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Monday, December 2, 2013

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-4, अंतिम भाग )

उत्तरी एवं पूर्वी सिक्किम की यात्रा (पार्ट-4,अंतिम भाग )



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दार्जिलिंग
 


गतांक से आगे.......

गंगटोक से करीब शाम को 4:30 बजे दार्जिलिंग के लिए रवाना हुए।  सिक्किम यात्रा के दौरान हुए शारीरिक थकान के कारण यह सफ़र बोझिल के साथ-साथ भयावह लग रहा था क्योंकि जल्द ही आकाश पर अँधेरी रात का साम्राज्य स्थापित हो चुका था।  हमारी गाड़ी, जंगलों के बीच पहाड़ी रास्तों से होते हुए दार्जिलिंग की ओर बढ़ रही थी. रात 9 बजे के करीब हमलोग होटल पहुंचे और खाना खाकर रात 11 बजे बिस्तर पर निढाल होकर सो गए। 

     हमलोगों ने तय किया था कि सुबह 10 बजे दार्जिलिंग भ्रमण को निकलेंगे।  सुबह जब हमलोग उठे और बाहर का नज़ारा देखा तो हतप्रभ रह गए।  अदभुत नज़ारा हमलोगों को अभिभूत कर रहा था मानो किसी चित्रकार ने अपनी कृति के विशाल कैनवास को हमलोगों के सामने लटका दिया हो. सामने कुछ दुरी पर राज-भवन दिख रहा था।  अंग्रेजों के शासन-काल में दार्जिलिंग, ग्रीष्म-ऋतु में राजधानी हुआ करता था एवं अन्य ऋतु में कलकत्ता।  आज भी यह भवन दो सप्ताह के लिए पश्चिम बंगाल के गवर्नर का निवास स्थान होता है। 


     नियत समय पर हमलोग दार्जिलिंग भ्रमण के लिए निकले।  सुबह सबसे पहले बुद्ध मंदिर गए. इसे जैपनीज टेम्पल भी कहते है।  इस मंदिर के बगल में एक बहुत ही सुन्दर श्वेत रंग का शान्ति स्तूप है जिसमें चार सुनहरे रंग के बुद्ध कि मूर्ति एफ.आर.पी.(फाइबर री-इन्फोर्सड पलास्टिक) पदार्थ से बनी है जिसका मोल्ड, सुरदर्शन क्राफ्ट म्यूजियम उड़ीसा द्वारा सैंड स्टोन से बनाया गया था।  अन्य वास्तुशिल्प जापानियों द्वारा बनाया गया था. इस स्तूप का व्यास 23 मी. एवं उचाई 28 .5 मी.है। 



इसके बाद हमलोग लाल कोठी गए जिसे आजकल डी.जी.एस.सी. सेक्रेटेरीयेट कहते है।  लाल कोठी कभी दीवान राय की पत्नी रानी भवानी का निवास स्थान था एवं इसे गोरी विला के नाम से जाना जाता था।  यहाँ नाना प्रकार के फूल एवं पेड़ इस स्थल को रमणीक बना रहे थे।  यहाँ से दार्जलिंग का नज़ारा बहुत ही सुन्दर दिख रहा था।   बॉलीवुड की बहुत सी फ़िल्में इसके मनोरम स्थल होने का सबूत देते हैं।  यहाँ प्रवेश टिकट में ही वेलकम ड्रिंक के रूप में दार्जलिंग की चाय दी जाती है जिसको पीने के बाद हमलोग रॉक-गार्डेन के लिए रवाना हुए जिसकी दुरी शहर से लगभग 10 कि.मी. है।  शहर से निकलने पर घुमावदार रास्तों के अगल-बगल चाय-बागानों को निहारते हुए जब हमलोग रॉक-गार्डेन के प्रवेश-द्वार पर पहुंचे तो वहां प्राकृतिक झरना हमलोगों के स्वागत में मधुर संगीत के साथ बह रही थी।
 गोरखा के स्थानीय पोशाकों को हम सभी ने पहन कर झरने के किनारे नृत्य किया और जमकर फोटोग्राफी की।  रॉक-गार्डेन के प्राकृतिक सौन्दर्य के मोह-पाश से मुश्किल से निकलकर वहां से पद्मजा नायडू हिमालयन जू एवं हिमालयन मौन्टेयरिंग इंस्टिट्यूट देखने को निकले।  रास्ते में तेन्जिंग रॉक देखा जहाँ तेन्जिंग माउन्ट एवेरेस्ट फतह करने से पहले यहाँ अभ्यास किया करते थे।  आज भी HMI द्वारा ट्रेकिंग के पहले यहाँ प्रशिक्षण देते हैं।

