एक दिन वह अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी  कि उसने थकी हुई आँखों से देखा तो उसे विश्वाश  न हुआ कि उसकी आकृति बूंद की तरह न होकर लम्बी धुँए की तरह हो गई और वह धरती से आकाश की ओर उड़ रही थी । असीम  शांति ! इस आनन्द की अनुभूति में कब आँखें बंद हो गई पता ही नहीं चला | जब ऑंखें खोली तो उसने  अपने आप को बादलों के बीच  पाया |

उफ्फ ! यह सफ़र कब तक ......    अपना जीवन भी निरंतर ऐसे ही चलता  रहता  है| जब हम बचपन में माँ-बाप के साथ रहते हैं तो   मजे की जिन्दगी जीते हैं| जब जवानी आती है तो कुछ दिन मज़े में काटते हैं, फिर जिम्मेदारी को निर्वाह करने हेतु अपने ही जैसे लोगों से प्रतिस्पर्धा करते हैं, एवं अधिक पाने के लिए गला-काट प्रतिस्पर्धा के बीच संवेदनहीन जीवन जीते हुए मौत को गले लगाकर इस दुनिया में फिर जन्म लेते है..................

बूंद की  परिणति अब सब ने है जानी,
जम गई तो बर्फ,
उड़ गई तो वाष्प
नहीं तो पानी ।
जीवन की  भी कुछ ऐसी ही है कहानी,
जड़ हो गए तो तमोगुणी,
सम हो गए तो सतोगुणी
और रम गए तो रजोगुणी|

-राकेश कुमार श्रीवास्तव