 यहाँ का चिड़ियाघर की दो ख़ास बात अन्य चिड़ियाघर से अलग करती है, एक यहाँ का रेड पांडा एवं दूसरा एक्वेरियम का संग्राहलय।  चिड़ियाघर के आगे ही
HMI है. यहाँ पर्वतारोहण का प्रशिक्षण दिया  जाता  है।  इसकी स्थापना 19 मई 1953 में पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रयास से हुआ।  यहाँ पर्वतारोहण से सम्बंधित एक अजायबघर भी जो अपने आप में अनोखा है।  इसमें मॉडल द्वारा हिमालय की सभी चोटियों को आकर्षक ढंग से प्रदर्शित किया गया है साथ में हिमालय में पाए जाने वाले पशु-पक्षी एवं पर्वतारोहण में काम आने वाले पोशाक, औज़ार इत्यादि रोचक ढंग से प्रदर्शित किए गए है।  यहाँ आदम-कद का तेन्जिग शेरपा एवं एडमण्ड हिलेरी की मूर्ति भी है। 

इसके बाद आज के अंतिम पड़ाव चाय-बगान का नजदीक से दर्शन के लिए निकल पड़े।  चाय-बगान के अन्दर जाना अपने-आप में एक अनोखा अनुभव था। चाय-बगान में फोटोग्राफी करते-करते शाम हो गई।  हमलोग स्थानीय खरीदारी के लिए बाज़ारों में घूम रहे थे तभी हमलोगों को एक विशाल जुलूस दिखाई पड़ा।  सैकड़ों की तदाद में महिलाएं हाथों में मशाल लिए शांतिपूर्वक आगे बढ़ रही थी और “वी वांट गोरखालैंड” के नारे लगा रही थीं।  मैं इतना बड़ा प्रदर्शन बिना बाज़ार बंद किए हुए पहली बार देख रहा था।  करीब आधे घंटे के बाद प्रदर्शनकारी आँखों से ओझल हो गए लेकिन उनकी मांग, मधुर संगीत की तरह काफी देर तक सुनाई देती रही। 






अगले दिन सूर्योदय देखने टाइगर हिल जाना था जिसकी दुरी शहर से 13 कि.मी. एवं समुन्द्र तल से 8482 फीट के ऊँचाई पर स्थित है।  सूर्योदय देखने के लिए हमलोग सुबह 4 बजे टाइगर-हिल के लिए रवाना हो गए।  टाइगर-हिल से 2 कि.मी. पहले ही गाड़ियाँ कतारों में खड़ी थी।  जब हमलोग टाइगर-हिल पहुंचे तो वहाँ, लोगों के हुजूम को देखकर ऐसा लग रहा था जैसेकि यहाँ मेला लगा हो।  ठण्ड बहुत लग रही थी परन्तु स्थानीय महिलाओं द्वारा 10 रु. प्रति कप गरमा-गर्म कॉफी, पर्यटकों को राहत पहुंचा रही थी।  हमलोगों ने भी ठण्ड से बचने के लिए कॉफी का आनंद लिया तभी आकाश में लालिमा दिखी।  सभी की निगाहें पूरब की तरफ स्थिर हो गई। सिहरन पैदा करने वाली ठंडी हवा पूर्व दिशा की ओर बह रही थी परन्तु अति उत्साह के कारण इसका प्रभाव कम था। इन हवाओं के संग बादलों का झुण्ड पूर्व दिशा की ओर तेजी से बढ़ रहा था मानो सूर्योदय की तैयारी में उनको विशेष कार्य हेतु विलंब हो रहा हो और वास्तव में बादलों का समूह सूर्य के श्रृंगार में अद्भुत योगदान दे रहे थे।  सूर्य की लालिमा बादलों को अलौकिक रूप प्रदान कर रहे थे एवं बादलों का समूह सूर्य के चारों तरफ अनुपम छटा बिखेर रहे थे।  सूर्य, बादल एवं पर्वत श्रृंखला मिलकर प्रकृति के सौन्दर्य को चार-चाँद लगा रहे थे।  सूर्य भी पूर्ण श्रृंगार के बिना अपना रूप दिखाना नहीं चाह रहे थे।  अतः काले बादलों के ओट में कभी-कभी छिप कर अपना श्रृंगार ठीक करते फिर दर्शन देते और जब तक सूर्य पूर्णतः उदय नहीं हो गए तब-तक बादल रूपी दरबारी सूर्य की राजतिलक समारोह के लिए भागे ही जा रहे थे।  वहाँ के नजारों को देखने के बाद कहीं जाने की इच्छा नहीं थी परन्तु घुमक्कड़ मन वहाँ से चलने को मज़बूर हो गया।  हमलोग, घूम बौद्ध मठ देखने को निकल पड़े।
 रास्ते में घूम रेलवे स्टेशन मिला जो भारत के सबसे ऊंचे स्थान पर बसा रेलवे स्टेशन है।  घूम बौद्ध मठ के शान्ति को आत्मसात कर हमलोग बतासिया लूप एवं वार मेमोरियल देखने गए।  गोरखा लोगों के शहीद सैनिकों के याद में यहाँ पार्क बनाया गया है एवं दार्जलिंग रेलवे पटरी का एक लूप  पूरे पार्क का चक्कर लगाता है।  यहाँ से कंचनजंघा पर्वत का मनमोहक दृश्य देखने के बाद हमलोग न्यू जलपाईगुड़ी भाया पशुपति बाज़ार(नेपाल) एवं मिरिक के लिए रवाना हुए।  पशुपति बाज़ार में कुछ खास बात नहीं है परन्तु जो लोग कभी नेपाल नहीं गए है वो एक बार जा सकते हैं।  इसके बाद हमलोग मिरिक पहुंचे।  यहाँ 1.25 कि.मी. लम्बा सुमेंदु लेक अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ-साथ नौका विहार के लिए मशहूर है। हमलोगों ने कुछ पल शुकून के बिताने के बाद न्यू जलपाईगुड़ी के लिए चल पड़े. चाय-बागानों, जंगलों एवं घाटियों के साथ किए इस सफ़र के   अनुभव को शब्दों में बांध पाना मेरे लिए असंभव है। 

विशेष जानकारी:- जब भी मैं बौद्ध धार्मिक स्थलों पर जाता था तो उनके धार्मिक झंडों के प्रति उत्सुकता बनी रहती थी और ये झंडे धार्मिक स्थलों के साथ-साथ पुरे कस्बे को अनुपम सौंदर्य प्रदान करते हैं।  ये नज़ारा मुझे धर्मशाला, सिक्किम, दार्जिलिंग आदि जगहों पर महसूस  हुआ।

इन प्रार्थना झंडे को तिब्बती भाषा में डार'चो कहते है।जीवन, किस्मत, स्वास्थ, और धन को बढाने को डार कहते हैं एवं चो का अर्थ है सचेतन। ये झंडे पांच रंग के होते हैं - पीला रंग का झंडा पृथ्वी का प्रतिक है, हरा  रंग का झंडा पानी का प्रतिक है, लाल रंग का झंडा अग्नि का प्रतिक है, सफ़ेद रंग का झंडा हवा का प्रतिक है एवं नीला रंग का झंडा आकाश का प्रतिक है। रंगों का क्रम हमेशा पीला, हरा, लाल, सफ़ेद और नीला होता है। ऊर्ध्वाधर अवस्था में नीला सबसे ऊपर और पीला सबसे नीचे होता है। क्षैतिज अवस्था में यही क्रम दायें से बायें या बायें से दायें होता    

- राकेश कुमार श्रीवास्तवा